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बिहार के मुंगेर किले की गाथा

बिहार का भव्य मुंगेर किला, उत्तरी और पश्चिमी किनारों पर पवित्र गंगा नदी से घिरा है। किले का समृद्ध इतिहास शहर के भूदृश्य से जुड़ा हुआ है, जहाँ कई राजवंशों का राज्य रहा है। ऐसा माना जाता है कि शहर की प्राचीनता का प्रमाण महाभारत और रामायण के समय से ही मिलता है। यह किला एक पहाड़ी पर स्थित है, और 222 एकड़ के एक विशाल क्षेत्र में फैला हुआ है। किले का प्राचीर 30 फ़ीट मोटा है और 21 मील की लंबाई तक घुमावदार रूप से फैला हुआ है। किले के चारों ओर 175 फ़ीट चौड़ी खाई है। किले में तीन द्वार हैं, जिनमें से मुख्य प्रवेश-द्वार दक्षिण की ओर है। इस संरचना के रणनीतिक रूप से उचित स्थल पर स्थित होने के कारण, इसे कार्यसाधक परिवहन, समुद्री संसाधनों तक पहुँच, और फलते-फूलते व्यापार और वाणिज्य जैसे फ़ायदे प्राप्त हुए।

“Pinnace sailing down the Ganges past Monghyr Fort”, Oil painting by Thomas Daniel (1749-1840 CE). Image source: Wikimedia Commons.

"पिनेस सेलिंग डाउन द गंगा पास्ट मोंघिर फ़ोर्ट", थॉमस डेनियल (1749-1840 ईस्वी) द्वारा तैलीय चित्रकारी। चित्र स्रोत- विकिमीडिया कॉमन्स।

मुंगेर, इतिहास के आईने से

कहा जाता है कि मुंगेर के प्राचीन शहर की स्थापना स्थानीय ऋषि, मुनि मुग्दल ने की थी, जो एक पहाड़ी पर रहते थे। इसीलिए प्राचीन काल में, मुंगेर मुग्दलगिरी के नाम से भी प्रसिद्ध था। इसे "मोदागिरी" भी कहा गया है, जो महाभारत में वर्णित एक स्थान का नाम है। शहर के कई पवित्र आख्यान महावीर और गौतम बुद्ध से जुड़े हुए हैं। बौद्ध ग्रंथों में "मौदगोल्यागिरी" का उल्लेख है, जिसका नाम बुद्ध के शिष्य मौदगोल्य के नाम पर रखा गया है। इसलिए, यह शहर एक समन्वित धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत को दर्शाता है। यह शहर प्रमुख तौर पर पाल वंश के शासनकाल (8वीं -12वीं शताब्दी ईस्वी) के दौरान विकसित हुआ। शक्तिशाली राजा धर्मपाल ने मुंगेर को अपनी राजधानी घोषित किया। मुंगेर शिलालेख जिन्हें "मुंगेर प्लेट्स" भी कहा जाता है, इस तथ्य के प्रमाण हैं।

12वीं शताब्दी ईस्वी में, बख़्तियार ख़िलजी ने मुंगेर के अंतिम पाल शासक को हराया। अभिलेखों में उल्लेख है कि बख़्तियार ख़िलजी के पुत्र ने शहर को लूटा था। इसके बाद शहर, दिल्ली सुल्तान, मुहम्मद बिन तुग़लक़ के हाथों में चला गया। हालाँकि यह बंगाल में हुसैन शाही वंश के संस्थापक अला-उद-दीन हुसैन शाह हैं जिन्हें 1494 ईस्वी में, यहाँ के किले के निर्माण का श्रेय दिया जाता है। किले की वास्तुकला में स्वदेशी हिंदू और इस्लामी तत्वों का सम्मिश्रण देखा जा सकता है।

इतिहासकार, डॉ. फ़्रांसिस बुकनन ने लिखा है कि शुरू में किला स्थानीय रूप से उपलब्ध सामग्री से बनाया गया था और इसकी संरचना ऊबड़-खाबड़ और अनियमित दिखती थी, लेकिन समय के साथ, इस्लामी वास्तुकला के प्रभाव के परिणामस्वरूप, यह एक परिष्कृत संरचना में परिवर्तित हो गया। 1530 के दशक में मुंगेर सूर वंश के अधीन आया। 1545 ईस्वी में, कारारानी जनजाति के एक अफ़ग़ान, मियाँ सुलेमान ने शेर शाह के पुत्र, इस्लाम शाह की ओर से किले पर क़ब्ज़ा कर लिया। हालाँकि, फिर उन्होंने बहादुर शाह (बंगाल के राजा) के साथ गठबंधन किया और आदिल शाह (सूर वंश के सातवें दावेदार) को गद्दी से हटाकर मार डाला। इसके बाद 1563 ईस्वी में, सुलेमान ने अक़बर का आधिपत्य स्वीकार कर लिया।

1657 ईस्वी में, मुंगेर मुग़ल सम्राट शाहजहाँ की बीमारी के बाद उत्तराधिकार के एक और युद्ध का गवाह बना। मुग़ल सिंहासन के एक दावेदार, शाह शुजा ने, अपनी हार के बाद दो बार मुंगेर में शरण ली: एक बार बहादुरपुर (बनारस के पास) में सुलेमान (दारा शिकोह के पुत्र) के हाथों, और दूसरी बार औरंगज़ेब द्वारा कुडवा में।

Eastern End of the Munger Fort, painting by William Hodges, 1787 CE. Image source: Wikimedia Commons.

मुंगेर किले का पूर्वी छोर, विलियम हॉजिज़ द्वारा चित्रकारी, 1787 ई। चित्र स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स।

जब बंगाल के नवाब, मीर क़ासिम की राजधानी मुर्शिदाबाद से मुंगेर स्थानांतरित हुई, उनके शासनकाल में मुंगेर के किले ने एक बार फिर प्रमुख स्थान प्राप्त किया। अपनी सैन्य-शक्ति का विस्तार करने और अंग्रेज़ों को बंगाल से बाहर निकालने के लिए मीर क़ासिम ने अपने आर्मीनियाई जनरल, गुरगिन ख़ान को किले के अंदर एक पारंपरिक शस्त्रागार का निर्माण करने का आदेश दिया, जो आज बंदूक कारखाने के नाम से प्रसिद्ध है। इस किले में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारियों ने 1766 में कम भत्तों के ख़िलाफ़ असहमति जताई थी, जो 'श्वेत विद्रोह' के रूप में प्रसिद्ध है। बंगाल प्रेसीडेंसी के पहले ब्रिटिश गवर्नर, रॉबर्ट क्लाइव ने इसका दमन किया, जिसके परिणामस्वरूप, इसके दुर्ग को जानबूझकर तबाह कर दिया गया था। 18वीं शताब्दी तक मुंगेर किला केवल मामूली वेतन पाने वाले सैनिकों और अन्य सैन्य अधिकारियों के लिए छावनी, तथा सैन्य भंडारों के लिए उपयुक्त सुरक्षा डिपो बन चुका था। किले के अंदर की दमदमा कोठी को ब्रिटिश कलेक्टर का निवास-स्थान बनाने के लिए ध्वस्त कर दिया गया था।

किले के अंदर

The prominent Lal Darwaza. Image source: Wikimedia Commons.

प्रमुख लाल दरवाज़ा। चित्र स्रोत- विकिमीडिया कॉमन्स

मुंगेर किले में कई धार्मिक और ऐतिहासिक स्थल और संरचनाएँ हैं। लाल दरवाज़ा या लाल द्वार, किले के परिसर के सबसे प्रमुख प्रवेश द्वारों में से एक है। किले का पूर्वी द्वार कभी नालाकार मेहराब पर लाल ईंट से बना एक घंटाघर था। यह घंटाघर 1934 के भूकंप के दौरान गिर गया था और तब से इसे दोबारा नहीं बनाया गया है। किले के अंदर की सबसे पुरानी इमारत एक सूफ़ी मंदिर है, जो इसके दक्षिणी द्वार के पास एक ऊँची ज़मीन पर बना है। यह पवित्र स्थल सदियों से किले के प्राचीर में छिपा हुआ था। कई लोगों ने इस मंदिर का श्रेय एक अज्ञात संत को दिया है, जो फ़ारस से आए मोइन-उद-दीन चिश्ती के एक शागिर्द थे तथा मुंगेर में रहने के लिए निर्देशित किया गए थे। यह राजकुमार दानियाल थे, जिन्होंने मुंगेर के किले की मरम्मत की और शहर के सूफ़ी संकरक्षक माने जाने वाले, पीर शाह नफ़ाह गुल (फ़ारसी में नफ़ाह का अर्थ कस्तूरी की फली है) की कब्र पर एक शव-कक्ष भी जोड़ा।

The Tomb of Pir Nafah Gul. Image source: Wikimedia Commons.

पीर नफ़ाह गुल की क़ब्र। चित्र स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स

क्वार्टज़ाइट चट्टान की नींव पर बनाया गया यह किला, गंगा के अतिक्रमण को प्रभावी ढंग से रोकता है। इसमें कई सुरम्य घाट हैं। किले के उत्तर-पश्चिमी छोर पर एक प्राचीन स्नान-घाट है, जिसे कष्ट-हरिणी घाट कहा जाता है। ‘कष्ट-हरिणी’ का शाब्दिक अर्थ है "दर्द को कम करने वाली नदी"। ऐसा माना जाता है कि भगवान राम और लक्ष्मण ने राक्षसी तड़का से युद्ध करते समय इसी तट पर विश्राम किया था। इसीलिए, कई पर्यटक शारीरिक दर्द को दूर करने के लिए गंगा के इस पवित्र पानी में डुबकी लगाते हैं।

किले के अंदर एक प्रमुख संरचना शाह सुजा महल है, जिसे अब एक जेल में परिवर्तित कर दिया गया है। इसके उत्तर-पूर्व की ओर करण-चौरा है, जो एक प्राकृतिक चट्टानी पर्वत पर बना है। यह किले का सबसे ऊँचा स्थान है। अंग्रेज़ों ने अपने समय में यहाँ एक तोपख़ाना तैयार किया था। दूसरी पहाड़ी एक कृत्रिम आयताकार टीला है जो किले का गढ़ (ऐक्रोपोलिस) था। किले के परिसर में महत्वपूर्ण सार्वजनिक कार्यालय भी हैं, जिनमें दीवानी, राजस्व और आपराधिक अदालतों की इमारतें तीन समानांतर पंक्तियों में शामिल हैं। 1959 में, जिला मजिस्ट्रेट के प्रशासनिक कार्यालयों को समायोजित करने के लिए, यहाँ एक दो-मंज़िली इमारत का निर्माण और किया गया था। अदालतों के पश्चिम में, एक छोटा-सा बेलों से ढाका गिरिजघर देखा जा सकता है, और पूर्व में 1863 ईस्वी में निर्मित, इंग्लिश चर्च ऑफ़ द बैप्टिस्ट मिशन नामक गिरिजघर है, जो 1897 ईस्वी के भूकंप के कारण नष्ट हो गया था। किले के उत्तरी द्वार के पास एक पुराना क़ब्रिस्तान है, जिसमें 18वीं सदी के अंत और 19वीं सदी की शुरुआत की क़ब्रें बनी हैं।

किले के अंदर एक प्रसिद्ध सुरंग है, जिसकी मदद से मीर क़ासिम 1764 ई. में हुई बक्सर की लड़ाई के बाद तथाकथित तौर पर भाग निकले थे। ऐसा कहा जाता है कि युद्ध के बाद राजकुमारी गुल और राजकुमार बहार (मीर क़ासिम के बच्चे), अपने पिता की हार का बदला लेने के लिए नदी के किनारे बाघों का वेश धरा करते थे। दुर्भाग्य से, एक अंधेरी रात को, किसी ब्रिटिश अधिकारी ने गलती से उन्हें गोली मार दी थी। उन्हें पीर शाह नफ़ाह गुल के पवित्र स्थल के पास दफ़नाया गया।

कई वर्षों तक मज़बूती से खड़ा यह किला, अब जर्जर अवस्था में है। आजकल किले के अंदरूनी हिस्सों में कुछ प्रशासनिक कार्यालय और तीर्थ स्थल हैं। मुंगेर के शांत घाट, गोता लगाने वाली गंगेटिक डॉल्फ़िन के नज़ारों के लिए मशहूर हैं। 2014 में केंद्र सरकार द्वारा शुरू किए गए 'प्रोजेक्ट नमामि गंगे' के तहत इन घाटों पर भी ध्यान दिया गया है। यह किला भारत की बहुलवादी संस्कृति की समृद्ध विरासत में निस्संदेह वृद्धि करता है।