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सवाई राम सिंह II

“....आखिरकार मुझे कई अँधेरे रास्तों से निकालकर एक आँगन में लाया गया, जहाँ बाज़ पकड़े हुए कई लोग थे; वहाँ से फिर एक दूसरे आँगन में, और फिर सीढ़ियों से ऊपर, जब मैंने अपने आप को एक आरामदायक कमरे में पाया, जहाँ महाराज अपना खाली समय फ़ोटोग्राफ़ी करते हुए बिताते हैं। दिन का सबसे रौशनी वाला समय प्रार्थना में बिताने के बाद उनके पास रौशनी में करने वाले कामों के लिए बहुत थोड़ा ही समय बच पाता है .....इस फ़ोटोग्राफ़ी संबंधी कमरे की खिड़कियों से एक सुंदर बागीचा दिखाई देता है, जिसके आगे जयपुर को घेरने वाली पहाड़ियाँ हैं, जिनकी खड़ी ढालानों पर मैं आज भी बड़े अक्षरों में ‘वेलकम टू जयपुर’ देख सकता हूँ जो वेल्स के राजकुमार के दौरे पर यहाँ रखे गए थे।

यह वह विवरण है जो प्रिंसप ने जयपुर के महाराज से मिलने पर दिया था।

१८३५ से १८८० तक जयपुर पर राज्य करने वाले, सवाई राम सिंह II का जन्म १८३३ में हुआ था। वे केवल दो वर्ष की आयु के ही थे जब उन्हें जयपुर का महाराज बना दिया गया था। वे जनसाधारण द्वारा भारत के पहले ‘फ़ोटोग्राफ़र प्रिंस’ के नाम से जाने जाते हैं, जिन्हें फ़ोटोग्राफ़ी की कला में रूचि और कौशल दोनों ही था। उनका जन्म उस समय हुआ था जब देश में, न केवल स्वतंत्रता संग्राम सम्बंधित अपितु सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से भी, भारी बदलाव आ रहे थे - भारतीय समाज अपने सामाजिक, राजनितिक और सांस्कृतिक परिवेश में बड़े बदलावों से गुज़र रहा था।

१९८० के दशक के एक संग्रहालय प्रकाशन के अनुसार, उस समय के संग्रहाध्यक्ष, यदुएन्द्र सहाए ने यह संकेत दिया था कि राजकुमार का फ़ोटोग्राफ़ी से पहला वास्ता तब पड़ा जब टी. मरे नामक फ़ोटोग्राफ़र १८६४ में जयपुर आए। मरे को जयपुर में दरबारी फ़ोटोग्राफ़र के रूप में नियुक्त भी किया गया। हालाँकि इस निष्कर्ष के बारे में पूर्ण रूप से सुनिश्चित नहीं किया जा सकता है। जयपुर राजदरबार में कई और आगंतुक आए, जो इस बात के कुछ प्रमाण देते हैं कि कैसे फ़ोटोग्राफ़ी महाराज के जीवन का एक अभिन्न अंग बन गई। जब फ़्रांसीसी फ़ोटोग्राफ़र लुई रूसेले महाराज से १८६६ में जयपुर में मिले, तो उसे याद आया कि कैसे उनकी बात-चीत, अन्य चीज़ों के साथ, ‘फ़ोटोग्राफ़ी की ओर घूम गई’ और उसे यह एहसास हो गया कि महाराज ‘न केवल इस कला के प्रेमी अपितु स्वयं एक कुशल फ़ोटोग्राफ़र भी हैं।‘

उन्होंने छायाचित्रों में विशेषज्ञता प्राप्त की थी, जैसा कि हम उनके द्वारा खींचे गए ज़ेनाना के निवासियों के चित्रों से देख सकते हैं, जो हमें ‘अनदेखे’ की झलक देने के कारण राजदरबार के कई नियमों का उल्लंघन करते हैं। इतिहासकार बताते हैं कि महाराज द्वारा खींचे गए चित्रों में हिन्दू और मुसलमान महिलाएँ, वरिष्ठ उपपत्नियाँ (पर्दायत) एवं कनिष्ठ रखैलें भी शामिल थीं। ऐसा कर के उन्होंने भारतीय नारियों के बारे में अंग्रेज़ो की अनेक रूढ़िबद्ध धारणाओं को भी चुनौती दी। उनके संग्रह में अमीरों और रंडियों और दर्जियों के भी चित्र थे।

महाराज प्रगतिशील माने जाते थे और वे समय के साथ विकसित होते गए। उन्होंने १९६७ में जयपुर में एक बालिका विद्यालय की स्थापना की जो कि उस समय का प्रतिमान कतई नहीं था। उन्होंने महाराजा कॉलेज की स्थापना भी की जहाँ दोनों अंग्रेज़ी और संस्कृत पढ़ाई जाती थी। यह दर्शाता है कि उन्हें सर्वश्रेष्ठ की कामना थी और वे जानते थे कि बदलाव तो निश्चित था। वे बंगाल फ़ोटोग्राफ़िक सोसाइटी के सदस्य थे, जिसकी वजह से वे इस कला में तब से रूचि लेने लगे थे जब उनके पास उनका पहला कैमरा भी नहीं था।

महाराज के फ़ोटोखाने में लगभग '१०५ अल्बमों में ६०५० एकल चित्र और कुछ अव्यवस्थित छायाचित्र और २००८ चित्रों सहित १९४१ ग्लास प्लेट नेगेटिव' का संग्रह था। पुरालेखपालों ने इसकी भी चर्चा की है कि कैसे वह दूसरा स्रोत - ‘उनकी डायरी’ – ने उनकी कार्य प्रणाली की प्रकृति को उजागर करने में एक अहम भूमिका निभाई। वह बिंदुओं से भरी थी क्योंकि वे दिन की महत्वपूर्ण गतिविधियों को उसमें लिखते थे। उन्होंने अपनी यात्राओं के बारे में भी बताया, जिनको उन्होंने बहुत विस्तृत रूप से वृत्तचित्रित किया, जैसे कि बनारस का मान मंदिर, आगरे का ताज, बूंदी का गढ़ महल, लखनऊ की रेज़ीडेन्सी के खंडहर और कई अन्य। इससे यह पता चलता है कि वे अपनी फ़ोटोग्राफ़ी को राजदरबार के बहार भी ले गए थे।

जब कोई ‘फ़ोटोग्राफ़र प्रिन्स’ द्वारा बनाए गए चित्रों को देखता है तो वह देख सकता है कि कैसे राजकुमार बदलते हुए समय से प्रभावित हुए। इसके साथ-साथ उन्होंने कई रूढ़िबद्ध धारणाओं का भी खंडन किया। महिलाओं के रूपचित्र बनाकर वे ‘असार्वजनिक’ को ‘सार्वजनिक’ बनाने में निश्चित रूप से सफल रहे। सवाई राम सिंह ने अपने चित्रों के माध्यम से बातचीत की और ऐसा करने में उन्होंने हमें राजसी जीवन की एक झलक दी – उनके आभूषण, उनके पहनावे और उनके धार्मिक झुकावों की भी। वे निश्चित रूप से अपने राजदरबार का पुरालेख बनाने में सफल रहे जो कि अब जयपुर के सवाई मान सिंह II संग्रहालय ट्रस्ट का अभिन्न अंग है। उन्होंने केवल भारत के फ़ोटोग्राफ़ी के इतिहास ही नहीं अपितु इसके सामाजिक और सांस्कृतिक इतिहास में भी बहुत बड़ा योगदान दिया है।