यह कहानी वीर रानी दुर्गावती की है। वे महोबा के प्रसिद्ध चंदेल वंश की वंशज और गढ़ा-कटंगा के गोंड साम्राज्य की रानी थीं। उन्होंने बड़े साहस और कुशल नेतृत्व से मुगल साम्राज्य की ताकत का सामना किया। उन्होंने अपने समय की कई अन्य महिलाओं की तरह, दुश्मन के हाथों में पड़ने के बजाय मौत को गले लगाना स्वीकार किया। उनका नाम प्रचंड रूप वाली हिंदू देवी दुर्गा के नाम पर रखा गया गया था। दुर्गावती स्वयं दुर्गा का मानव अवतार साबित हुईं।
दुर्गावती का जन्म 5 अक्टूबर 1524 को कालिंजर में हुआ था, जो उत्तर भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के बांदा ज़िले में स्थित, मध्यकालीन भारत के सबसे अभेद्य किलों में से एक था। यह उनके पिता, रथ और महोबा के राजा एवं प्रसिद्ध चंदेलों के वंशज, सालबान के नियंत्रण में था, जिन्होंने खजुराहो के मंदिरों का निर्माण किया था एवं महमूद गज़नी के हमलों को भी रोका था। ऐसा कहा जाता है कि चूँकि उनका जन्म दुर्गाष्टमी के दिन हुआ था, इसलिए उनके माता-पिता ने उनका नाम दुर्गावती रखा। 18 साल की उम्र में, उनका विवाह गढ़ा-कटंगा के गोंड राजा संग्राम शाह के पुत्र दलपत शाह से हुआ, जिससे दो शाही परिवारों के बीच गठबंधन मज़बूत हुआ।
तैमूर के आक्रमण (1398) के बाद, जब इस क्षेत्र में सल्तनत के शासन के नाममात्र बचे अवशेषों को राजा यादवराय द्वारा ध्वस्त कर दिया गया, तब मध्य भारत में गढ़ा-कटंगा (जिसे बाद में गढ़-मंडल के नाम से जाना गया) नामक एक छोटा सा साम्राज्य उभरा। राज्य का नाम 'गढ़ा' नामक एक प्रमुख शहर और जबलपुर से 4 मील पश्चिम में स्थित 'कटंगा' नामक एक गाँव से लिया गया था। संग्राम शाह के शासनकाल के दौरान विकसित हुआ यह राज्य, वर्तमान मध्य प्रदेश के मंडला, जबलपुर, नरसिंहपुर, होशंगाबाद, भोपाल, सागर और दमोह ज़िलों तथा छत्तीसगढ़ के कुछ क्षेत्रों में फैला हुआ है। इसमें रणनीतिक तौर पर घने जंगलों और पहाड़ियों के बीच बनाए गए कुल 52 किले थे।
दलपत शाह की मृत्यु वर्ष 1548 में हुई।, उनके नाबालिग पुत्र बीर नारायण उनके उत्तराधिकारी बने। रानी दुर्गावती गद्दी पर बैठे बीर नारायण खुद सरकार की बागडोर संभाली। आधार कायस्थ और मान ब्राह्मण उनके दो सक्षम मंत्री थे, जिनकी सहायता से, रानी दुर्गावती ने राज्य का प्रशासन किया और उसे इतना समृद्ध कर दिया कि लोग सोने के सिक्के और हाथी देकर कर का भुगतान करने लगे। उन्होंने अपने लोगों की सुविधा के लिए रानीताल, चेरीताल और अधारताल जैसे जलाशयों का निर्माण किया। वे शिक्षा और ज्ञान को प्रोत्साहित करती थीं, और उन्होंने आचार्य बिट्ठलनाथ को गढ़ा में पुष्टिमार्ग पंथ का एक केन्द्र स्थापित करने की अनुमति दी थी।
रानी दुर्गावती ने अपने राज्य की सीमाओं को सुदृढ़ किया। विद्रोहियों को कुचलने के लिए उन्होंने व्यक्तिगत तौर पर अपनी सेना का नेतृत्व किया था। उनका राज्य पूर्व से पश्चिम तक 300 मील और उत्तर से दक्षिण तक 160 मील के क्षेत्र में फैला हुआ था। इसमें नगर, शहर, और मज़बूत किले शामिल थे। यहाँ की आबादी में मुख्य रूप से गोंड जनजाति के लोग शामिल थे, जो गाँवों में रहते थे। कुल 23,000 गाँवों में से, लगभग 12,000 सीधे रानी के अधीन थे जबकि बाकी उनके जागीरदारों के अधीन थे। 20,000 घुड़सवारों, 1,000 युद्ध के हाथियों और पैदल सैनिकों की मज़बूत टुकड़ी से लैस सेना की मदद से इस सब पर नियंत्रण स्थापित किया गया था। एक समकालीन फ़ारसी स्रोत,तारीख़-ए-फ़रिश्ताके अनुसार, दुर्गावती ने मालवा के शासक बाज़ बहादुर को खदेड़ा था , जिन्होंने 1555 और 1560 के बीच उनके राज्य पर हमला किया था।
अपने राज्य के एकीकरण के कारण रानी, मुगल साम्राज्य के नज़दीक आ गईं। मुगल सम्राट अकबर, अपने राज्य के विस्तार की तैयारी में लगे थे। 1562 में अकबर ने बाज़ बहादुर को पराजित किया और मालवा को मुगल साम्राज्य का हिस्सा बनाया। जल्द ही, मुगल सेनापतियों ने रीवा और पन्ना के राज्यों पर भी कब्ज़ा कर लिया। केवल कुछ ही समय में वे रानी दुर्गावती के दरवाज़े पर दस्तक देने वाले थे।
कारा-मानिकपुर के मुगल सूबेदार असफ़ खान ने रानी से मित्रता की और लोगों के बीच व्यापारिक संबंध बहाल किए। इस दौरान, उन्होंने जासूसों के माध्यम से रानी की सेना और खज़ाने की जानकारी एकत्र की। जल्द ही उन्होंने सीमावर्ती गाँवों पर छापे मारने शुरू किए और 1564 में उनके राज्य पर हमला कर दिया। 10,000 घुड़सवारों, पैदल सैनिकों और तोपखाने वाली एक बड़ी शाही सेना से लैस, असफ़ खान गढ़ा-कटंगा में चढ़ाई करके दमोह पहुँचे। रानी दुर्गवाती के कुछ सैनिक देहात में तैनात थे, जबकि कुछ छुट्टी पर थे। उनके मंत्री, आधार ने उन्हें किसी भी लड़ाई में ना पड़ने की सलाह दी। यह रानी को स्वीकार्य नहीं था और उन्होंने यह फ़ैसला लिया कि हार और अपमान के साथ जीने से प्रतिष्ठा के साथ मरना बेहतर है।
रानी ने मुश्किल से 500 सैनिकों की एक टुकड़ी के साथ लड़ना शुरू किया। पहाड़ियों और घने जंगलों को पार करती हुईं, और रास्ते में पुरुषों को इकट्ठा करती हुईं, वे नरही नामक एक गाँव में पहुँची। यह रणनीतिक रूप से एक महत्वपूर्ण स्थान था जो एक तरफ़ से ऊँची पहाड़ियों से घिरा हुआ था और दूसरी तरफ़ दो नदियों, नर्मदा और गौर से। इस स्थान में प्रवेश और निकास दोनों ही बहुत कठिन थे। दुर्गावती ने यहाँ अपनी सेनाओं के साथ मोर्चाबंदी की। असफ़ खान कुछ समय के लिए रानी का ठिकाना पता लगाने में असमर्थ रहे, किंतु आखिरकार जब उन्हें पता चला तो वह नरही पहुँच गए। यह देखकर रानी दुर्गावती ने अपने सेनापतियों की एक बैठक बुलाई और कहा कि उनके लिए अधिक समय तक छिपा रहना संभव नहीं होगा इसलिए उन्हें लड़ना होगा। साथ में यह भी कहा कि यदि कोई उनके निर्णय से असहमत हो तो उस व्यक्ति को जाने दिया जाए। उनके शब्दों में इतनी ताकत थी कि उनके 5000 सैनिकों ने वहीं रुककर उनके आदेशों का पालन करने का फ़ैसला लिया।
अगले दिन मुगल सैनिकों ने घाटी के उन सिरों पर कब्ज़ा कर लिया, जो नरही की ओर जाते थे। रानी के युद्ध हाथियों के सेनापति, अर्जुन दास भाई, दर्रे की रक्षा करते हुए मारे गए। यह सुनकर रानी स्वयं अपने सैनिकों को युद्ध में ले गईं। उस दिन उनकी रणनीति काम कर गई। उन्होंने अपने आदमियों को धीरे-धीरे आगे बढ़ने का आदेश दिया ताकि दुश्मन दर्रे में प्रवेश कर सके। उसके बाद उन्होंने अपने सैनिकों को चारों ओर से उन पर आक्रमण करने का आदेश दिया। उनकी छोटी सेना मुगलों को हराने में सक्षम रही और दिन के खत्म होने तक, दुश्मन के 300 सिपाही मारे गए, जबकि अन्य सिपाहियों को खदेड़ दिया गया। उसी रात उन्होंने युद्ध परिषद की एक बैठक बुलाई और मुगलों पर रात में हमला करने का प्रस्ताव रखा। ऐसा करने से मुगलों को उनकी तोपें, दर्रे के अंदर ले आने से रोका जा सकता था। हालाँकि, उनके सेनापति इसके लिए सहमत नहीं हुए।
रानी की सोच सही साबित हुई, क्योंकि अगले दिन असफ़ खान अपनी बड़ी तोपों को दर्रे के अंदर ले आए। बहादुर रानी ने दुश्मन का सामना करने का फ़ैसला किया। अपने कवच से लैस और अपने पसंदीदा हाथी, सरमन पर सवार होकर, वे और उनका बेटा अपनी सेना का नेतृत्व करके, मुगल सैनिकों को लगभग तीन बार पीछे धकेलने में सक्षम रहे। लड़ाई दोपहर 3 बजे तक चलती रही, जब तक कि बीर नारायण बुरी तरह से घायल नहीं हो गए। उन्हें युद्ध के मैदान से हटाना पड़ा, जबकि रानी तब तक लड़ती रहीं जब तक वे दो तीरों से घायल नहीं हो गईं। एक उनकी दाहिनी कनपटी में और दूसरा उनकी गर्दन में जा लगा। तीरों को बाहर निकालने के बावजूद वे बेहोश हो गईं। होश में आने पर, उन्होंने महसूस किया कि दिन बीत चुका था। उन्होंने अपने हाथी-चालक, आधार बघेला को उन्हें खंजर से मार डालने के लिए कहा। बघेला ने मना किया और उन्हें सुरक्षित स्थान पर ले जाने की पेशकश की। रानी को एहसास हुआ कि वे बहुत दूर नहीं जा पाएँगे और जल्द ही दुश्मन के हाथों पकड़े जाएँगे। फिर उन्होंने अपना ही खंजर निकाला और अपने सीने में घोंप लिया। इस प्रकार, 24 जून 1564 को बहादुर रानी दुर्गावती की मृत्यु हो गई। उन्होंने दुश्मन द्वारा अपमानित होने के बजाय मृत्यु को गले लगाना उचित समझा। जबलपुर से करीब 12 मील दूर एक संकरे पहाड़ी दर्रे में उनके सैनिकों ने उनका अंतिम संस्कार किया।
हालाँकि उनके कई अनुयायियों ने इसके तुरंत बाद ही मुगलों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया, लेकिन असफ़ खान को गढ़ा में अपनी स्थिति मज़बूत करने में 2 महीने और लग गए। इसके बाद उन्होंने चौरागढ़ की राजधानी को घेरा, जिसे बीर नारायण ने अपनी बहादुरी से अंत तक बचाया हुआ था। अंत में, वह अपने सैनिकों को किले से बाहर लेकर गए और लड़ते हुए मारे गए, जबकि महिलाओं ने जौहर किया। असफ़ खान ने राजधानी पर कब्ज़ा किया और खज़ाने को लूटा। असफ़ खान ने लूटे हुए खज़ाने को अपने पास रोककर, अपनी स्वच्छंदता का दावा करने का प्रयास किया, लेकिन अंत में अकबर के सामने उन्हें आत्मसमर्पण करना पड़ा। साम्राज्य को तब तक मुगल राज्यपालों द्वारा संभाला गया जब तक कि अकबर ने उसे बीर नारायण के चाचा और दलपत शाह के छोटे भाई, चंद्र शाह को नहीं सौंप दिया, जिन्होंने मुगल आधिपत्य स्वीकार किया और भोपाल सहित कई क्षेत्रों को उनके अधीन मान लिया।
रानी के साथ हुई मुगल मुठभेड़ को अबुल फ़ज़ल, अकबर के इतिहासकार और अन्य फ़ारसी लेखकों द्वारा प्रलेखित किया गया था। अबुल फ़ज़ल ने दुर्गावती के बारे में यह लिखा था कि वे सुंदरता, अनुग्रह, मर्दाना साहस और बहादुरी का एक मेल थीं। दुर्गावती बंदूक और तीर चलाना जानती थीं और वे शिकार पर भी जाती थीं। उनके बारे में यह कहा गया है कि अगर वे किसी बाघ की एक झलक भी देख लेती थीं, तो वे तब तक पानी नहीं पीती थीं जब तक वे उसे मार न दें। दुर्गावती की कहानी को कई साल बाद ब्रिटिश कर्नल स्लीमैन ने भी लिखा, जिसमें उन्होंने रानी को गढ़ा-कटंगा पर शासन करने वाले सभी संप्रभुओं में सबसे अधिक श्रद्धेय माना।
जबलपुर में बरेला के निकट जबलपुर-मंडला मार्ग पर रानी दुर्गावती का स्मारक नरिया नाला में ठीक उसी स्थान पर बनाया गया है, जहाँ उनकी शहादत हुई थी। यहाँ हर साल 24 जून को एक समारोह आयोजित किया जाता है, जिसे रानी के सम्मान में 'बलिदान दिवस' कहा जाता है। चौरागढ़ किला और मदन महल पर्यटकों को बहुत आकर्षित करते हैं। 1983 में जबलपुर विश्वविद्यालय का नाम बदलकर रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय कर दिया गया था और उनके नाम पर यहाँ के एक संग्रहालय का नाम भी रखा गया था। 1988 में उनके सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया गया था। 2018 में, भारतीय तटरक्षक बल ने विशाखापट्टनम के अपने ज़िला मुख्यालय में 'आईसीजीएस रानी दुर्गावती' नामक तीसरा तटवर्ती गश्ती पोत (आईपीवी) चालू किया। हालाँकि, रानी का सबसे स्थायी स्मारक लोगों की सामूहिक स्मृति है, जिसमें उन्हें बहुत सम्मानित नज़रों से देखा जाता है। उनकी कहानी गीतों और कथाओं का लोकप्रिय विषय बन गई है। इनके माध्यम से वे हर दिन लोगों के दिलों में जीवित रहती हैं।