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अबनिंद्रनाथ टैगोर की चित्रकला

वर्ष १९०५ में बंगाल में स्वदेशी आंदोलन के दौरान बड़े बदलाव हुए। स्वदेशीकरण तेज़ी से जोर पकड़ रहा था और इसका प्रभाव जीवन के सभी क्षेत्रों में दिखाई दे रहा था। असल में, इसी दौरान हथकरघे से कताई की शुरुआत भी हुई। उद्योगों से लेकर साहित्य तक, प्रत्येक पश्चिमी वस्तु का व्यापक बहिष्कार हो रहा था। कला और चित्रकलाओं को भी नहीं बख्शा गया। अबनिंद्रनाथ टैगोर (१८७१-१९५१) ने अपनी चित्रकलाओं में स्वदेशी की इसी भावना को भर दिया। वह ‘इंडियन सोसायटी ऑफ ओरिएंटल आर्ट’ के मुख्य चित्रकार और संस्थापक थे और भारतीय कला में स्वदेशी मूल्यों के प्रथम प्रमुख प्रतिपादक थे। इसने एक नई जागृति पैदा की और भारतीय कला के पुनर्जीवन की घोषणा की।

हालाँकि, एक आश्चर्यजनक पहलू यह था कि, समकालीन समय के बिल्कुल विपरीत, उन्होंने स्वयं को "पूर्वी" और "पश्चिमी" शैलियों के किसी भी अपरिवर्तनीय द्विगुणों तक सीमित नहीं रखा। उनकी चित्रकलाओं ने जापान की ‘वॉश’ शैली और चीनी इंक पेंटिंग, इंग्लिश प्री रैफ़लाइट और आर्ट-नोव्यू प्रचलन, और मुगल और राजपूत लघु चित्रकला के प्रभावों के सम्मिश्रण को दर्शाया। उन्होंने ब्रिटिश शासन के दौरान कला के पश्चिमी प्रतिमानों के प्रभाव को समाप्त करने के लिए मुगल और राजपूत शैलियों का आधुनिकीकरण किया।

इन शैलीगत प्रभावों ने ऐसा आकार लिया जिसे बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट के रूप में जाना जाने लगा, जिसमें एक विशेष "भारतीयता" चिह्नित थी। उनकी चित्रकलाओं में समाविष्ट रूमानी और आध्यात्मिक सौंदर्य उभर कर आया। चित्रकलाओं में यथार्थवादी अनुरूपताओं और कुशल कारीगरी से अधिक मनोदशा का आह्वान, संवेदनाएँ या ‘भाव’ महत्वपूर्ण विशेषताएँ थीं, जो "मुगल आर्ट सीरीज़" (१९०२-०५) में सर्वश्रेष्ठ रूप से व्यक्त हैं।

उनकी कृतियाँ मुख्य रूप से साहित्यिक और ऐतिहासिक प्रतिमा-विद्या पर आधारित थीं। एक उत्कृष्ट उदाहरण उनकी "भारत-माता" (१९०५) की चित्रकला में पाया जाता है, जिसकी कल्पना बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने "बंग माता" के रूप में की थी। यह देवी की महत्ता को एक राष्ट्रवादी प्रतीक के रूप में दर्शाता है, परन्तु यह हिंदू देवकुल के किसी भी ज्ञात देवी-देवताओं से अलग है। यह चित्र पवित्र और आध्यात्मिक परिमण्डल से गुंजयमान है जो राष्ट्र की परिकल्पना और कलात्मक सृजन की अवधारणा के लिए अद्वितीय है। उनकी 'वॉश' चित्रकलाओं में से पहली चित्रकला मातृभूमि की भावना को प्रदर्शित करती है। यह स्वदेशी आंदोलन का प्रतिबिंब थी।

स्वदेशी आंदोलन के बाद और १९२०-४० के दशक के दौरान, उनका कार्य कला के एक निजीकृत क्षेत्र में विकसित हुआ। वह कला में प्रभावी और समकालीन नए आधुनिकतावादों से हट गए, जो अप्रतीकात्मक कल्पनाओं/ अतींद्रिय संवेदी रूपों से चिह्नित थे। १९२० के दशक में उनकी सर्वाधिक भव्य कला प्रदर्शन में मुख्य रूप से चित्र-मुखौटे शामिल थे जो रबींद्रनाथ टैगोर के नृत्य नाटकों से प्रेरित अशरीरी चेहरों की एक श्रृंखला थी। १९१९-१९२० के आसपास, टैगोर ने शौकिया नाटकीय प्रदर्शनों / मंच प्रदर्शनों पर आधारित थिएटर चित्रों की अपनी पहली रचना-पद्यति, "द ओपन एयर-प्ले सीरीज़" प्रस्तुत की। इस चरण के दौरान उनकी कलाकृति किंवदंतियों, दंतकथाओं, ऐतिहासिक और साहित्यिक विषयों से प्रेरित थी।

यद्यपि अपने बाद के वर्षों में अबनिंद्रनाथ कुलीनतंत्रीय जीवनशैली में वापस चले गए, लेकिन वह अपने खाली समय में चित्रकारी करते रहे। हालाँकि, उनके कार्यकाल के राष्ट्रवादी चरण के दौरान बनाई गई उनकी पहली कृतियों ने, औपनिवेशिक समकक्षों के बीच, आधुनिक कला के लिए एक स्वायत्त और अनन्य सामाजिक स्थान के रूप में, अपने लिए पहले से ही जगह बना ली थी।