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प्राचीन भारत में वस्त्र व्यापार

प्राचीन समय में भारतीय उपमहाद्वीप को अत्याधिक महत्वपूर्ण वाणिज्यिक क्षेत्र के रूप में मान्यता प्राप्त थी, और इसका हमें, लगभग साढ़े तीन सहस्राब्दी पूर्व भारतीय व्यापार के साक्ष्य के माध्यम से पता चलता है। व्यापार और शिल्प, अधिशेष कृषि उत्पादन द्वारा उत्प्रेरित विकास होते हैं, और इस प्रकार का उत्पादन भारत में पहली बार सिंधु घाटी सभ्यता (2600-1900 ईसा पूर्व) के शहरी केंद्रों के उदय के साथ देखा गया था।

शुरुआती समय से ही, भारतीय व्यापार सभी रूपों में फलता-फूलता रहा था, चाहे वह आंतरिक (घरेलू) या लंबी दूरी का बाहरी व्यापार हो और चाहे भूमि या पानी के माध्यम से हो। जैसा कि मुहरों, पट्टिकाओं या तावीज़ों पर नावों के चित्रण से प्रमाण मिलते हैं, हड़प्पावासी बहुत अच्छे समुद्री नाविकों के रूप में पहचाने जाते थे।

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मोहनजोदड़ो से प्राप्त टेराकोटा से बने तावीज़ पर नाव का निरूपण। छवि स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स।

गुजरात के लोथल में मिला पोतगाह (डॉकयार्ड) उस समय के दौरान किए जा रहे समुद्री व्यापार का बहुत ही ठोस सबूत है। हड़प्पा सभ्यता के लोगों ने ओमान, बहरीन और पश्चिम एशिया के अन्य स्थानों के साथ संपर्क स्थापित किए थे।

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लोथल में पोतगाह (डॉकयार्ड)। चित्र आभार: हड़प्पा.कॉम (Harappa.com)

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सिंधु घाटी मेसोपोटामिया के साथ समुद्री मार्ग के रास्ते व्यापर करती थी। चित्र आभार: विकिमीडिया कॉमन्स।

इस बात के ठोस प्रमाण हैं कि वैदिक युग (1500-800 ईसा पूर्व), मौर्यकाल (लगभग 324-187 ईसा पूर्व), कुषाण काल (लगभग 30 ईसवी से 375 ईसवी तक) और गुप्त काल (तीसरी शताब्दी से लेकर 543 ईसवी तक) और उसके बाद दक्षिण भारतीय राजवंशों जैसे पल्लव, चालुक्य और चोल के राज्यकालों के दौरान भी समुद्री व्यापार बड़े पैमाने पर जारी रहा था। "हमारे जहाज़ पृथ्वी के सभी हिस्सों में जाएँ" - यह ऋग वैदिक युग के समुद्री नाविकों के आदर्श वाक्य के रूप में उल्लिखित है।

इसी प्रकार, जातक कहानियों सहित तमाम बौद्ध साहित्य भी, समुद्री यात्राओं, पोतभंग दुर्घटनाओं और धर्म-प्रचारकों की विदेश यात्राओं के वृत्तांतों से भरा हुआ है। माल को उनके उत्पादन स्थलों से निर्यात स्थलों, यानी कि समुद्री बंदरगाहों, तक लाने और इसके विपरीत क्रम के लिए, सहायक भूमि मार्ग, हुआ करते थे। व्यापार के दौरान ये सहायक भूमि मार्ग संग्रहण के साथ-साथ वितरण मार्गों के रूप में भी काम किया करते थे।

हड़प्पा काल से ही कपड़ा लगातार ही भारतीय व्यापार की प्रमुख वस्तुओं में से एक रहा है। नाशवान प्रकृति की कई अन्य सामग्रियों की तरह, व्यापार की जाने वाली वस्तुओं के रूप में कपड़ा व्यापार के ठोस साक्ष्य अब नहीं बचे हैं, लेकिन कुछ सबूत उपलब्ध हैं जो इसके व्यापार के बारे में बात करने के लिए पर्याप्त हैं। कपड़ा व्यापार के साक्ष्य कभी-कभी अन्य स्रोतों में निहित होते हैं। उदाहरण के लिए, हड़प्पा से मिली एक मिट्टी की मूर्ति पर बना घूँघर वाला साफ़ा बहुत हद तक एक बेबीलोनियाई देवी के प्रतीक के समान दिखता है, जिससे दोनों क्षेत्रों के बीच व्यापारिक संबंधों के संकेत मिलते हैं। बेबीलोन, मेसोपोटामिया (वर्तमान समय के इराक, ईरान, सीरिया और तुर्की के भागों) का एक प्राचीन शहर था।

ऐसे भी संदर्भ मिलते हैं कि औषधीय पौधों, धूप, सुगंध सामग्रियों, आदि, जैसी अन्य वस्तुओं के साथ, कपड़े भी नियमित रूप से मेलूहा (जोकि सिंधु सभ्यता का सुमेरी नाम था) नाम के पूर्वी देश से मेसोपोटामिया भेजे जाते थे।

बाद के समय में भी इन वस्तुओं का व्यापार जारी रहा। अथर्ववेद इंगित करता है कि एक प्रकार का ऊनी कपड़ा, जिसे दूर्ष कहा जाता था, व्यापार की जाने वाली वस्तु थी। लाल सागर और बंगाल की खाड़ी के बीच व्यापार करने वाले समुद्री नाविकों के लिए एक यूनानी लेखक द्वारा पहली शताब्दी ईसवी में लिखी गई नियम-पुस्तिका, द पेरिप्लस ऑफ़ द एरिथ्रियन सी, में भी भारत के कपड़े के व्यापार का संदर्भ है। यह पुस्तिका गंग या वंग देश से निर्यात की जाने वाली वस्तु के रूप में, बहुत महीन गुणवत्ता वाले मलमल (महीन से लेकर मोटी चादरों तक के सादी बुनावट वाले सूती कपड़े) के बारे में बात करती है। यह स्थान संभवत: पश्चिम बंगाल के पूर्बी मेदिनीपुर जिले का तामलुक (प्राचीन नाम ताम्रलिप्ति) बंदरगाह और 24 परगना जिले का चंद्रकेतुगढ़ था।

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द पेरिप्लस ऑफ़ दि एरिथ्रियन सी में वर्णित प्राचीन व्यापार मार्ग। चित्र आभार: एंशीएंट हिस्ट्री इंसाईक्लोपीडीया

ऐसा माना जाता है कि इस क्षेत्र के, प्रायद्वीपीय और पश्चिमी भारत, श्रीलंका और दक्षिण-पूर्व एशिया के कुछ हिस्सों के साथ भी समुद्री व्यापार संबंध मौजूद थे। चीन और रोम साम्राज्य के साथ इस क्षेत्र का अप्रत्यक्ष व्यापार रहा हो सकता है। पहली शताब्दी ईसवी के एक चीनी कार्य में उल्लेख किया गया है कि बर्मा से नाव से नौकायन करने पर कोई भी व्यक्ति लगभग दो महीनों में कांची (भारत में कांचीपुरम) तक पहुँच जाएगा और अगले आठ महीनों तक नौकायन करके दक्षिण पूर्व एशिया में स्थित मलय प्रायद्वीप तक पहुँच जाएगा।

इसके अलावा, इस कार्य से हमें यह भी पता चलता है कि कांची में बड़े और चमकते हुए मोतियों तथा दुर्लभ पत्थरों का उत्पादन होता था जिनके बदले में सोने और रेशम के उत्पादों को खरीदा जाता था। इस प्रकार चीनी रेशम का कांचीपुरम में आयात किया जाता था और फिर वहाँ से इसको मलय निर्यात कर दिया जाता था। कांचीपुरम स्वदेशी रेशम उत्पादन का केंद्र भी था और यह समुचित रूप से अनुमान लगाया जा सकता है कि स्थानीय रेशम को मलय को निर्यात की जाने वाली वस्तुओं में शामिल किया गया होगा। यह इंगित करता है कि रेशमी वस्त्र भारतीय व्यापार का महत्वपूर्ण हिस्सा थे।

विशेष बात यह है कि, दक्षिण भारत अभी भी अपने उत्तम गुणवत्ता वाले रेशमी कपड़ों के लिए प्रसिद्ध है, जिनमें से एक कांचीपुरम रेशम के नाम से जाना जाता है। लगभग 10वीं शताब्दी ईस्वी तक, कांचीपुरम के बाज़ारों और व्यापारिक निरूपणों में विविधता आने के कारण, बुनकर-व्यापारियों के लिए सालिया नगरम के नाम से मशहूर विशेष व्यापारिक समूहों का उदय हुआ। सालिया (पट्टसालिन) और काइक्कोला दो बुनकर समुदाय थे जो अंतर्देशीय और विदेशी बाज़ारों के लिए विभिन्न प्रकार के रेशमी और सूती कपड़ों का उत्पादन करते थे।

10वीं शताब्दी ईस्वी में कांचीपुरम में शाही कपड़ों के निर्माण के लिए चुने हुए बुनकरों के रूप में सालिया समुदाय ने काफ़ी नाम और प्रतिष्ठा अर्जित की। इन दोनों समुदायों में से बड़े, काइक्कोला समुदाय के लोग, ज़ाहिर तौर पर ऐसे बुनकर थे, जो आर्थिक रूप से सक्षम नहीं थे, और वस्त्रों के विपणन के लिए व्यापारियों पर निर्भर करते थे।

पहली शताब्दी ईस्वी में दक्षिण-पश्चिमी मानसूनी हवाओं की निश्चित दिशा और समय के वार्षिक चक्र का ज्ञान होने के बाद, रोम जगत के साथ भारत का व्यापार तेज़ हो गया और इसके फलस्वरूप गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक और केरल के पश्चिमी तटों के साथ-साथ तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, ओडिशा और पश्चिम बंगाल के पूर्वी तटों पर कई समुद्री बंदरगाह विकसित हुए।

इन बंदरगाहों ने अपने सहायक मार्गों के साथ, ईस्वी युग की शुरुआत में, व्यापारिक मार्गों का एक प्रसार तंत्र (नेटवर्क) बनाया और अंतर्देशीय या विदेशी व्यापार में विविध सामानों की तेज़ आवाजाही को इतना सुविधाजनक बनाया, कि इतना अधिक मात्रा में लेन-देन हुआ जितना पहले कभी देखा ही नहीं गया था। कपड़ा इस व्यापार का एक महत्वपूर्ण घटक था। बारबैरिकम बंदरगाह (पाकिस्तान में आधुनिक समय के कराची नामक शहर के पास का समुद्री बंदरगाह) और भरूकच्छ बंदरगाह (भरूच, गुजरात) मलमल और अन्य महीन या मोटे कपड़ों के व्यापार के केंद्र बन गए। विशेष रूप से कश्मीरी क्षेत्र की बकरियों और भेड़ों, दोनों से प्राप्त होने वाले ऊन तथा ऊनी शॉलें भी उस समय के व्यापार की महत्वपूर्ण वस्तुएँ थीं, और इनका व्यापार आज भी जारी है।
मौर्य काल में, हमें व्यापार प्रणाली का, भूमि और समुद्री मार्गों तथा दोनों के सापेक्ष महत्व की तुलना सहित, बहुत विस्तार देखने को मिलता है। कौटिल्य का अर्थशास्त्र इस तथ्य को संदर्भित करता है कि राज्य ने व्यापारिक गतिविधियों के बारे में कई नियम और कानून बनाए थे। इनमें जल-वहन व्यापार को नियंत्रित करने के लिए नौपरिवहन अधीक्षक (नौकाध्यक्ष), विदेशी व्यापार और यात्रा दस्तावेज़ों के निरीक्षण के लिए यात्रा दस्तावेज़ अधीक्षक (मुद्राध्यक्ष) तथा वस्तुओं पर शुल्कों के संग्रहण सहित व्यापार के समग्र विनियमन के लिए व्यापार एवं सीमा-शुल्क अधीक्षक (पाण्याध्यक्ष) की नियुक्ति भी शामिल थी।

उत्तरपथ (उत्तरी भूमि मार्ग) और दक्षिणपथ (दक्षिणी भूमि मार्ग) एकसाथ मिलकर "भारत के वृहद् मार्ग" का निर्माण करते थे, जो रेशम व्यापार के लिए, विशेष रूप से कुषाण काल (30 ईस्वी - 375 ईस्वी) के दौरान, अपने सहायक मार्गों सहित, मुख्य व्यापार मार्ग बन गए, तथा इन मार्गों ने चीन, दक्षिण पूर्व एशिया, मध्य एशिया और यूरोपीय देशों को आपस में जोड़ दिया था।

प्राचीन संगम साहित्य (तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से लेकर तीसरी शताब्दी ईस्वी तक) के अनुसार, चीन से रेशम, रोम साम्राज्य के लिए भेजी जाने वाली वस्तुओं के रूप में, तमिलकम (तमिल क्षेत्र) के आंतरिक विनिमय में प्रवेश करता था। पेरिप्लस चीन को उस क्षेत्र के रूप में भी इंगित करता है जहाँ से रेशम गंगा घाटी तक पहुँचता था, जिसके बाद वहाँ से तमिलकम में स्थित पूर्वी तट के तमिल बंदरगाहों तक पहुँचता था और फिर इसे पश्चिम की ओर रवाना कर दिया जाता था। रेशम ने, शासकों द्वारा पनार (भाटों) को दिए जाने वाले उपहारों के माध्यम से और शासकों की विलास वस्तुओं और शहरी अभिजात्य वर्ग के शाही परिधानों के रूप में भी, विनिमय की आंतरिक परिधि में प्रवेश किया। तमिल स्रोत रेशम को पट्टु के रूप में संदर्भित करते हैं।

सन का कपड़ा (लिनन), डाकुला रेशमी धागों (असम का मूगा रेशम), रेशमी कपड़ों, कपास, और बकरियों से प्राप्त होने वाले पशु उत्पादों पर लगाया जाने वाला शुल्क, उन वस्तुओं के मूल्यों के 1/25वें भाग से 1/10वें भाग के बीच हुआ करता था। अर्थशास्त्र से यह जानकारी भी मिलती है कि कई बुने हुए और कढ़ाई किए हुए शॉल कश्मीर एवं पंजाब से आते थे। नेपाल ऊनी माल की आपूर्ति करता था। बंगाल और सुवर्णकुड़िया (वर्तमान असम में) डाकुला रेशम के लिए और काशी सन के कपड़े (लिनन) के लिए प्रसिद्ध थे। वहीं मगध, पौंड्र और सुवर्णभूमि ने एक प्रकार के जंगली रेशमी वस्त्र की आपूर्ति की। सूती कपड़े के मुख्य केंद्र मथुरा, काशी, अपरांत (कोंकण), कलिंग (ओडिशा), बंगाल, वम्स (कौशाम्बी) और माहिष्मती (मध्य प्रदेश के खंडवा के पास महेसर) हुआ करते थे।

मौर्य काल में मार्गों को, निर्दिष्ट गतिविधियों के साथ, विभिन्न श्रेणियों में वर्गीकृत भी किया जाता था। कौटिल्य के अनुसार, हैमावतमार्ग (हिंदुकुश के रास्ते बल्ख से होते हुए भारत तक का मार्ग) केवल घोड़ों, ऊनी कपड़ों, खाल एवं फ़र के व्यापार के लिए उपयोग किया जाता था तथा इस मार्ग पर अन्य वस्तुएँ बहिष्कृत थीं। दक्षिणपथ या दक्कन मार्ग से अन्य वस्तुओं जैसे हीरे, कीमती पत्थर, मोती, सोना आदि का व्यापार किया जाता था।

गुप्त काल (तीसरी शताब्दी ईस्वी से 543 ईस्वी तक) में व्यावसायिक गतिविधियों में वृद्धि हुई, जिसके परिणामस्वरूप नगर श्रेष्ठी (मुख्य बैंकर) की अध्यक्षता में एक बेहतर बैंकिंग प्रणाली बनी। करों को अपेक्षाकृत उच्च दरों पर संग्रहित किया जाता था। मुद्रण व्यापारियों और बुनकरों को कदाचित उनके माल की कीमत की आधी राशि कर के रूप में चुकाने के लिए मजबूर किया जाता था। गुप्त काल के ग्रंथ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में रेशम बुनकरों (पटैला), नैपकिन विक्रेता (गांछी), कैलीको-मुद्रक (छीम्पा) और दर्जी (सिवागा) सहित, अठारह पारंपरिक शिल्पी संघ समाजों का उल्लेख है।

अंतिम विश्लेषण में, यह यथोचित रूप से कहा जा सकता है कि संपूर्ण प्राचीन काल में सूती, ऊनी और रेशमी कपड़े लगातार ही लोकप्रिय व्यापारिक वस्तु बने रहे। यह घरेलू (देशीय) और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार, दोनों, के लिए सामान रूप से सत्य था। दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व से 14वीं शताब्दी ईस्वी तक के लंबे समय में फैली हुई एक ऐतिहासिक व्यापार प्रक्रिया, अंतर्राष्ट्रीय रेशम मार्ग (सिल्क रूट), का एक महत्वपूर्ण और अभिन्न अंग होने के नाते, भारत, गर्व का स्थान प्राप्त करने का सुयोग्य दावेदार है।