जॉर्ज घेवरघीस जोसेफ़
एक बैरिस्टर, उत्साही राष्ट्रवादी, अग्रगामी पत्रकार, अग्रणी श्रमिक संघवादी और महत्त्वपूर्ण सार्वजनिक मामलों के प्रबल समर्थक, जॉर्ज जोसेफ़ ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अपना एक अमिट स्थान बनाया है। वह केरल से थे और न केवल कई क्षेत्रों में अग्रणी थे, बल्कि भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान एनी बेसेंट के होमरूल आंदोलन और गांधी जी के असहयोग आंदोलन के पक्के समर्थक भी थे।
उनका जन्म 1887 में चेंगन्नूर (केरल) में हुआ था, जो उस समय त्रावणकोर साम्राज्य का हिस्सा था। उन्होंने एडिनबर्ग विश्वविद्यालय से कानून की पढ़ाई पूरी की और लंदन में रहने के दौरान वह मैडम कामा, एस के वर्मा, एस आर राणा और वीर सावरकर जैसे उल्लेखनीय स्वतंत्रता सेनानियों से परिचित हुए। अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद वह भारत लौट आए। हालाँकि, उन्होंने शुरुआत में चेन्नई में वकालत की, लेकिन बाद में उसे मदुरै में जारी रखा। जॉर्ज जोसेफ़ मदुरै में एक प्रसिद्ध आपराधिक वकील बन गए। जब से उन्होंने वहाँ वकालत करनी शुरू की, तब से ही उन्होंने मदुरै की जनजातियों, जैसे पिरामलाई कल्लर और मारवार की सहायता करनी शुरू कर दी थी। 1920 में, पेरुंगमनल्लूर गोलीबारी (जिसे दक्षिण का जलियाँवाला बाग भी कहा जाता है) के बाद, अंग्रेज़ों ने इन समूहों को अपराधियों के रूप में वर्गीकृत करते हुए, आपराधिक जनजाति अधिनियम लागू कर दिया था। जॉर्ज ने समाचार पत्रों में अपनी राय देकर इस अधिनियम का पुरज़ोर विरोध किया और अदालती कार्यवाहियों में इन समुदायों का प्रतिनिधित्व भी किया। इन बस्तियों के निवासियों ने उनके प्रति अपनी कृतज्ञता ज़ाहिर करने के प्रतीक के रूप में उन्हें 'रोसापू दुरई' (नेताओं के बीच एक गुलाब) के नाम से सम्मानित किया।
मदुरै में, भारत के पहले श्रमिक संघ के गठन को बनाने में भी उन्होंने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। 1918 में, जे एन रामनाथन और जॉर्ज जोसेफ़ ने मदुरै शहर के पहले श्रमिक संघ की स्थापना की थी। जॉर्ज जोसेफ़ देश में चल रहे हालातों को लेकर काफ़ी चिंतित थे। उन्होंने नागरिक अधिकारों और मानवाधिकारों के लिए ज़ोरदार लड़ाई लड़ी, दलितों के मामलों को उठाया और सांप्रदायिकता, धर्म, जाति और लिंग के आधार पर हो रहे अन्याय के खिलाफ़ संघर्ष किया। ऐसा कहा जाता है कि संवैधानिक कानून का उनका ज्ञान अद्वितीय था। ऐसा भी कहा जाता है कि उन्होंने पहले मिल मज़दूर संघ का गठन किया था। उनका जन आग्रह ऐसा था कि वह लोगों की भावनाओं को आसानी से प्रभावित कर सकते थे और वह आसानी से 20,000 लोगों को एक ही बार में सत्याग्रह प्रतिज्ञा पर हस्ताक्षर करने के लिए राज़ी कर सकते थे।
स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने के लिए गांधी जी के आह्वान ने उन्हें अपने समृद्ध वकालत के पेशे को छोड़ने के लिए प्रेरित किया। ऐसा कहा जाता है कि जॉर्ज जोसेफ़ भारत के दक्षिणी राज्यों से स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने वाले पहले ईसाई थे और वे उन अग्रदूतों में से एक थे, जिन्होंने उत्तर-दक्षिण के बीच के अंतर को काम करने की कोशिश की थी। मोतीलाल नेहरू ने उन्हें ‘द इंडिपेंडेंट’ का संपादक बनाया। जब वे वहाँ कार्यरत थे, तो उन्होंने अपनी बुद्धि, वाक्पटुता, उत्कृष्ट लेखन और अच्छे राजनीतिक निर्णय लेने के सामर्थ्य के साथ एक संपादक के तौर पर अपनी योग्यता साबित की। उन्होंने राष्ट्रीय समाचार पत्रों के लिए उच्च मानक स्थापित किए और इसका अनुकरण दूसरों के द्वारा किया गया। 1923 में, उन्होंने गांधी जी के साप्ताहिक प्रकाशन, ‘यंग इंडिया’ का संपादन भी संभाला।
1924-25 में जॉर्ज जोसेफ़ दलितों के लिए वायकोम संघर्ष में शामिल हो गए। यह मंदिरों में प्रवेश पाने के लिए वायकोम (केरल) में शुरू किया गया एक आंदोलन था। यह आंदोलन किसी जाति या पंथ की परवाह किए बिना, हर हिंदू के लिए सार्वजनिक सड़कों का उपयोग करने के अधिकार के लिए भी था। हालाँकि, जॉर्ज जोसेफ़ एक विशेष कार्य के लिए समर्पित व्यक्ति थे। वह महिलाओं के अधिकारों के सच्चे समर्थक थे, मिश्रित विवाह के बारे में मुख़र थे और सामाजिक रूप से बंधनमुक्ति के अधिकार पर उदार विचार रखते थे। अपने अंतिम दिनों के दौरान, उन्होंने विवाह, तलाक और विरासत के मामलों में सभी धार्मिक समूहों के लिए समान व्यवहार और समान कानूनी स्थिति को प्रोत्साहित किया। 05 मार्च 1938 को उनका निधन हो गया और उन्हें मदुरै के कीराथुरई में दफ़नाया गया।