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अजेय चित्रदुर्ग

चित्रदुर्ग किला वर्तमान कर्नाटक राज्य के चित्रदुर्ग ज़िले में स्थित है जहाँ से चित्रदुर्ग ज़िले की घाटी दिखाई देती है। चित्रदुर्ग किले को “कल्लिना कोट” या “चट्टानी किला” भी कहते हैं। यह किला चिनमुलाद्री पर्वत शृंखला की सात पहाड़ियों पर स्थित है जो भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे पुराने ग्रेनाइट के खंड हैं। चित्रदुर्ग किला वेदावती नदी के कारण उत्पन्न हुई घाटी के मध्य में स्थित है और यह देश का सबसे मज़बूत पहाड़ी किला है।

चित्रदुर्ग किले का दृश्य। चित्र स्रोत : विकिमीडिया कॉमन्स

उत्पत्ति

चित्रदुर्ग शब्द का शब्दशः अर्थ है “चित्रोपम किला”। इसे 11वीं और 13वीं सदी के बीच चरणों में बनवाया गया था। किले का आरंभिक निर्माण-कार्य चालुक्यों और होयसलों द्वारा करवाया गया था। बाद का निर्माण-कार्य विजयनगर साम्राज्य के चित्रदुर्ग के नायकों द्वारा करवाया गया जिन्होंने 15वीं और 18वीं सदी के बीच किले का विस्तार किया। यह किला 1,500 एकड़ के क्षेत्र को व्याप्त किए हुए है।

ट्वाइस-टोल्ड टेल्ज़ में नरभक्षी दानव हिडिंबासुर का वर्णन है जो किले के निर्माण से पहले उस पहाड़ी पर रहता था। जनश्रुतियाँ बयान करती हैं कि कैसे उसने अपने आस-पास के सभी को आतंकित कर रखा था। ऐसा मानना है कि अंततः भीम, जो महाभारत महाकाव्य में पांडवों में से एक थे, उन्होंने उससे लड़कर उसे परास्त करते हुए क्षेत्र में शांति पुनर्स्थापित की थी। भीम के बारे में यह भी कहा जाता है कि उन्होंने हिडिंबासुर की बहन, हिडिंबी से विवाह किया था जिससे उन्हें घटोत्कच नाम का पुत्र प्राप्त हुआ।

राजनीतिक विकास

चित्रदुर्ग किले से कई राजवंशों ने शासन किया है जिसके कारण यह शानदार किला उनके उत्थान और पतन का साक्षी है। किले में पाए गए अशोक के शिलालेखों की नक्काशियाँ यह इंगित करती हैं कि संभवतः चित्रदुर्ग क्षेत्र किसी समय मौर्य राजवंश का भाग रहा है। सातवाहनों ने मौर्यों के इस किले पर कब्ज़ा किया। सातवाहन के शासनकाल के अंत में चित्रदुर्ग क्षेत्र कदंबों के अधिकार में चला गया। इस कालावधि के अभिलेख भी किले में पाए गए हैं। इसके बाद राष्ट्रकूट, चालुक्य और होयसल जैसे अन्य राजवंशों ने चित्रदुर्ग पर शासन किया। 16वीं सदी के आस-पास विजयनगर के राजाओं ने होयसलों से क्षेत्र का अधिकार छीनते हुए किले पर कब्ज़ा कर लिया। हालाँकि चित्रदुर्ग के किले और क्षेत्र को स्थानीय सरदार नायकों और पालयगरों के शासनकाल में विजयनगर साम्राज्य के सामंती राज्य के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। 1565 सदी में विजयनगर साम्राज्य का पतन हुआ। इसके बाद नायकों ने अपनी स्वतंत्रता घोषित की और 200 से अधिक वर्ष, यानी 1779 सदी तक शासन किया। चित्रदुर्ग किला संपूर्ण मध्यकालीन युग में क्षेत्र का दुर्जेय सुरक्षा बुर्ज बना रहा।

मदकरी नायक वी नायकों के अंतिम शासक थे जिनके शासनकाल में चित्रदुर्ग शहर और किले को मैसूर राज्य के हैदर अली की सेना ने घेर लिया। 1760 और 1770 के दशक में तीन बार जंग होने के बाद किला अंततः 1779 सदी में अल्पावधि के लिए हैदर अली के हाथ में चला गया। मदकरी नायक वी और उनके परिवार को श्रीरंगपट्टण में कैद रखा गया था जहाँ उनकी मृत्यु हुई। हैदर अली के बाद यह किला उनके बेटे, टीपू सुल्तान के हाथ में चला गया। अंग्रेज़ी सेना ने बीस साल बाद 1799 सदी में हुए चौथे आंग्ल-मौसूर युद्ध में टीपू सुल्तान को परास्त करते हुए उसे मार डाला। अंग्रेज़ जिसे चितलदुर्ग कहते थे, उसकी मैसूर की उत्तरी सीमा की रक्षा के लिए संभावित उपयोगिता देखते हुए 1799-1809 सदी के बीच अंग्रेज़ी सेना द्वारा उसकी रक्षा के लिए किले में सिपाहियों को तैनात किया गया। इस किले को बाद में मैसूर सरकार को सौंप दिया गया। यह अति विशाल किला दक्षिण भारत के कुछ रक्तरंजित युद्धों का साक्षी है।

चित्रदुर्ग का अदम्य ओबव्वा

इस क्षेत्र के लोगों की स्मृति में आज भी प्रसिद्ध ओंके ओबव्वा की कहानी सँजोई हुई है जिन्होंने हैदर अली की सेना से दो-दो हाथ किए थे। ओबव्वा के पति किले के रक्षक थे। एक दिन जब वे उनके लिए पानी लेकर जा रही थीं, तब उन्होंने हैदर अली के आदमियों को एक गुप्त मार्ग से किले में घुसते हुए देखा। उन्होंने बहादुरी से ओंके या मूसल का उपयोग करते हुए एक-एक सैनिक को मार गिराया और उनके शरीर को नज़रों से दूर हटाया। हालाँकि वे किले के कब्ज़े को रोक नहीं पाईं, फिर भी उन्हें आज तक कन्नड़ के गौरव के रूप में सम्मान प्राप्त है। हैदर अली के आदमियों ने जिस छेद से किले में घुसने का प्रयास किया था, उसे ओंके ओबव्वाना किंडी कहते हैं। चित्रदुर्ग में ज़िला आयुक्त के कार्यालय के निकट ओंके ओबव्वा स्टेडियम और एक अनोखी मूर्ति स्थापित कर उनके साहस को स्मारक का रूप दिया गया है।

ओंके ओबव्वाना किंडी। चित्र स्रोत : विकिमीडिया कॉमन्स

वास्तुकला

यह किला बड़ी शिलाओं पर स्थित है और किले से ऊँची शिलाओं का दृश्य दिखाई देता है। इस संरचना का निर्माण सात संकेंद्रित सशक्त किलाबंदियों के साथ हुआ है जिनमें से प्रत्येक किलाबंदी में सँकरे मार्ग और प्रवेशद्वार हैं। इसलिए इसे येलू सुट्टिना भी कहते हैं, जिसका अर्थ है “सात घेरों का किला”।

चित्रदुर्ग किले की दीवारों से घिरी हुईं संकेंद्रित परतों में से एक परत। चित्र स्रोत : विकिमीडिया कॉमन्स

इन अनोखी वास्तुशिल्पीय विशेषताओं के कारण शत्रु के हाथी बार-बार ज़ोर से प्रहार करते हुए भी दीवार को तोड़कर अंदर घुस नहीं पाए। किसी भी आक्रमण के दौरान शत्रु की गतिविधियों को और धीमा करने में मोड़दार मार्ग भी सहायक रहे। सबसे बाहरी दीवारों में चार प्रवेशद्वार (कन्नड़ में बगिलू कहते हैं) हैं, जिनके नाम रंगाय्यन बगिलू, सिद्धाय्यन बगिलू, उच्छंगी बगिलू और लालकोटे बगिलू हैं। किले की चहारदीवारी में कँगूरे और दरारें हैं जिसका उपयोग करते हुए धनुर्धर नीचे की रणभूमि में उन पर चढ़ाई कर रही सेना पर आक्रमण करते थे। प्राचीरों का निर्माण ग्रेनाइट के बड़े-बड़े खंडों से किया गया था। यह बात जानना मज़ेदार है कि सशक्त किलाबंदियों के कुछ भागों में ग्रेनाइट के खंडों को जोड़े रखने के लिए किसी भी लसलसी वस्तु का उपयोग नहीं किया गया था। इससे किले के निर्मार्ताओं की निपुणता का पता चलता है जिन्होंने सटीकता से पत्थरों की काट-छाँट करते हुए उन्हें किसी भी लसलसी वस्तु के बिना एक साथ बिठाया और जोड़े रखा। ऐसा मानना है कि यह वास्तुशिल्पीय अजूबा किसी समय गुप्त मार्गों, गुप्त सुरंगों और लगभग 2000 पर्यवेक्षण बुर्जों से भरा पड़ा था। चट्टानी द्वार का प्रवेशद्वार देवताओं की नक्काशी से और चट्टानी दीवार बड़े साँप की नक्काशी से सुशोभित है। किले की दीवारों के भीतर ऐसी संरचनाएँ हैं जो दीवारों के भीतर की समूची आबादी के जीवन का आधार थीं। हमें किले की परिधि में कोट, मस्जिद और अनाज के भंडारण के लिए गोदाम दिखाई देता है जिसका उपयोग मुख्य रूप से युद्ध के समय किया जाता था।

किले को मोटे तौर पर दो भागों में विभाजित किया गया है, ऊपरी किला औऱ निचला किला। ऊपरी किले में 18 मंदिर हैं जबकि नायक पालेगर, उच्छंगीअम्मा या उत्सवांबा के सुरक्षा देवता को समर्पित एक विशाल मंदिर निचले किले में स्थित है। हिडिंबेश्वर मंदिर, संपिगे सिद्धेश्वर मंदिर, एकनाथम्मा मंदिर, फाल्गुनेश्वर मंदिर, गोपाल कृष्ण मंदिर ऊपरी किले के कुछ लोकप्रिय मंदिर हैं। हिडिंबेश्वर मंदिर में एक दाँत के आकार का पत्थर है जिसे हिडिंबा के दाँत के रूप में देखा जाता है। इस स्थान पर लोहे की प्लेट का एक बड़ा सिलेंडर भी है जिसे भीम की भेरी या ढोल के रूप में देखा जाता है। मंदिर के प्रवेशद्वार पर एक आलीशान एकाश्मिक खंभा और दो झूले के चौखटे स्थित हैं।

हिडिंबेश्वर मंदिर। चित्र स्रोत : विकिमीडिया कॉमन्स

ऐसा माना जाता है कि इस किले में कभी भी पानी की कमी की समस्या नहीं आई। युद्ध के स्थितियों में इसी विशेषता ने किले को कायम रखा। किले के अंदर मौजूद एक प्रभावशाली वर्षा जल-संचयन प्रणाली इसमें सहायता करती है। विभिन्न स्तरों पर परस्पर-संबद्ध टंकियों का निर्माण किया गया था जो वर्षा जल का इस तरह भंडारण करती थीं जिससे एक टंकी के अतिरिक्त पानी से नीचे का तालाब भर जाए। चट्टानी और सूखा प्रदेश होने के बावजूद ऐसी व्यवस्था के कारण पूरे वर्ष पानी मिलता था और पानी की आपूर्ति सुनिश्चित होती थी।

किले में से एक परस्पर-संबद्ध टंकी। चित्र स्रोत : विकिमीडिया कॉमन्स

किला परिसर के भीतर “मड्डू बिसुवा कल्लू” नाम की एक आकर्षक संरचना है, जिसका अर्थ “बारूद का सिलबट्टा” है। चौगुनी मिलों में चार बड़े सिलबट्टे थे जिनका उपयोग बारूद पीसने के लिए किया जाता था। हाथी या बैल इन्हें यहाँ के केंद्रीय वृत्ताकार स्थान पर घुमाते थे।

मड्डू बिसुवा कल्लू। चित्र स्रोत : फ़्लिकर

इस आलीशान किले का रखरखाव अब भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा किया जाता है। भले ही वर्तमान में किले में विकृतियों के निशान दिखाई देते हैं, लेकिन इसका विशाल आकार, इसकी पेचीदगी, इसका विस्तृत डिज़ाइन और इसकी रक्षा में प्राणों की आहुति देने वाले लोगों का शौर्य, इसके गौरवशाली इतिहास के बारे में बहुत कुछ कह जाते हैं।