बद्री दत्त पाण्डे
बद्री दत्त पाण्डे का जन्म 15 फरवरी 1882 को वर्तमान उत्तराखंड के हरिद्वार ज़िले में हुआ था। जब वे केवल सात साल के थे, तब उनके माता-पिता का स्वर्गवास हो गया। इसके पश्चात्, वे अपनी पढाई पूरी होने तक अल्मोड़ा में रहे। 1903 में, उन्होंने नैनीताल में एक शिक्षक के रूप में कार्य करना शुरू किया। इसके बाद उन्हें देहरादून में एक सरकारी नौकरी करने का मौका भी मिला, परंतु उन्होंने उसे छोड़कर पत्रकारिता करनी शुरू की। 1903 से 1910 के बीच उन्होंने ‘लीडर’ नामक एक अखबार में काम किया। 1913 में उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में अपना योगदान देने हेतु ‘अल्मोड़ा अखबार’ की स्थापना की। परंतु, इसमें ब्रिटिश-विरोधी खबरें छपने के कारण अधिकारियों द्वारा जबरन बंद कर दिया गया। 15 अक्टूबर 1918 (जिस दिन संयोगवश विजय दशमी भी थी) को उन्होंने ‘शक्ति’ नामक एक क्रांतिकारी अखबार की शुरुआत की। लगभग 1919 तक कुमाऊँ अपेक्षाकृत शांतिपूर्ण था। इसके उपरांत वहाँ के लोगों ने अंग्रेज़ों की निंदनीय नीतियों और प्रथाओं के ख़िलाफ़ विरोध करना शुरू कर दिया था।
1921 में, बागेश्वर कस्बे में रहने वाली कुमाऊँ की आम जनता ने एक अहिंसात्मक आंदोलन शुरू किया जिसे ‘कुली बेगार’ के नाम से जाना गया। कुली बेगार एक ऐसा कानून था जिसमें कुमाऊँ की पहाड़ियों में रहने वाले स्थानीय लोगों के लिए यह अनिवार्य कर दिया गया था कि वे यात्रा करने आए अंग्रेज़ी अधिकारियों, सैनिकों, सर्वेक्षकों आदि का सामान मुफ़्त में ढोएँगें। यह शोषक प्रथा लोगों को बिना किसी भुगतान के बेगार करने पर मजबूर करती थी। ग्राम प्रधान से यह अपेक्षित था कि वह किसी विशेष अवधी के लिए कई कुली प्रदान करेगा। एक खाता बनाया जाता था जिसमें ग्रामीणों के नाम दर्ज किए जाते थे। हर किसी के लिए इस तुच्छ कार्य को करना अनिवार्य था। अंग्रेज़ी अधिकारीयों को खुश रखने हेतु और अपने हितों की रक्षा के लिए ग्राम प्रधान और पटवारी इस प्रथा को बढ़ावा दिया करते थे। कभी-कभी ग्रामीणों को कुछ और भी निम्न कार्य करने के लिए मजबूर किया जाता था, जैसे कि अंग्रेज़ों के लिए कचरा उठाना या उनके कपड़े धोना। अंग्रेज़ उनका शारीरिक और मानसिक शोषण कर रहे थे, और गाँव के लोगों ने इस अपमानजनक प्रथा के खिलाफ़ विद्रोह करना शुरू कर दिया।
14 जनवरी 1921 को, उत्तरायणी त्योहार के दौरान, सरयू और गोमती नदी के संगम पर स्थित ज़मीन पर कुली बेगार आंदोलन की शुरुआत हुई। कई समुदायों के लोग आंदोलन में भाग लेने के लिए उस मैदान पर आए थे जहाँ त्योहार मनाया जा रहा था, जिससे इसने एक बड़े पैमाने पर होने वाले प्रदर्शन का रूप ले लिया। प्रारंभ में वे प्रार्थना करने के लिए बागनाथ मंदिर गए, और फिर 40,000 से अधिक लोग, एक झण्डा जिस पर ‘कुली बेगार बंद करो’ लिखा था, उसे लहराते हुए सरयू बगड़ की ओर चल पड़े। उसके बाद, सरयू मैदान में एक सभा हुई जिसमें, बद्री दत्त पाण्डे ने शपथ ली कि “पवित्र सरयू का जल लेकर, बागनाथ मंदिर को साक्षी मानकर, हम प्रतिज्ञा करते हैं कि हम कुली उतार, कुली बेगार और कुली बरदायश को अब बर्दाश्त नहीं करेंगे”। एकत्रित हुए सभी लोगों ने भी प्रतिज्ञा ली, और भारत माता का नारा लगाते हुए गाँव के बुज़ुर्गों ने, बेगार के खातों को नदियों के संगम में बहा दिया। इस प्रकार अंग्रेज़ों पर दबाव बनाया गया, और कुली उतार, कुली बेगार और कुली बरदायश की निंदनीय परम्पराएँ खत्म कर दी गईं। इस आंदोलन की सफलता के बाद बद्री दत्त पाण्डे को ‘कुमाऊँ केसरी’ की उपाधि से सम्मानित किया गया। कहा जाता है कि गांधीजी ने इस आंदोलन को 'रक्तहीन क्रांति' का नाम दिया था।
बद्री दत्त पाण्डे एक उत्साही राष्ट्रवादी थे, जिन्हें सत्याग्रह आंदोलन में भाग लेने से पहले ही गिरफ़्तार कर लिया गया था तथा तीन महीने की कैद की सज़ा सुनाई गई थी। हालाँकि, मुकदमे अल्मोड़ा की जेल में चलने निर्धारित हुए, लेकिन पाण्डे ने उनमें भाग लेने से इनकार कर दिया था। हिंदी में लिखी गई उनकी पुस्तक ‘कुमाऊँ का इतिहास’ ऐतिहासिक अध्ययन के क्षेत्र में एक यादगार योगदान है। 1955 में बद्री दत्त पांडे अल्मोड़ा के सांसद बने। सन् 1965 में उनका निधन हो गया।