श्री कृष्ण सिन्हा
बिहार केसरी
बिहार का इतिहास सन् 1921 से ही सहज रूप से, वहाँ के पहले मुख्यमंत्री, श्री कृष्ण सिन्हा नामक एक विशिष्ट व्यक्तित्व के जीवन और इतिहास से जुड़ा हुआ है। श्री कृष्ण सिन्हा को, जनता को सम्बोधित करने के उनके ज़ोरदार अंदाज़ के कारण, प्यार से ‘बिहार केसरी’ के नाम से भी जाना जाता था। वे बिहार की आज़ादी के पहले और बाद के इतिहास में उल्लेखनीय थे। कृष्ण सिन्हा ‘श्री बाबू’ के नाम से भी प्रसिद्ध थे और उनका जन्म 21 अक्टूबर 1887 को बिहार के नवादा ज़िले के खानवा में हुआ था। मुंगेर के एक ज़िला विद्यालय से अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद, उन्होंने कानूनी पेशा अपनाने के लिए पटना कॉलेज में दाखिला लिया और 1915 में, मुंगेर में वकालत शुरू कर दी।
1916 में, बनारस के सेंट्रल हिंदू कॉलेज में गांधी जी के साथ उनकी पहली मुलाकात ने, उन्हें इतना प्रेरित किया कि उन्होंने भारत को ब्रिटिश शासन से मुक्त कराने के लिए, अथक प्रयास करने की कसम खाई। इसी कारण, उन्होंने 1921 में अपने वकालत के पेशे को भी छोड़ दिया। 1922 में, अंग्रेज़ों ने घोषणा की, कि कांग्रेस सेवा दल एक अवैध पार्टी है, जिसके कृष्ण सिन्हा सदस्य थे और इसी कारण उन्हें पहली बार गिरफ़्तार किया गया। 1923 में अपनी रिहाई के बाद, वे अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य बने। नमक सत्याग्रह में उनकी सक्रिय भागीदारी के लिए, उन्हें फिर से जेल में डाल दिया गया। कृष्ण सिन्हा ने लगभग आठ साल, पूर्णतः जेल की सज़ा काटने में बिताए।
1937 में, जब बिहार में कांग्रेस सत्ता में आई, तो कृष्ण सिन्हा इस प्रांत के मुख्यमंत्री बने। उन्होंने 20 जुलाई 1937 को पटना में, भारत सरकार अधिनियम 1935 के तहत, अपने कैबिनेट का गठन किया। कृष्ण सिन्हा ने 1937 से 1961 तक बिहार की बागडोर संभाली। इन वर्षों को आज भी बिहार राज्य के इतिहास के 'स्वर्ण वर्षों' के रूप में देखा जाता है। कृष्ण सिन्हा को प्रायः आधुनिक बिहार के वास्तुकार के रूप में भी देखा जाता है। उनके अधीन, बिहार के राज्य-प्रशासन को कभी देश में सर्वश्रेष्ठ माना जाता था। ज़मींदारी प्रथा को समाप्त करने वाले वे देश के पहले मुख्यमंत्री थे। उन्होंने कोशी, अघौर और सकरी में नदी-घाटी परियोजनाओं को भी लागू किया और बिहार में तेल-शोधन और उर्वरक उत्पादन जैसे भारी उद्योगों की भी शुरुआत की।
मानवतावाद, ईमानदारी और धर्मनिरपेक्षता, कृष्ण सिन्हा की पहचान थे। वह एक महान नेता और आदर्शवादी थे, जिनका नज़रिया बहुत प्रगतिशील था। वह पूरी तरह से जाति व्यवस्था के खिलाफ़ थे और उत्पीड़ितों के सच्चे रक्षक थे। उनके साहस से प्रभावित होकर, गांधी जी ने कृष्ण सिन्हा को ‘बिहार का पहला सत्याग्रही’ कहा था। भारतीय लोगों की सहमति के बिना, द्वितीय विश्व युद्ध में भारत की भागीदारी के विरोध में, 1939 में उन्होंने अन्य कांग्रेस नेताओं के साथ, अपने कर्तव्यों से इस्तीफ़ा दे दिया था। ऐसी थी उनमें नीतिपरायणता की भवना।
कृष्ण सिन्हा, 1946 से लेकर अपनी मृत्यु के दिन (31 जनवरी 1961) तक भी लगातार बिहार की सेवा में लगे रहे। उन्होंने अनुग्रह नारायण सिन्हा के साथ मिलकर कई विकास योजनाओं और परियोजनाओं का नेतृत्व भी किया। इसके अतिरिक्त, कृष्ण सिन्हा ने सचिवालय के अधिकारियों के साथ अच्छे संबंध बनाए रखे तथा पुलिस की छवि को सुधारने में भी मदद की। पुलिस अब अत्याचार, उत्पीड़न, धमकी या नियंत्रण का प्रतीक नहीं मानी जाती थी जैसा कि आज़ादी से पहले के समय में होता था। उन्होंने यह ज़ोर देकर कहा था कि लोकतांत्रिक भारत में, पुलिसकर्मी दक्षता से काम करें और लोगों की सेवा, सुरक्षा और सहायता के लिए तत्पर रहें। कृष्ण सिन्हा द्वारा लाए गए भूमि सुधार कानून ने बिहार के प्रारंभिक इतिहास पर एक गहरी छाप छोड़ी थी।
उनकी विरासत आज भी कायम है। इस महान व्यक्ति की स्मृति में, 1978 में, भारतीय संस्कृति मंत्रालय ने पटना में श्रीकृष्ण विज्ञान केंद्र नामक एक विज्ञान संग्रहालय की स्थापना की थी। पटना का सबसे बड़ा सम्मेलन कक्ष, श्री कृष्ण मेमोरियल हॉल भी उनके नाम पर ही है। बिहार राज्य, हर साल 21 अक्टूबर को श्री कृष्ण जयंती मनाकर, इस महान नेता को श्रद्धांजलि देता है।