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ग्वालियर का किला : परत-दर-परत इतिहास की गाथा

ग्वालियर का किला भारत के सबसे अद्भुत किलों में से एक माना जाता है। यह वर्तमान मध्य प्रदेश में विंध्या पर्वत शृंखला की एक पृथक पहाड़ी पर स्थित है। ग्वालियर नगर दक्षिणपथ के समृद्ध व्यापार मार्ग पर रणनीतिक रूप से बनाया गया था, जो इसे उत्तर में तक्षशिला और दक्षिण में कांचीपुरम से जोड़ता था। इसके उत्तर-पूर्व में विशाल गंगा नदी के उपजाऊ मैदान थे और उत्तर-पश्चिम में यह दिल्ली शहर से सटा था। इसके अतिरिक्त, इसके दक्षिण-पश्चिम में मालवा का पठार और दक्षिण-पूर्व में गोंडवाना स्थित था।

किंवदंती


एक कहावत के अनुसार इस किले की स्थापना 6ठीं शताब्दी ईस्वी में हुई थी। उस समय, एक स्थानीय शासक, सूरज सेन को कुष्ठ रोग हुआ था। एक घुमंतू ऋषि, ग्वालिपा उनसे मिलने आए और उन्हें पास के ही एक पवित्र तालाब का जल पीने को कहा। इस जल के सेवन के बाद, राजा चमत्कारिक रूप से अपने रोग से मुक्त हो गए और उन्होंने बाद में आभार स्वरूप, यहाँ एक किले का निर्माण करवाया, जिसका नाम उस ऋषि के नाम पर रखा गया। ऋषि ने राजा और उनके वंशजों को किले के ‘‘पाल’’ या ‘‘रक्षक’’ की उपाधि दी थी। ऐसी माना जाता है कि जिस तालाब के पानी से राजा अपने रोग से ठीक हुए थे, वह अब किले के परिसर में ही स्थित है और उसे सूरज कुंड कहा जाता है।

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ग्वालियर किले का एक दृश्य। छवि स्रोत : विकिमीडिया कॉमन्स।

राजनीतिक गतिविधियाँ


ग्वालियर शहर का परत-दर-परत इतिहास यहाँ हुईं प्राचीन से लेकर आधुनिक काल तक अनेक राजनीतिक गतिविधियों के बारे में बताता है। इस किले पर कई राजवंशों का शासन रहा है, और उनमें से प्रत्येक ने इस किले के निर्माण में अपना योगदान दिया है। जैसा कि पहले बताया गया है, एक कहावत के अनुसार, ग्वालियर शहर की उत्पत्ति, ऋषि ग्वालिपा के साथ सूरज सेन की भेंट के कारण हुई थी। सूरज सेन पाल के 83 वंशजों ने कई वर्षों तक इस किले पर शासन किया, किंतु उनके 84वें उत्तराधिकारी, तेज करण किले पर अपना नियंत्रण कायम रखने में सफल नहीं रह पाए। ऐतिहासिक दस्तावेज, जैसे शिलालेख और पुरातात्विक साक्ष्य बताते हैं कि ग्वालियर का किला कम से कम 6ठवीं शताब्दी ईस्वी जितना पुराना है। 10वीं शताब्दी ईस्वी के दौरान, ग्वालियर क्षेत्र पर कच्छपघाट वंश (जिसे बाद में कछवाहा के नाम से जाना गया) के शासकों का राज्य स्थापित हुआ। उन्होंने अपने समय की कला और स्थापत्य में महत्वपूर्ण योगदान दिए।

10वीं और 11वीं शताब्दी में किले पर अनेक आक्रमण हुए। महमूद गज़नी ने 1022 ईस्वी में किले पर चार दिनों की घेराबंदी की थी। बाद में 1196 ईस्वी में दिल्ली सल्तनत के पहले शासक, कुत्बउद्दीन ऐबक ने एक लंबी घेराबंदी के बाद किले पर कब्ज़ा कर लिया, जिसके बाद अंततः इसे दिल्ली सल्तनत के साथ मिला लिया गया था। दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों ने कुछ समय के लिए किले पर अपना राजनीतिक अधिकार खो दिया था, परंतु 1232 ईस्वी में इल्तुतमिश ने इसे फिर से जीत लिया। यह पहली बार था जब ग्वालियर किले में जौहर हुआ था। इसमें किले के अंदर मौजूद स्त्रियों ने इल्तुतमिश की सेना के हाथ लगने से बचने के लिए आत्महत्या की थी। उन्होंने जिस जगह अपना जीवन त्यागा था, उसे जौहर कुंड या जौहर ताल के नाम से जाना जाता है और यह किले के उत्तरी छोर पर स्थित है। 1398 ईस्वी तक किले पर दिल्ली सल्तनत का शासन रहा, जिसके बाद यहाँ तोमरों की सत्ता स्थापित हुई। तोमर शासकों में राजा मानसिंह तोमर को सबसे प्रतापी माना जाता है। 16वीं शताब्दी ईस्वी के आरंभ में यहाँ लोदियों का शासन शुरू हुआ। पानीपत की पहली लड़ाई में लोदियों की पराजय के बाद ग्वालियर मुगल भारत का हिस्सा बन गया। 1542 ईस्वी में, शेरशाह सूरी ने मुगलों को हराकर इस किले पर अपना कब्ज़ा कर लिया था। लेकिन 1558 ईस्वी में मुगल सम्राट, अकबर, ने किला वापिस जीतकर, यहाँ फिर से मुगलों का शासन स्थापित किया। औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद हुई ग्वालियर की लड़ाई में गोहद के जाट सरदारों ने इस किले पर कब्ज़ा कर लिया। इन सरदारों को मराठों ने पराजित किया, जिसके बाद सिंधिया नामक मराठों ने इस किले पर नियंत्रण कायम किया।

18वीं शताब्दी के अंत और 19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में, किले पर सिंधियाओं और अंग्रेज़ों का बारी बारी से नियंत्रण स्थापित होता रहा। 1844 ईस्वी में महाराजपुर की लड़ाई के बाद हुई संधि के अनुसार, मराठा सिंधिया परिवार ने अंग्रेज़ी सरकार के प्रतिनिधियों के रूप में किले के संरक्षण की ज़िम्मेदारी उठाई। 1857 के विद्रोह के दौरान अंग्रेज़ों के प्रति सिंधिया शासकों की वफ़ादारी के बावजूद, किले के सिपाहियों ने अंग्रेज़ों के खिलाफ़ विद्रोह छेड़ दिया। वास्तव में, विद्रोह के आखिरी महीनों में, किले में कई महत्वपूर्ण घटनाएँ घटीं। विद्रोह के सबसे प्रमुख नेताओं में से एक, ताँत्या टोपे को किले के पास ही बंदी बना लिया गया था। किले को रानी लक्ष्मीबाई और उनके वीरतापूर्ण कार्यों से जुड़े रहने के लिए भी याद किया जाता है। 1857 के विद्रोह के समय वे झाँसी से ग्वालियर आईं और यहीं से उन्होंने अंग्रेज़ों से लोहा लिया था।

19वीं शताब्दी के अंत तक, भारत में अंग्रेज़ी शासन मजबूती से स्थापित हो गया था , जिसके कारण इस किले का कूटनीतिक महत्व कम हो गया। इसीलिए अंग्रेज़ों ने यह किला सिंधियाओं को सौंप दिया था, जिन्होंने 1947 में भारत की स्वतंत्रता तक ग्वालियर पर शासन किया।

स्थापत्य


किला, बसॉल्ट (गहरे महीन दाने वाली ज्वालामुखी चट्टान) की परत से ढके भूरे-पीले रंग के बलुआ पत्थरों पर बना हुआ है। किले के समृद्ध और पेचीदा राजनैतिक इतिहास के कारण यहाँ जिन अनेक स्थापत्य शैलियों का मिश्रण हुआ, उनका अंदाज़ा इसके 3 किलोमीटर वर्ग के विशाल परिसर में फैली विभिन्न इमारतों को देखकर ही लगाया जा सकता है।

ग्वालियर का किला गोपगिरि या गोपाचल नामक एक समतल शिखरयुक्त पहाड़ी पर बना है और चारों ओर एक नाले से घिरा हुआ है। यह संरचना 2 मील के एक बड़े क्षेत्र में फैली है, जिसमें इसके प्राचीर पहाड़ी के किनारे पूरी लंबाई में बने हैं। किले तक जाने के लिए जिस सड़क का इस्तेमाल होता है, वह चट्टानों पर उकेरी गई कतारबद्ध जैन मूर्तियों से सजी है। इन्हें तोमर शासकों के राज्यकाल में बनवाया गया था, जिनमें से कई जैन धर्म के संरक्षक थे। ग्वालियर किले के अनेक प्रवेशद्वार हैं। इनमें आलमगिरि या ग्वालियर द्वार, गणेश द्वार, चतुर्भुज द्वार, उर्वई द्वार, लक्ष्मण द्वार, बादल महल या हिंडोल द्वार, और हाथी पोल शामिल हैं। हाथी पोल यहाँ का मुख्य प्रवेश द्वार है, जो परिसर के दक्षिण-पूर्व भाग में स्थित है और मानसिंह महल के पूर्वी अग्रभाग का हिस्सा है। ऐसा माना जाता है कि जिस हाथी की मूर्ति (जिसका वर्णन इब्न बतूता ने अपने संस्मरणों में भी किया है) के कारण द्वार का यह नाम रखा गया था, वह मुगल बादशाह औरंगज़ेब के आदेश पर हटा दी गई थी। किले के अंदर मौजूद पानी के जलाशयों से 15000 सैनिकों के लिए महीनों तक पानी की आपूर्ति हो सकती थी।

एक दुर्जेय रक्षात्मक गढ़ होने के अतिरिक्त, ग्वालियर का किला एक पवित्र आध्यात्मिक स्थान भी है। किले के परिसर में कुछ उत्कृष्ट मंदिर भी हैं, जो प्रारंभिक मध्यकालीन मंदिर वास्तुकला के आदर्श नमूने हैं। वास्तव में इसी अवधि के आसपास, ग्वालियर शहर, वास्तुकला की नागर शैली के एक प्रमुख केंद्र के रूप में उभरा था। संस्कृत के एक अभिलेख के अनुसार, छठी शताब्दी ईस्वी के हूण सम्राट, मिहिरकुल, के शासनकाल में ग्वालियर में एक सूर्य मंदिर का निर्माण हुआ था। किले के परिसर में बना तेली का मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित है और यहाँ के सभी मंदिरों में यह सबसे बड़ा है। 9वीं शताब्दी ईस्वी में गुर्जर-प्रतिहार शासकों द्वारा बनवाया गया यह मंदिर, वास्तुकला की नागर और द्रविड़ शैलियों के सुंदर मेल का एक अद्भुत उदाहरण है। 11वीं शताब्दी में यहाँ प्रसिद्ध सहस्रबाहु मंदिर का निर्माण हुआ था, जो अब ‘सास-बहू’ मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। भगवान विष्णु को समर्पित यह मंदिर, कच्छपघाट वंश के राजा महिपाल ने बनवाया था। इसके नाम के कारण, इस किले के प्रति बहुत लोगों की रुचि जागृत हुई है। यहाँ भगवान विष्णु को एक हज़ार हाथों के साथ दर्शाया गया है, जिसके कारण इसका नाम सहस्रबाहु पड़ा। ऐसा माना जाता है कि राजा महिपाल की रानी भगवान विष्णु की परम भक्त थी और उनकी पुत्रवधू भगवान शिव की पूजा करती थी। इसके कारण, उनकी पुत्रवधू की पूजा के लिए यहाँ सहस्त्रबाहु मंदिर की एक प्रतिकृति बनाई गई थी, जो भगवान शिव को समर्पित थी। इस प्रकार यहाँ जुड़वाँ मंदिरों का निर्माण हुआ, जिसे अब आमतौर पर ‘सास-बहू’ मंदिर कहते हैं।

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सहस्त्रबाहु मंदिर। छवि स्रोत : विकिमीडिया कॉमन्स

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तेली का मंदिर। छवि स्रोत : विकिमीडिया कॉमन्स

भगवान विष्णु को समर्पित गरुड़ स्मारक किले का सबसे ऊँचा स्थान है, जो तेली के मंदिर के पास ही स्थित है। किले में ध्यान की ‘कायोत्सर्ग’ मुद्रा में 24 तीर्थंकरों को दर्शाती सिद्धाचल गुफ़ाएँ हैं। ऐसा माना जाता है कि इन मूर्तियों का निर्माण 7वीं शताब्दी ईस्वी में शुरू हुआ था। हालाँकि, ये 15वीं शताब्दी ईस्वी में तोमरों के शासनकाल में पूरी हुई थीं ।

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कायोत्सर्ग मुद्रा में 24 तीर्थंकरों को दर्शाती सिद्धाचल गुफ़ाएँ। छवि स्रोत : विकिमीडिया कॉमन्स।

किले के अंदर 875 ईस्वी में गुर्जर-प्रतिहार शासकों द्वारा बनवाए गए चतुर्भुज मंदिर में एक अभिलेख है, जिसमें ‘शून्य’ संख्या का संसार का सबसे पहला ज्ञात लिखित प्रमाण मौजूद है। यह 1500 वर्षों से भी पुराने एक अभिलेख में मिला है, जो आज भी सभी भारतीयों के लिए एक गर्व का विषय है।

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चतुर्भुज मंदिर, ग्वालियर किला। छवि स्रोत : विकिमीडिया कॉमन्स

वास्तुशिल्पीय विकास की दृष्टि से राजा मानसिंह तोमर का शासनकाल ग्वालियर का स्वर्ण युग माना जाता है। 15वीं शताब्दी में उन्होंने प्रसिद्ध मान मंदिर महल तथा अपनी पत्नी मृगनयनी के लिए गुजरी महल नाम का एक अलग महल बनवाया था। गुजरी महल को अब एक राजकीय पुरातात्विक संग्रहालय में बदल दिया गया है, जिसमें पहली और दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व के हिंदू और जैन ग्रंथों सहित दुर्लभ कलाकृतियाँ, शालभंजिका की एक लघु प्रतिमा, टेराकोटा की वस्तुएँ, और बाग गुफ़ाओं के भित्ति-चित्रों की प्रतिकृतियाँ मौजूद हैं। मान मंदिर महल चीनी मिट्टी की फ़िरोज़ी-नीली टाइलों से सजी एक भव्य संरचना है और भारत के आरंभिक हिंदू महलों का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। दीवारों पर उत्कृष्ट नक्काशियों से सजी, इसमें चार मंज़िलें हैं- दो ऊपर और दो ज़मीन के नीचे।

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लाजवर्द (लैपिस-लज़ूली) की उत्कृष्ट रंगीन टाइलें, किले की दीवारों की शोभा बढ़ाती हैं। छवि स्रोत : विकिमीडिया काॅमन्स।

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किले के अंदर की दीवारों, खिड़कियों, और दरवाज़ों पर बनी बारीक सज्जा। छवि स्रोत: विकिमीडिया काॅमन्स।

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मान सिंह महल के सुरम्य अंदरूनी भाग। छवि स्रोत : विकिमीडिया कॉमन्स।

तोमर वंश के विक्रमादित्य सिंह ने यहाँ विक्रम महल नामक एक मंदिर बनवाया था , जो मूलतः भगवान शिव को समर्पित था। परिसर के भीतर स्थित एक अन्य शानदार संरचना कर्ण महल है, जिसे तोमर वंश के कीर्ति सिंह (कर्ण सिंह के नाम से भी प्रसिद्ध) ने बनवाया था। तोमर शासक कला, वास्तुकला, और संस्कृति के महान संरक्षक थे। उन्होंने किले में प्रारंभिक जैन और हिंदू मंदिरों का पुनः निर्माण करवाया था और वे संगीत के महान संरक्षक भी थे। तानसेन जैसे विलक्षण संगीतज्ञ, ग्वालियर घराने से ही जुड़े थे। मानसिंह तोमर के दरबार में उनकी रानी, मृगनयनी को समर्पित, राग गुजरी तोड़ी की रचना की गई थी। बाद में शास्त्रीय संगीत की ध्रुपद शैली का जन्म भी यहीं हुआ और इस प्रकार भारतीय शास्त्रीय संगीत में ग्वालियर घराने का एक विशिष्ट स्थान बन गया।

मुगल बादशाहों ने इस परिसर में जहाँगीर महल और शाहजहाँ महल नामक दो संरचनाएँ बनवाई थीं। 1609 ईस्वी में मुगल बादशाह जहाँगीर ने छठे सिख गुरु, हरगोबिंद, को कैद करने के लिए भी इस किले का उपयोग किया था। उनकी रिहाई के दिन को दुनिया भर के सिख ‘मुक्ति दिवस’ या ‘बंदी छोड़ दिवस’ के रूप में मनाते हैं। गुरु हरगोबिंद की स्मृति में किले में एक भव्य गुरुद्वारा बनवाया गया है।

किले के अंदर की एक अन्य उल्लेखनीय संरचना, भीम सिंह राणा की छतरी है। इसे राणा छतर सिंह ने अपने पूर्ववर्ती, गोहद राज्य के शासक भीम सिंह राणा के सम्मान में बनवाया था, जिन्होंने 1740 ईस्वी में इस किले पर अपना नियंत्रण स्थापित किया था। यह अनोखा स्मारक एक ऊँचे चबूतरे पर बना है। किले के परिसर में आज सिंधिया स्कूल भी है, जिसे 1897 में महाराज माधव राव सिंधिया ने बनवाया था।

ग्वालियर किले के वैभव के कारण, पहले मुगल बादशाह ज़हीर-उद-दीन मुहम्मद बाबर ने इसे ‘हिंद के किलों के बीच मोती’ कहा था। इसकी मज़बूत बनावट ग्वालियर शहर में हुए कई युद्ध और लड़ाइयाँ झेल चुकी है। यह दुर्जेय किला समय की कसौटी पर खरा उतरा है और स्थानीय निवासियों की संस्कृति का एक अभिन्न अंग बना हुआ है।

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हाथी पोल और विशाल दीवारें इस किले को बृहत् आकार प्रदान करती हैं। छवि स्रोत : विकिमीडिया काॅमन्स।