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मेहरानगढ़ की चीलें: मारवाड़ के संरक्षक

मेहरानगढ़ के किले में, आज तक प्रत्येक दिन, एक रहस्यमय परंपरा निभाई जा रही है। इस परंपरा के बारे में लिखा और बताया गया है, परंतु इसे देख पाना एक बहुत दुर्लभ संभावना है। सात अवधि-कक्ष और छः दीर्घाओं में फैले मेहरानगढ़ किले और संग्रहालय को देखने आए पर्यटकों में से कुछ ही भाग्यशाली होते हैं जो इस इकलौती परंपरा को देख पाते हैं, जो इस किले में तब से जारी है जब यह सन १४५९ में बना था।

प्रत्येक दिन, दोपहर के साढ़े तीन बजे, लतीफ़ भाई नामक एक पतला-दुबला जवान आदमी, हाथ में एक झोला लिए किले के कई बुर्जों में से एक की ओर चलता दिखाई देता है। वह आए हुए पर्यटकों को प्रणाम करना कभी नहीं भूलता। बुर्ज की ओर जाते समय वह उनसे कहता है कि वह जैसे ही इशारा करेगा वे तुरंत उसके पास आ जाएँ। वह उनसे शांति बनाए रखने के लिए भी कहता है। फिर वह जल्दी-जल्दी सीढ़ियों से बुर्ज पर चढ़ जाता है।

छत पर चढ़कर वह अपने झोले में हाथ डालकर बकरे के मांस का एक टुकड़ा निकालता है। जैसे ही वह उसे आसमान की ओर उठाता है, अब तक का साफ़ उजला जोधपुर का आकाश, एकाएक इधर से उधर उड़ती हुई चीलों से भर जाता है। लतीफ़ मांस के टुकड़ों को ऊपर फेंकता जाता है और ये शाही परिंदे इन्हें बीच आसमान में पकड़ लेते हैं।
दंतकथाएँ कहती हैं कि यदि मांस ज़मीन पर गिर जाए तो चीलें उसे नहीं उठाती। जैसे ही चीलें आ जाती हैं तो लातीफ़ भाई, एक प्राचीन परंपरा को प्रदर्शित करने के लिए, इशारे से अंततः सभी विस्मयाभिभूत पर्यटकों को अपने पास बुला लेता है। अपने मंत्रमुग्ध दर्शकों के सामने लतीफ़ चीलों को खिलाने के लिए अपना झोला खाली कर देता है। लतीफ़ का परिवार पीढ़ियों से महाराज की सेवा कर रहा है और यह परंपरा उनके द्वारा पीढ़ी दर पीढ़ी निभाई जा रही है।

चीलों और मेहरानगढ़ का संबंध उस समय से है जब सन १४५९ में राव जोधा ने यह किला बनवाया था। मान्यता है कि चीलों का जोधपुर के शाही परिवार की कुलदेवी और दुर्गा देवी की अवतार कर्णी माता से गहरा संबंध है। ऐसा माना जाता है कि जब सन १४५३ के लगभग राव जोधा अपने खोए हुए राज्य को पुनः प्राप्त करने की योजना बना रहे थे तब कर्णी माता एक चील के रूप में उनके सपने में आईं। उन्होंने राव जोधा को सफलता का आशीर्वाद दिया और उनको अपने खोए हुए राज्य को पुनः प्राप्त करने की रणनीति भी बताई। उसी समय से चीलों को मारवाड़ की संस्कृति में एक महत्वपूर्ण स्थान मिल गया है। ये न केवल जोधपुर के शाही परिवार द्वारा पूजी जाती हैं, बल्की ये रणबाँके राठोरों की पताका, उनके राज्य–चिह्न में और उनके भव्य किले के प्रतीक पर भी दिखाई देती हैं। सदियों बाद भी यह परंपरा जारी है, ये शानदार शिकारी परिंदे अभी भी मेहरानगढ़ किले के प्राचीरों के ऊपर उड़ते हैं और उनको खाना देने की परंपरा निरंतर जारी है।