Sorry, you need to enable JavaScript to visit this website.

औपनिवेशिक काल में किलों का इतिहास

भारत में सत्ता के लिए यूरोपीय देशों के बीच हुए संघर्ष की कहानी की जड़ें उन घटनाओं में पाईं जाती हैं जो, बहुत पहले, 7वीं शताब्दी में, हुईं थीं। रोम साम्राज्य के पतन के साथ, अरबी लोगों ने मिस्र और फ़ारस के क्षेत्रों पर प्रभुत्व स्थापित कर लिया था, जिस क्षेत्र के बीच से भारत-यूरोपीय व्यापार मार्ग निकला करते थे। 15वीं शताब्दी में उस्मान वंश के तुर्कों के हाथों में क़ुस्तुंतुनिया (कॉन्स्टेंटिनोपल) के आ जाने से स्थिति और भी जटिल हो गई थी। चूँकि लाल सागर के व्यापार मार्ग पहले से ही उनके नियंत्रण में थे, अब सारा भारतीय माल यूरोप पहुँचने से पहले अरब मध्यस्थों से होकर गुजरने लगा। इस परिदृश्य में, यूरोपीय लोग भारत के लिए एक सीधा समुद्री मार्ग खोजने के लिए बेताब हो गए थे। पुर्तगालियों के पीछे डच, अंग्रेज़, फ़्रांसीसी और डेनमार्क देश के लोग भी भारत आए। भारत से मसाले, सूती कपड़े, रेशम, कीमती पत्थर और काली मिर्च खरीदकर मुनाफ़े में व्यापार करने पर एकाधिकार और प्रभुत्व के संघर्ष में, इन शक्तियों ने अपने हितों की रक्षा के लिए रक्षात्मक संरचनाएँ स्थापित कीं। उन्होंने अपनी व्यावसायिक गतिविधियों को आगे बढ़ाने के लिए कारखानों, बंदरगाहों, और किलेबंद संरचनाओं का निर्माण किया। यूरोपीय लोगों की उपस्थिति का स्वदेशी शासकों द्वारा विरोध भी किया गया। इसलिए, विद्रोहों के खिलाफ़ औपनिवेशिक अभिकर्ताओं की सुरक्षा के लिए किले शरण स्थल भी बन गए और समय के साथ इन किलों ने बहु-कार्यात्मक भूमिका ग्रहण कर ली।

1498 ई. में साहसिक पुर्तगाली नाविक वास्को द गामा पहली बार भारत पहुँचा। कालीकट के शासक द्वारा उसका गर्मजोशी से स्वागत किया गया। परंतु, पुर्तगालियों का उद्देश्य भारत में मुनाफ़ेवाले व्यापार, विशेष रूप से भारतीय काली मिर्च के व्यापार, पर एकाधिकार जमाना था। पुर्तगालियों ने कालीकट, कैनानोर और कोचीन में व्यापारिक कारखाने स्थापित किए जो उनके व्यापार के मुख्य केंद्र बन गए। परंतु इससे, उनका और उनकी गतिविधियों का विरोध करने वाले स्थानीय व्यापारियों के साथ, विवाद उठ खड़े हुए। 16वीं शताब्दी के अंत में, कालीकट के कारखाने पर स्थानीय अरब व्यापारियों ने आक्रमण किया और अनेक पुर्तगाली मारे गए। क्रोध में, पुर्तगालियों ने सैकड़ों अरब व्यापारियों को मार डाला और उनके माल को ज़ब्त कर लिया। धीरे-धीरे, अपने कारखानों की सुरक्षा के बहाने, पुर्तगालियों ने इन बस्तियों को किलेबंद कर दिया। पुर्तगालियों द्वारा बनाया गया पहला किला केरल के कोच्चि में फ़ोर्ट इमैनुएल था। इसे बनाने की अनुमति उनके मित्र, कोच्चि के स्थानीय महाराजा ने 1503 ई. में दी थी।

हालाँकि, उनके आगमन के तुरंत बाद, डच लोगों के आने से उनकी उपस्थिति का विरोध हुआ। डच लोगों ने 1605 ई. में मसूलीपट्टनम, (वर्तमान) आंध्र प्रदेश में अपना पहला कारखाना स्थापित किया। अगुआड़ा किला (वर्तमान गोवा में) पुर्तगालियों द्वारा डच लोगों से बचाव और सुरक्षा के लिए बनाया गया था। किले के अंदर ताजे पानी के झरने ने पुर्तगालियों की बड़ी नौसेना के लिए ताजा पानी सुनिश्चित किया। यह किला अपने बुर्जों, खाईयों और एक प्रकाश स्तंभ के साथ विशाल अरब सागर की ओर स्थित है। डच लोगों ने पुर्तगालियों को पराजित किया और कोच्चि में उनके किले के साथ-साथ उनके व्यापारिक केंद्रों पर भी कब्ज़ा कर लिया।

Colonial

फ़ोर्ट अगुआड़ा, स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स

अंग्रेज़ 17वीं शताब्दी के पहले दशक में भारत आए और उन्होंने मसूलीपट्टनम और सूरत में शीघ्र ही अपने कारखाने स्थापित किए। इस समय डच अंग्रेज़ों के प्रमुख विरोधी थे तथा इसके बाद तीव्र आंग्ल-डच प्रतिद्वंद्विता का दौर शुरू हुआ। 1639 में, चंद्रगिरी के शासक ने अंग्रेज़ों को मद्रास में कारखाने की किलाबंदी करने की अनुमति दी। यह प्रसिद्ध सेंट जॉर्ज किले में विकसित हुआ जो दक्षिण में, मसूलीपट्टनम के बजाए, उनका मुख्यालय बन गया। यह भारत में अंग्रेज़ों का पहला किला था और यह एक शहरी किले के रूप में विकसित हुआ। यूरोपीय लोगों के बीच, यह किला ऐतिहासिक रूप से "व्हाइट टाउन" के रूप में जाना जाता था, और इसके आसपास के शहर को "ब्लैक टाउन" कहा जाता था। इसका बाह्य भाग भूरे ग्रेनाइट का है और इसकी वास्तुकला 17-18वीं शताब्दी की उन अंग्रेज़ी संरचनाओं की तरह है जिनमें वास्तुकला की बारोक शैली का उपयोग किया जाता था। यह शैली मूल रूप से इटली में उत्पन्न हुई थी और पुर्तगालियों के साथ भारत आई थी। पूरे औपनिवेशिक काल के दौरान इस शैली का उपयोग विभिन्न गिरिजाघरों को बनाने में भी किया गया था। जैसे ही फ़्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी के आगमन की खबर अंग्रेज़ों तक पहुँची, फ़ोर्ट सेंट जॉर्ज का और विस्तार किया गया। फ़्रांसीसियों ने 1667 ई. में सूरत में एक कारखाना स्थापित किया, और इसके तुरंत बाद उन्होंने मसूलीपट्टनम में एक और कारखाना स्थापित किया। उन्होंने कलकत्ता के पास एक बस्ती भी स्थापित की।

Colonial

फ़ोर्ट सेंट जॉर्ज, स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स

पहले के किलों के डिज़ाइन सम्भवतः कुशल अभियंताओं के अभाव में प्रायः सरल होते थे। लेकिन जैसे-जैसे किलों का सैन्य और व्यावसायिक महत्व बढ़ा, डिज़ाइन अधिक जटिल और उन्नत हो गए। 18वीं शताब्दी के पहले दशक में फ़्रांसीसियों ने भारत के पूर्वी तट पर पॉन्डिचेरी में फ़ोर्ट सेंट लुइस की स्थापना की। इस अवधि तक, अभियांत्रिकी के क्षेत्र में भी काफी प्रगति हो गई थी। यह फ़्रांसीसी किला वाउबन नामक फ़्रांस में लुई XIV के तहत कार्यरत एक प्रसिद्ध सैन्य अभियंता द्वारा बनाई गई फ़्रांसीसी योजना के आधार पर बनाया गया था। पंचभुजीय आकार के इस किले में, गोला-बारूद, हथियारों तथा ऐसी अन्य वस्तुओं के लिए भूमिगत कक्षों के साथ, पाँच बुर्ज और द्वार सम्मिलित थे। संपूर्ण किला एक खाई से घिरा हुआ था। पास में जो नगर विकसित हुआ, वह पुनः मूल निवासियों के लिए ब्लैक टाउन और फ़्रांसीसियों के लिए एक व्हाइट टाउन में विभाजित हुआ।

अंग्रेज़ों ने 1761 ई. में इस फ़्रांसीसी किले को नष्ट कर दिया। इस बीच, डेनमार्क के लोग भी भारत के धन में अपना हिस्सा ढूँढ़ने के प्रयास में पहले ही भारत आ चुके थे। हालाँकि वाणिज्य और सैन्य बल की तुलना में अपनी मिशनरी गतिविधियों के लिए अधिक जाने जाने वाले, इन लोगों ने वर्तमान तमिलनाडु में भारत के पूर्वी तट पर प्रख्यात डेंसबोर्ग किले का निर्माण किया। यह दो मंजिला किला समलंब आकार में बनाया गया था और यह वास्तुकला की डेनिश शैली का द्योतक है। ऊँची छतों के साथ, इसमें बड़े कमरे और स्तंभित संरचनाएँ हैं। इसमें ईंट से बनी एक केंद्रीय संरचना और कई रक्षक कक्ष हैं। इसमें काले पत्थर से निर्मित बुर्ज भी हैं। एक मजबूत रक्षात्मक संरचना होने के बजाय, यह किला नागरिकों के लिए, उनकी बस्ती पर आक्रमण होने पर, विशिष्ट रूप से एक सुरक्षित शरण स्थान सिद्ध हुआ।

Colonial

फ़ोर्ट डेंसबोर्ग, स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स

हम देखते हैं कि औपनिवेशिक किले मुख्य रूप से सुरक्षा और वाणिज्य के उद्देश्यों के लिए बनाए गए थे। इसके अतिरिक्त, उनका प्रभाव उस क्षेत्र पर भी पड़ा जिसको वे सुरक्षा प्रदान करते थे। इनमें से कुछ किले शहरों में विकसित हो गए और अन्य वाणिज्यिक मूल्य के बंदरगाह अथवा आक्रमणों के दौरान राहत प्रदान करने के स्थान बन गए। जैसे-जैसे आधिपत्य का संघर्ष बढ़ा, किलों के डिज़ाइन में भी सुधार किए गए। औपनिवेशिक अभिकर्ता अपनी जन्मभूमि से वास्तुकला की नई शैलियाँ भी लाए जो अब भारत के वास्तुकलात्मक इतिहास में अंतर्निहित हो गईं हैं।