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मध्यकालीन भारत में किलों का इतिहास

मध्यकालीन युग के दौरान भारत के किलों का इतिहास, अपने अतीत के साथ सामंजस्यपूर्ण रूप से जुड़ा हुआ सिलसिला है। प्राचीन काल में निर्मित कई किलों को लेकर सदियों तक लड़ाइयाँ लड़ी गईं, उनका अभिग्रहण किया गया, पुनः अभिग्रहण किया गया, उन्हें नष्ट किया गया और उन पर कब्ज़ा किया गया। देश के बदलते परिवेश के अनुसार ही वास्तुकलात्मक परिवर्तन भी होते चले गए। मध्ययुगीन काल के दौरान हुए विकास, 13वीं और 18वीं शताब्दी के बीच उपमहाद्वीप के सैन्य और राजनीतिक इतिहास से गहराई से जुड़े हैं। इस अनुभाग का उद्देश्य इस अवधि के दौरान किलों की व्यापक विशेषताओं पर प्रकाश डालना है।

दिल्ली सल्तनत के बीज मुहम्मद ग़ोरी और कुतुबुद्दीन ऐबक के आगमन पर बोए गए। यह सल्तनत औपचारिक रूप से अल्तमश (इल्तुतमिश) द्वारा 13वीं शताब्दी में स्थापित की गई। उसी समय, राजपूतों ने उत्तरी भारत के बड़े हिस्से पर अधिकार जमा लिया था। उन्होंने राजपूताना के चट्टानी भू-भाग और इसके बाहर भी सैकड़ों इमारतों का निर्माण किया। इनमें किले मुख्य थे। दिल्ली सल्तनत के शासक अपनी मूल भूमि से सांस्कृतिक प्रभाव भी लाए थे। इन दो प्रमुख शक्तियों के बीच आधिपत्य के संघर्ष के साथ-साथ सांस्कृतिक आदान-प्रदान भी चलता रहा। इस अवधि के दौरान देश में विकसित हुई वास्तुकलात्मक शैली, स्वदेशी और मध्य एशियाई परंपराओं के संश्लेषण से प्रभावित थी।

सल्तनत वास्तुकला में मेहराब और गुंबद तकनीक का उपयोग सम्मिलित था। यह तुर्की आविष्कार नहीं था, बल्कि अरबी लोगों से लिया गया था जो इसे रोम से लाए थे। इस तकनीक को जानने से पहले, भारतीय पटिया और शहतीर (स्लैब और बीम) तकनीक का उपयोग करते थे जिसमें एक पत्थर को दूसरे के ऊपर रखा जाता था तथा अंतराल बंद करने के लिए इसे पाटने वाले पत्थर से ढका जाता था। चौकोर इमारत के आधार पर गोल गुंबद स्थापित करने की कला ने कमरों को स्पष्ट दृश्य प्रदान किया क्योंकि कोई और सहारा देने वाली संरचना स्थान को बाधित नहीं करती थी। उन्होंने निर्माण के लिए उत्कृष्ट गुणवत्ता वाला चूने के गारे का उपयोग किया तथा सजावट के लिए कुरान के छंदों के साथ ज्यामितीय आकृतियों को सम्मिलित किया।

राजपूत चुनौती के अलावा, दिल्ली के पूर्वकालीन सुल्तानों ने उत्तर-पश्चिमी सीमांत पर चग़ताई मंगोलों के आक्रमणों के खिलाफ भी लड़ाई लड़ी। प्रसिद्ध पूर्वकालीन सुल्तानों में से एक, बलबन, ने उनसे बचाव के लिए लाहौर किले की मरम्मत का आदेश दिया। यह उनके शासन के तहत ही था कि हम वास्तुकला में पहले असली मेहराब की उपस्थिति देखते हैं। इस मेहराब को पत्ती के आकार (शीर्ष पर चौड़ा और आधार की ओर पतला) के पत्थरों की सहायता से बनाया गया था, जिन्हें केंद्र में एक मूल पत्थर की सहायता से आपस में जोड़ा गया था।
कालिंजर, बयाना, ग्वालियर, रणथंभोर, इत्यादि राजपूत राज्यों ने देश के पश्चिमी क्षेत्रों में स्वतंत्रता के लिए लड़ाई लड़ी। अलाउद्दीन खिलजी (1296-1316) के तहत, तुर्की शासकों के लिए किले प्रमुख रूप से महत्वपूर्ण बन गए। उत्तरकालीन सुल्तानों में से एक, अलाउद्दीन खिलजी अपने सैन्य सुधारों के लिए जाना जाता था। वह एक बड़ी स्थायी सेना बनाए रखने वाला पहला शासक था। मेवाड़ के राजपूतों और भट्टी राजपूतों के साथ लगातार संघर्ष की पृष्ठभूमि में, उसने चित्तौड़, रणथंभोर और जैसलमेर के तीन मुख्य राजपूत किलों का अभिग्रहण किया। इसके अतिरिक्त, उसने मांडू के किले का अभिग्रहण किया और कूटनीतिक रूप से इसे सोंगार नामक, वर्तमान राजस्थान के राजपूतों के चौहान वंश की शाखा को दे दिया। अलाउद्दीन ने मंगोल आक्रमणों से बचाव के लिए सीरी किले में अपनी राजधानी बनाई, जो दिल्ली का दूसरा शहर बन गया। यह शहरी किला परिसर प्रतिरूप की शुरुआत थी जो उसके उत्तराधिकारियों द्वारा जारी रखी गई। पूरा शहर किलेबंद दीवारों से घिरा होता था और मस्जिदों, मदरसों, मंदिरों, इत्यादि, जैसी संरचनाओं को किले के अंदर ही बनाया जाता था।

Chittorgarh Fort, Rajasthan

चित्तौड़गढ़ किला, राजस्थान

Ranthambore Fort, Rajasthan

रणथंभोर किला, राजस्थान

Jaisalmer Fort, Rajasthan

जैसलमेर किला, राजस्थान

दिल्ली में खिलजी शासन के बाद तुग़लकों का शासन आरंभ हुआ। तुग़लक़ वास्तुकला के अंतर्गत उच्च चबूतरों पर संरचनाओं के निर्माण का एक नया चलन देखा गया, जैसा कि गयासुद्दीन तुग़लक़ के मकबरे में देखा जा सकता है। राजनैतिक क्षेत्र में, मेवाड़ राज्य ने 14वीं शताब्दी में तुग़लक़ वंश के शासनकाल के दौरान 1336 में सिंगोली की ऐतिहासिक लड़ाई में मुहम्मद बिन तुग़लक़ को हराकर अपनी आज़ादी पुनः प्राप्त कर ली। राजपूत राज्यों ने बंगाल राज्य तक अपना प्रभुत्व फैलाया और राजा मान सिंह तोमर ने वर्तमान मध्य प्रदेश के ग्वालियर किले में परिवर्धन किए। फ़िरोज शाह तुग़लक़ ने 14वीं शताब्दी में फ़िरोज शाह कोटला नामक किलेबंद परिसर का निर्माण कराया। यह परिसर 'बैटर' अथवा ढलान वाली दीवारों की तकनीक को प्रदर्शित करता है, जिसमें दीवारें संरचना को स्थिर तथा किले को आक्रमण के तहत सशक्त बनाने के लिए अंदर की ओर झुकी हुई होती हैं।

Firoz Shah Kotla fortress, New Delhi

फ़िरोज शाह कोटला किला, नई दिल्ली

यह तुग़लक़ शासन के तहत ही अलाउद्दीन बहमन शाह नामक एक सेनापति था जिसने वर्तमान कर्नाटक में बहमनी सल्तनत की स्थापना की थी। यह भारत में दक्कन क्षेत्र का पहला फ़ारसी साम्राज्य था। 15वीं शताब्दी में इसके तत्त्वावधान में बने बीदर किले में प्रायद्वीपीय भारत में पहली बार ईरानी वास्तुकलात्मक तकनीकों का उपयोग किया गया। इस किले में पानी की आपूर्ति के लिए फ़ारस से ली गई कारेज़ नामक अद्वितीय प्रणाली का उपयोग किया गया। किले के परिसर में इस्लामी डिज़ाइनों और इमारतों जैसे कि मेहराब और मस्जिदों को भी सम्मिलित किया गया था।

Firoz Shah Kotla fortress, New Delhi

करेज़ प्रणाली की सुरंगें, बीदर किला, कर्नाटक

15वीं शताब्दी में मेवाड़ के प्रसिद्ध शासक राणा कुंभा का उदय हुआ। उन्हें किलों के निर्माण के लिए जाना जाता है, जिनमें से सबसे प्रमुख राजस्थान में कुंभलगढ़ किला है। इस अवधि के दौरान, केवल राजपूत वंशों और दिल्ली के शासकों के बीच ही नहीं, बल्कि स्वयं राजपूतों के बीच भी संघर्ष हुए। इस किले ने मेवाड़ और मारवाड़ के क्षेत्रों को अलग किया तथा लंबी लड़ाई के दौरान मेवाड़ राजाओं के लिए एक शरण स्थान के रूप में कार्य किया। राणा कुंभा के पोते, राणा सांगा (1508-1528) ने दिल्ली के लोदी वंश के खिलाफ़ लड़ाई लड़ी। लोदी राजवंश ने अपनी संरचनाओं में, सबसे विशिष्ट विशेषता के रूप में, उद्यानों को शामिल किया। इसे दिल्ली में बने लोदी उद्यान में देखा जा सकता है। लोदियों द्वारा 6वीं शताब्दी में अपनाई गई इस विशेषता को मुगल वंश के संस्थापक ज़हीरुद्दीन मुहम्मद बाबर द्वारा आगे बढ़ाया गया। इसके अतिरिक्त, लोदियों को भारत में दोहरे गुंबद की स्थापना का श्रेय भी दिया जाता है।

Kumbhalgarh Fort, Rajasthan

कुंभलगढ़ किला, राजस्थान

पानीपत का पहला ऐतिहासिक युद्ध 1526 ई. में लोदी शासक और बाबर के बीच लड़ा गया था। इस युद्ध के बाद भारत में मुगल शासन की शुरुआत हुई। 1527 ई. में खानवा के युद्ध में राणा सांगा ने बहादुरी से बाबर का मुकाबला किया। इन दोनों लड़ाइयों में बाबर की जीत हुई, बावजूद इसके कि वह विदेशी भूमि में अनुभवी योद्धाओं का सामना कर रह था। ऐसा कहा जाता है कि तुलुघमा (हर तरफ़ से दुश्मन को घेरने के लिए सेना को अलग-अलग टुकड़ियों में विभाजित करना) और अरबा (सशस्त्र गाड़ियाँ) जैसी युद्ध की नवीन तकनीकों से ही उसने ये निर्णायक विजय हासिल की थीं। मुगल काल में चित्तौड़गढ़ किले की बार-बार घेराबंदी हुई, और इसे अंततः 1568 ई. में अकबर द्वारा अभिग्रहण कर लिया गया। मेवाड़, मारवाड़, और जयपुर के राणाओं ने मुगल सिंहासन के अभिकर्ताओं के विरुद्ध लगातार विद्रोह किया और दोनों पक्षों के बीच घमासान युद्ध हुए।

वास्तुकला की दृष्टि से मुगल काल में बड़े पैमाने पर विकास हुए। सबसे बड़े सांस्कृतिक परिवर्तनों में से एक था, वास्तुकला में समन्वयात्मक विषयवस्तु का विकास। नसीरुद्दीन मुहम्मद, जिसे हुमायूँ के नाम से जाना जाता है, बाबर का उत्तराधिकारी था। वह फ़ारसी परंपरा से प्रभावित था और उसने भारत में वास्तुकला की नई विशेषताओं को प्रस्तुत किया। इमारत के विन्यास में, सफ़ेद संगमरमर के गुंबद के साथ, लाल बलुआ पत्थर का एक चौकोर आधार सम्मिलित किया गया। हालाँकि यह प्रसिद्ध शासक अकबर के अधीन ही था, जब फ़ारसी परंपराओं और गुजरात और राजस्थान की स्वदेशी भारतीय विशेषताओं का सम्मिश्रण हुआ। अकबर के बुलंद दरवाज़े में, गुजरात की जीत का जश्न मनाने के लिए, नवीन अर्ध गुंबद तकनीक का उपयोग किया गया। सपाट छतें, जो पहली बार लोदियों के शासन में देखी गईं थीं, अब प्रचलित हो गईं थीं। 16वीं शताब्दी में बने अकबर के आगरा के किले में सपाट छतें हैं। 16वीं शताब्दी के इतिहासकार, अबुल फ़जल ने इसे "बंगाली और गुजराती शैली" से प्रेरित होने का उल्लेख किया है। 17वीं शताब्दी में, शाहजहाँ ने आगरा किले के पैटर्न पर आधारित दिल्ली में लाल किले का निर्माण करवाया। इस परिसर में दीवान-ए-आम की छत भी सपाट है।

 

16वीं शताब्दी में तोपों के उपयोग की शुरूआत के कारण किलों की वास्तुकला में भी बदलाव लाने पड़े। किले अब निचली और मोटी दीवारों के साथ बनने लगे तथा उनके बुर्ज किले की परिधि से बाहर की ओर बनाए जाने लगे। जबकि मोटी दीवारें गोलियों से बचाव करती थीं, बुर्ज, सुरक्षा एवं बचाव की रणनीति में मदद करते थे। गोलकुंडा और बेरार किलों से अनुमान लगाया जा सकता है कि गढ़ और बाहरी दीवारों के बीच और अधिक जगह छोड़ी जाती थी। हाथियों के गुजरने के लिए द्वारों को ऊँचा बनाया गया और साथ ही दुश्मन के हाथियों को द्वार तोड़ने से रोकने के लिए कीलों की पंक्तियों का उपयोग किया गया था। यह 18वीं शताब्दी में बने, पुणे के शनिवारवाड़ा किले में देखा जा सकता है। इसके अतिरिक्त, समरूपता पर जोर दिया गया और मुगलों के अधीन इसे बहुत अधिक महत्व दिया गया। पूर्व शासकों के किलों में क्षेत्र की प्राकृतिक स्थलाकृति और ढलान के अनुसार दीवारें खड़ी की जाती थीं। स्वदेशी और तुर्क-ईरानी तकनीकों का संयोजन 18वीं और 19वीं शताब्दी तक क़ायम रहा।

16वीं और 17वीं शताब्दी में औपनिवेशिक शक्तियों के आने के साथ ही किलों को व्यवसायिक उद्देश्यों के लिए व्यापार चौकियों के रूप में भी बनाया जाने लगा। वे घेराबंदी और विद्रोह के दौरान लोगों के लिए शरण स्थान के रूप में भी कार्य करते थे।