आमेर किला, जयपुर
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भारत एक बहुआयामी देश है, और इसके किले और स्मारक गर्व तथा सम्मान के स्रोत हैं, क्योंकि वे एक बीते हुए युग की वास्तुकला और जीवन शैली को दर्शाते हैं। क़िले की वास्तुकला के पीछे की दूरदर्शिता भारत के विशाल, समृद्ध और विविध सांस्कृतिक इतिहास को प्रस्तुत करने में एक महान योगदान देती है।
भारत में, राजस्थान के क़िलों को बेहतरीन वास्तुकला के लिए जाना जाता है। युद्धों की पूर्वव्यस्तता के बावजूद, राजपूत, कला और वास्तुकला के महान संरक्षक थे। उनके द्वारा बनाए गए कई क़िलों में से एक, आमेर किला सबसे शानदार है। यह किला अरावली पर्वतमाला पर स्थित है, जो किले की बाहरी संरचना के लिए सुरक्षा कवच का कार्य करती है। वनाच्छादित पहाड़ी क्षेत्र (चील का टीला - चीलों की पहाड़ी) पर स्थित, इसे आमेर का किला भी कहा जाता है। यह गिरी पार्श्व दुर्ग शैली का प्रतीक है। इस अद्वितीय वास्तुकलात्मक शैली में, किलेबंदी और नागरिक संरचनाएँ केवल एक पहाड़ी के शिखर तक ही सीमित नहीं होती हैं, बल्कि यह ढलान से लेकर नीचे तक फैली होती हैं। इसके अतिरिक्त, ऐसे किलों के बाह्य भाग कठोर और आंतरिक भाग लुभावने होते हैं।
आमेर का क़िला कछवाहा राजपूतों द्वारा बनाया गया था और जयपुर से पहले यह उनकी शासन पीठ के रूप में कार्य करता था। 11वीं शताब्दी में शुरू हुई इस संरचना को पूरा करने में करीब 100 साल लगे। कछवाहा वंश के शासकों में, मान सिंह प्रथम, मिर्ज़ा राजा जयसिंह प्रथम और सवाई जयसिंह द्वितीय, वास्तुकला संबंधित विशिष्ट योग्यता से संपन्न थे। यह क़िले की शानदार रूप रेखा में परिलक्षित होती है। आमेर क़िले की वास्तुकला को कला और प्रकृति के उत्तम सम्मिश्रण के रूप में अभिव्यक्त किया जा सकता है। इसकी क़िलेबंदी संबंधी संरचनाएँ और अंदर के महल लाल बलुआ पत्थर और सफेद संगमरमर से बने थे। कीमती पत्थर, शीशे और जटिल नक्काशी का उपयोग भी सामंजस्यपूर्ण रूप से इस मजबूत संरचना में मिश्रित किया गया था।
आमेर के शासक तथा कला और वास्तुकला के संरक्षक, बाएं से- जय सिंह द्वितीय, मान सिंह प्रथम, जय सिंह प्रथम
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आमेर क़िले का इतिहास लड़ाइयों से भरा पड़ा है। वर्तमान में क़िले के अंदर रखी तोपों ने घेराबंदी के दौरान इसकी सुरक्षा की थी। इन घेराबंदियों में, ‘आमेर का समामेलन' निर्णायक माना जाता है। यह लड़ाई 10 नवंबर 1708 को शुरू हुई, जब मुगल सम्राट बहादुर शाह ने आमेर के लिए अपनी कूच शुरू की थी। उसने महाराजा जय सिंह को अपदस्थ किया और उनके भाई, विजय सिंह, को आमेर का कार्यवाहक राज्यपाल बना दिया। इसके बाद आमेर पर राजपूतों का स्वतंत्र राज्य समाप्त हो गया।
क़िले के अंदर प्रदर्शित तोपें
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राजपूत क़िलों और महलों की बहुत ही जटिल संरचना होती है। आमेर क़िले की वास्तुकला स्वदेशी और मुगल, दोनों, शैलियों का एक सुंदर समिश्रण है। क़िले के प्रांगण के अंदर महाराजा मान सिंह के महल का निर्माण स्वदेशी शैली में किया गया था, जबकि बाद में मिर्ज़ा राजा जय सिंह प्रथम और सवाई जय सिंह द्वितीय द्वारा किए गए परिवर्धन अरबी प्रभाव को प्रदर्शित करते हैं। इसका कारण राजपूतों और मुगलों के बीच बढ़ते संबंध और सांस्कृतिक आदान-प्रदान था। महलों और अन्य सार्वजनिक इमारतों की वास्तुकला मुगल प्रभाव दर्शाती हैं, जबकि यहाँ के मंदिर वास्तुकला की स्वदेशी उत्तर भारतीय शैली से मुख्यतः प्रभावित थे।
आमेर का किला माओटा नामक कृत्रिम रूप से निर्मित झील, के ऊपर स्थित है। इस झील ने एक रक्षात्मक तटबंध के रूप में भी कार्य किया, क्योंकि किले की विशाल दीवारों तक पहुँचने से पहले इसे पार करने की आवश्यकता होती थी। झील के पानी में किले की सुंदर छवि झलकती है। इस झील के केंद्र में केसर क्यारी बाग नामक एक द्वीप है। माना जाता है कि इस द्वीप में 15वीं शताब्दी में बना एक केसरिया उद्यान भी है। यह भी माना जाता है कि झील संभवतः किले के निवासियों के लिए पानी का मुख्य स्रोत थी।
माओटा झील चित्र स्रोत- विकिमीडिया कॉमन्स
कई द्वारों से सुदृढ़, किले में दो महत्वपूर्ण प्रवेशद्वार थे - एक सूरज पोल जो दलराम के बगीचे से था - और दूसरा चांद पोल जो शहर की तरफ़ से था। महल का निचला चबूतरा जलेब चौक नामक एक विशाल प्रांगण से घिरा हुआ था, जो शाही सेना द्वारा परेड के लिए उपयोग किया जाता था। चौक के चरों ओर इमारतों के भवन समूह बने थे। सिंह पोल और गणेश पोल किले के अन्य दो महत्वपूर्ण प्रवेश द्वार थे। दो प्रवेशद्वारों वाले सिंह पोल से शाही महलों तक पहुँचा जा सकता था। यह द्वार दीवान-ए-आम में खुलता था। गणेश पोल, जिसे महल का सबसे अलंकृत प्रवेश द्वार कहा जाता है, दीवान-ए-आम के दक्षिणी ओर स्थित है। राजा सवाई जय सिंह द्वितीय द्वारा निर्मित, इस प्रवेश द्वार से आंतरिक प्रांगण तथा राजाओं के प्रमुख महलों तक पहुँचा जा सकता था। प्रवेश द्वार के शीर्ष पर सुहाग मंदिर नामक मंडप स्थापित है, जिसकी खिड़कियाँ शाही महिलाओं द्वारा दीवान-ए-आम में आयोजित अनुष्ठानिक समारोहों को देखने के लिए उपयोग की जाती थीं।
सिंह पोल चित्र स्रोत- विकिमीडिया कॉमन्स
गणेश पोल चित्र स्रोत- विकिमीडिया कॉमन्स
दीवान-ए-आम (सार्वजनिक दर्शन सभागृह) मिर्ज़ा राजा जय सिंह द्वारा बनवाया गया था और यह प्रांगण के उत्तर-पूर्व हिस्से में स्थित था। इस सभागृह का उपयोग राजा द्वारा जनसाधारण की समस्याएँ सुनने और सार्वजनिक बैठकों तथा उत्सव समारोहों के आयोजन के लिए भी किया जाता था। दीवान-ए-ख़ास अथवा निजी दर्शन सभागृह विशेष रूप से शाही परिवार और सामंतों द्वारा उपयोग किया जाता था। शीश महल और जस मंदिर दीवान-ए-ख़ास के उल्लेखनीय हिस्से थे।
दीवान-ए-आम चित्र स्रोत- विकिमीडिया कॉमन्स
शीश महल चित्र स्रोत- ए.एस.आई.
किले की एक और महत्वपूर्ण संरचना है मान सिंह का महल, जहाँ दीवान-ए-ख़ास के चबूतरे से पहुँचा जा सकता था। राजा मान सिंह के महल से जुड़ा जनाना महल किले के अंदर बना सबसे बड़ा भवन था। मान सिंह द्वारा बनवाए गए इस महल में एक बड़ा प्रांगण था जिसके चरों ओर इमारतों का एक मंजिला भवन समूह था, जिसमें निवास कक्ष और दालान थे और यह राजा की रानियों तथा सहचरियों के साथ-साथ उनकी दासियों के निवास-गृह के रूप में उपयोग किए जाते थे।
मान सिंह के जनाना महल का प्रांगण चित्र स्रोत- विकिमीडिया कॉमन्स
आमेर किले के उत्तर-पूर्व में स्थित जयगढ़ किला, एक और प्रमुख संरचना है। वास्तव में, आमेर किले का इस किले के साथ एक चित्ताकर्षक संबंध है। दोनों संरचनाएँ, ज़नाना महल के पीछे स्थित, दो किलोमीटर लंबी गुप्त सुरंग से जुड़ी हुई थीं। आमेर क़िले पर हमला होने की स्थिति में शाही परिवार इस सुरंग के रास्ते जयगढ़ क़िले में सुरक्षित पहुँच सकता था। यह भी कहा जाता है कि इसी गुप्त सुरंग का उपयोग, शासकों के खजाने को गुप्त कक्षों तक ले जाने के लिए किया जाता था, जो जयगढ़ क़िले में एक बड़ी पानी की टंकी के नीचे बनाए गए थे। ऐसा माना जाता है कि यह पानी की टंकी 60 लाख गैलन पानी का भंडारण कर सकती थी। किंवदंतियाँ कहती हैं कि सफल अभियान के बाद, महाराजा मान सिंह इस पानी की टंकी के नीचे अपना ख़जाना छिपाने वाले अंतिम शासक थे।
आमेर क़िले में गुप्त सुरंग चित्र स्रोत- विकिमीडिया कॉमन्स
किला परिसर में कई मंदिर भी हैं। उनमें से सबसे महत्वपूर्ण शिला देवी का मंदिर है जिसे काली मंदिर भी कहा जाता है। यह देवी काली की अवतार, शिला देवी, को समर्पित था। मंदिर की उत्पत्ति की कहानी किंवदंतियों और लोक कथाओं से भरी है। ऐसा माना जाता है कि 1604 में बंगाल की लड़ाई पर जाने से पहले, महाराजा मान सिंह ने बंगाल में येशोर के राजा को हराने के लिए देवी काली से आशीर्वाद माँगा था। ऐसा कहा जाता है कि देवी सपने में राजा के सामने प्रकट हुईं और उन्होंने राजा को समुद्र से उनकी मूर्ति को पुनः प्राप्त करने और एक मंदिर में स्थापित करने का निर्देश दिया। किंवदंतियों के अनुसार, इस प्रकार मंदिर की स्थापना हुई थी। इस मंदिर के निर्माण के बारे में एक और कथानक यह है कि मंदिर के मुख्य देवता को तराशने के लिए जिस पत्थर का उपयोग किया गया था, वह मान सिंह को बंगाल की लड़ाई में उनकी जीत के अवसर पर एक भेंट के रूप में दिया गया था। मंदिर में विराजमान देवी को आमेर शहर का रक्षक माना जाता है और उन्हें प्रतिवर्ष बकरे या भैंस की बलि चढ़ाकर सम्मानित किया जाता है।
शिला देवी का मंदिर चित्र स्रोत- विकिमीडिया कॉमन्स
किले में जगत शिरोमणि जी का वैष्णव मंदिर भी है जो किले की पहाड़ी की उत्तर-पश्चिम दिशा की तराई में स्थित है। इसका निर्माण रानी श्रृंगार्दे कनक्वति द्वारा अपने पुत्र, कुंवर जगत सिंह, की याद में कराया गया था, जो मान सिंह के सबसे बड़े पुत्र थे। मिर्ज़ा राजा जय सिंह प्रथम (1645) की माता, रानी शिशोदिनी द्वारा नरसिंह जी का भी मंदिर बनवाया गया था।
आमेर का किला कछवाहा वंश के गौरव और विरासत को प्रदर्शित करता है, जो एक शाताब्दी से भी अधिक तक बना रहा। इस स्मारक की शानदार वास्तुकला आज तक अद्वितीय है। यह किला कछवाहा राजपूतों के गौरव का एक भव्य स्मारक है और इसे यूनेस्को के विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता प्राप्त है।
ह महल जो आकाश की बुलंदीयों को छूता था,
जिसकी दहलीज पर राजाओं की नज़रें बिछी रहती थीं,
जिसके परकोटे पर अब बैठे कबूतर चीख़ते हैं,
'वह सारा वैभव कहाँ है, और कहाँ गए वे सब
जिन्होंने इसे बनाया था ?'
- उमर खय्याम
जयपुर एंड अम्बेर - बी.एल. धामा द्वारा