वर्तमान कर्नाटक में स्थित, बीदर किला, एक गरिमामय तथा भव्य संरचना है। दुर्भाग्य से इस विशाल किले की उत्पत्ति का इतिहास खो गया है। फिर भी, व्यापक रूप से माना जाता है कि यह प्रायद्वीपीय भारत में बहमनी राजवंश की स्थापना के तुरंत बाद बनाया गया था। दिल्ली सल्तनत के तहत कार्यरत सेनापति ज़फ़र खान ने मुहम्मद-बिन-तुगलक के विरुद्ध सफलतापूर्वक विद्रोह किया और 15वीं शताब्दी की शुरुआत में अपनी राजधानी गुलबर्गा से बीदर स्थानांतरित कर दी।
इसके बाद, उसने स्वयं को अलाउद्दीन हसन बहमन शाह कहना शुरू कर दिया, एक स्वतंत्र 'बहमनी राजवंश' की स्थापना की, और एक पहाड़ी पर इसे किले का निर्माण किया। बहमनी सल्तनत, जैसा कि इसे कहा जाता है, दक्कन में पहला, फ़ारसी संस्कृति से प्रेरित, भारतीय-इस्लामी राज्य था। वास्तुकला के क्षेत्र में इसके अद्वितीय योगदान को बीदर किले के अलावा गुलबर्गा किले, गुलबर्गा की जामा मस्जिद और बीदर के मदरसे में भी देखा जा सकता है। वर्तमान में कर्नाटक, यूनेस्को से, बीदर किले सहित कुछ अन्य स्मारकों के लिए विश्व धरोहर स्थलों के दर्ज़े की माँग कर रहा है।
ऐसा माना जाता है कि अफानसी निकितिन नामक एक रूसी मूल का प्रसिद्ध विदेशी यात्री, 15वीं शताब्दी में बहमनी राज्य का भ्रमण करने के लिए आया था। अनेक आधुनिक काल के इतिहासकार उसकी प्रसिद्ध कृति- द जर्नी बियॉन्ड थ्री सीज़, का उपयोग इस अवधि के अध्ययन के लिए करते हैं। फ़िरिश्ता (उर्दू में फ़रिश्ता भी लिखा जाता है) का कार्य इस अवधि और क्षेत्र के लिए एक अन्य स्रोत है। यह लेखक फ़ारसी मूल का था और 16वीं शताब्दी में दक्कन सल्तनत के लिए दरबारी इतिहासकार के रूप में कार्य करता था।
बीदर किला दक्कन पठार के उत्तर-पूर्वी किनारे पर स्थित है और मुख्यतः लाल मखराला (लेटराइट) पत्थर से बनाया गया है। ऐसा कहा जाता है कि यह पत्थर किले के आस पास से ही लिया गया था। किले के दक्षिण और पश्चिम में अद्वितीय तीन नालों वाली खाई खोदी गई थी और इस खुदाई में निकले पत्थरों का किले के निर्माण में उपयोग किया गया था। उत्तर और पूर्व की ओर खड़ी चट्टानें किले को प्राकृतिक सुरक्षा प्रदान करती थी। यह खाई किले की बाहरी दीवारों के चरों ओर बनी थी और किले की सुरक्षा हेतु एक दुर्जेय रेखा के सामान थी।
किले में प्रवेश के लिए सात बड़े मेहराबदार द्वार बनाए गए थे। सम्मुख दिशा के आधार पर इन्हें मांडू दरवाजा, कलामदगी दरवाजा, दिल्ली दरवाजा, कल्याणी दरवाजा, कर्नाटक दरवाजा, इत्यादि, कहा जाता था। इन द्वारों के अलावा किले के अंदर जाने का कोई अन्य मार्ग नहीं था। 14-15वीं शताब्दी तक बारूद तकनीक दक्कन राज्यों में नहीं पहुँची थी। वास्तुकारों ने किले की दीवारों के निर्माण हेतु पत्थर और गारे का उपयोग किया था।
किला अपने 37 बुर्जों के लिए प्रसिद्ध है, जो दीवार के साथ अष्टकोण आकार में बनाए गए थे। ये झाली गई (वेल्ड की गई) धातु से निर्मित तोपों से लैस थे जो धातु के कुंडों की मदद से रखी जाती थीं। मुंडा बुर्ज सबसे सामरिक रूप से बनाया गया था और इसलिए दुश्मनों से बचाव के लिए सबसे भारी तोपें यहाँ रखी जाती थीं।
बाहरी किलेबंदी और तिहरी खाई के बाद, किले के अंदर सुंदर महल और मस्जिद थे। अहमद शाह के शासन में मदरसों और उद्यानों को भी सम्मिलित किया गया। रंगीन महल में अनेक रंगीन टाइलों का उपयोग किया गया है और इसमें जटिल सजावट की गई है, जिससे इसका नाम, "रंगीन महल", रखा गया। यह महमूद शाह द्वारा 1487 ई. में विशेष रूप से रानी के लिए बनवाया गया था। इसका प्रवेश द्वार गाढ़े काले रंग के असिताश्म (बेसाल्ट) पत्थर पर मोती के सीप की जड़ाई के काम को दर्शाता है। इस दो मंजिले महल में नक्काशीदार लकड़ी के खंभे और छत पर जड़ाई का कार्य भी है। यहाँ एक विशेष शीतलन तंत्र स्थापित किया गया था। महल, केंद्र में एक हौज़ और साथ में जलवाहिकाओं और फव्वारों द्वारा सजाया गया था। इसके अतिरिक्त, महल के कमरों को सूर्य की गर्मी से बचाने के लिए भूमिगत बनाया गया था।
गगन महल 14वीं-15वीं शताब्दी में बनाया गया था और इसे "मज़बूती और सुंदरता का संयोजन" कहा जाता है। इस महल में दो प्रांगण थे। बाहरी प्रांगण महल के पहरेदारों सहित पुरुष कर्मचारियों के लिए था और आंतरिक प्रांगण महल की महिलाओं द्वारा उपयोग किया जाता था। सुल्तान मुख्य भवन का उपयोग करता था जो आंतरिक प्रांगण के ठीक दक्षिण में बनाया गया था। इन प्रांगणों में कई कमरे बने थे तथा इनके प्रवेश द्वार मेहराबदार थे। महीन पलस्तर और रंगीन टाइलों से युक्त, वे वास्तुकला के फ़ारसी रूप की एक और विशेषता दर्शाते थे। बहमनी वंश के बाद आने वाले बारिद शाही शासकों ने इस संरचना की पहली मंजिल में महत्वपूर्ण परिवर्तन किए। हालाँकि, भूतल अपने मूल रूप में ही बना रहा।
“सिंहासन कक्ष” अथवा तख्त महल, जामी मस्जिद अथवा "बड़ी मस्जिद" और सोलह खम्भा मस्जिद जो कि "सोलह-स्तंभ" वाली मस्जिद है, इस किले परिसर की कुछ अन्य उल्लेखनीय संरचनाएँ हैं। सोलह खम्भा मस्जिद भारत की सबसे बड़ी मस्जिदों और बीदर की सबसे पुरानी इस्लामी इमारतों में से एक है। इसे 1432 में बनाया गया था और 1656 में औरंगज़ेब द्वारा इसका जीर्णोद्धार किया गया था। यह संरचना वास्तुकला की दक्कन शैली का एक अच्छा उदाहरण है जिसमें स्वदेशी और फ़ारसी शैलियों का संश्लेषण किया गया है। यह उद्यान के बीच में बनाई गई है, इसमें एक विशाल प्रार्थना सभागृह है तथा इसके शिखर पर बड़ा गुंबद है। मस्जिद को ठंडा रखने और प्रक्षालन, पीने, इत्यादि, के लिए पानी उपलब्ध कराने हेतु अद्वितीय जल प्रणाली का उपयोग किया गया था। इसकी छत पर बने जलाशय में पानी एकत्रित किया जाता था और फ़िर इसे भूतल की हौज़ों में लाया जाता था।
हालाँकि, फ़ारसी बहमनी शासकों का अद्वितीय योगदान उनके द्वारा बनाई गई ऐतिहासिक जल आपूर्ति प्रणाली थी जिसे करेज़ अथवा क़नात प्रणाली कहा जाता था। यह प्राचीन प्रणाली मूल रूप से ईरान में विकसित की गई थी और और इसमें सिंचाई, पीने, धोने और अन्य उद्देश्यों हेतु सतह तक पानी लाने के लिए पानी के कुएँ से जुड़ी हल्की ढलान वाली भूमिगत जलवाहिका होती है। जलवाहिकाओं का भूमिगत नेटवर्क सतह पर ऊर्ध्वाधर शाफ्ट द्वारा जुड़ा हुआ था तथा इस प्रकार भू-जल संसाधन का उपयोग किया जाता था। इस प्रणाली से उस क्षेत्र में पानी की आपूर्ति में मदद मिलती थी जो अन्यथा चट्टानी भूमि के कारण शुष्क रहता था। करेज़ के सत्रह ऊर्ध्वाधर शाफ्ट आज भी बीदर में दिखाई देते हैं।
इस किले के परिसर में तीस से अधिक स्मारक थे जो दक्कन में नई अग्रणी वास्तुकला शैलियों को प्रदर्शित करते थे। दिलचस्प बात यह है कि किले में एक तुर्की स्नानागार भी बनाया गया था जिसे हमाम कहा जाता था। अब यह संग्रहालय में बदल दिया गया है। जैसा कि प्रायः महलों और किलों में होता है, इस विशाल किले में दीवान-ए-आम और एक दीवान-ए-ख़ास भी बनाया गया था। आम लोगों के लिए बना सार्वजनिक सभागृह, अथवा दीवान-ए-आम में ऊँची दीवारें थीं और इसे केंद्रीय मस्जिद के पास बनाया गया था। इसमें प्रदर्शित जटिल जाली के कार्य के कारण इसे जाली महल के नाम से भी जाना जाता था।
17वीं शताब्दी के मध्य में मुगल शासक औरंगज़ेब ने बीदर पर कब्जा कर लिया और इसे मुगल साम्राज्य में मिला लिया। उसने किले में परिवर्धन भी किए। 1724 में, बीदर पर आसफ़ जाही शासकों का शासन स्थापित हो गया और किले की कमान 1726 ई. तक सलाबत जंग ने संभाली थी। 20वीं शताब्दी के मध्य में, हैदराबाद राज्य का विभाजन हुआ था और बीदर किला मैसूर का हिस्सा बन गया, जिसे अब नवगठित राज्य कर्नाटक कहा जाता है।