हिमाचल प्रदेश राज्य में काँगड़ा के बाहरी इलाके में स्थित काँगड़ा किला अपने शासकों की भव्यता और समृद्धि और कई आक्रमणों का साक्षी है। यह भारत का सबसे पुराना किला है और कटोच राजवंश की राजगद्दी रहा है, जिसे भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे पुराने राजवंशों में से एक माना जाता है। यह माँझी और बाणगंगा नदियों के बीच धौलाधर पर्वत श्रृंखला की गोद में एक चट्टान पर खड़ा है। चूँकि यह किला आक्रमणकारियों और प्रकृति के कहर से गुजरा है, इसलिए वर्तमान में यह अपने मूल रूप में मौजूद नहीं है। इसका तह-दर-तह इतिहास, इसकी राजनीतिक विरासत, सामरिक स्थिति और वास्तुकला, प्राचीन भारत के गौरव की एक झलक प्रदान करते हैं।
काँगड़ा किले का दृश्य, चित्र स्रोत: भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण
कई किंवदंतियाँ और मिथक काँगड़ा किले की उत्पत्ति की व्याख्या करने का प्रयास करते हैं। किले और कटोच राजवंश का इतिहास आंतरिक रूप से एक दूसरे से जुड़ा हुआ है। मार्कंडेय पुराण में वर्णित रक्तबीज वध की पौराणिक घटना से इस वंश की जड़ों का पता लगाया जा सकता है। किंवदंती के अनुसार, देवी अंबिका ने राक्षस रक्तबीज से लड़ाई की, जिसमें युद्ध के दौरान पृथ्वी पर गिरने वाले उसके रक्त की हर बूंद से वह फिर से जीवित हो उठता था। युद्ध के दौरान, अंबिका द्वारा अपना पसीना पोंछते वक़्त एक बूंद पृथ्वी पर गिर गई, जिसके बारे में कहा जाता है कि इसने पहले कटोच, भूमि चंद, को उत्पन्न किया था। ऐसा माना जाता है कि भूमि चंद ने राक्षस को हराने में देवी की सहायता की थी। इसके पुरस्कार स्वरूप, देवी ने भूमि चंद को ‘त्रिगर्त’ राज्य प्रदान दिया, जो तीन नदियों - रावी, ब्यास और सतलज - की भूमि का द्योतक है। काँगड़ा इसी क्षेत्र का हिस्सा है। कटोच वंश का उल्लेख महाकाव्यों, रामायण और महाभारत, में भी मिलता है। स्थानीय किंवदंतियों ने काँगड़ा किले के निर्माण का श्रेय राजनका सुशर्मा चंद को दिया है। ऐसा कहा जाता है कि कौरवों के सहयोगी के रूप में महाभारत की लड़ाई में पराजित होने के बाद, वे दो नदियों के संगम के एकांत स्थान पर चले गए थे।
भारतीय पुरातत्व के अग्रणी, सर ए. कनिंघम के अनुसार, उस समय में जालंधर के नाम से प्रसिद्ध, काँगड़ा, का पहला अभिलिखित ऐतिहासिक संदर्भ, टॉलेमी की पुस्तक में मिलता है। यह अभिलेख, कटोच राजा परमानंद चंद को उन प्रसिद्ध राजा पोरस के तौर पर दर्शाता है जिन्होंने सिकंदर महान को हराया था। शब्द व्युत्पत्ति के अनुसार, ऐसा माना जाता है कि काँगड़ा कर्ण गढ़ शब्द से लिया गया है जिसका एक दिलचस्प इतिहास है। प्राचीन काल में, जालंधर एक विशाल क्षेत्र में फैला हुआ था जिसका नाम जालंधर नामक एक राक्षस के नाम पर रखा गया था, जिसके बारे में माना जाता है कि उसे भगवान शिव ने मार दिया था और उसे जमीन के नीचे गाड़ दिया गया था। चूंकि राजा सुशर्मा चंद (महाभारत की किंवदंती में वर्णित) ने जालंधर के कान (संस्कृत में कर्ण) को घेरने वाले क्षेत्र पर किले का निर्माण किया था, तो इसे कर्ण गढ़ के रूप में जाना जाने लगा, जो बाद में, हिंदी में कान गढ़ और फिर काँगड़ा में बदल गया।
काँगड़ा किले का दृश्य, चित्र स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स
एक लोकप्रिय पहाड़ी कहावत कहती है, "वह, जो काँगड़ा के किला को नियंत्रित करता है, वह पहाड़ियों को भी नियंत्रित करता है"। ऐश्वर्य और सुरक्षा के संसर्ग से प्रभावित होकर, कई राजनीतिक राजवंशों जैसे यूनानी, कश्मीर के राजा, अफगान, तुगलक, तैमूर शासक, मुगल, गोरखा, सिख और अंग्रेजों ने काँगड़ा किले को अपने नियंत्रण में लाने की कोशिश की। आज भी, इस राजसी संरचना पर एक नज़र डालने से ही सदियों से चले आ रहे इसके रणनीतिक महत्व और ऐतिहासिक विकास को समझा जा सकता है। अतीत के महान राजाओं को चकित कर देने वाला मजबूत किला, अब एक दिलचस्प सुरम्य खंडहर है। ऐसा माना जाता है कि हिंदू शासक और धनवान भक्त किले परिसर के अंदर स्थित बृजेश्वरी मंदिर की पीठासीन देवी को भेंट करने के लिए सोना, चांदी, कीमती पत्थर और बड़े गहने भेजते थे। ऐसा माना जाता था कि ऐसा करने से पुण्य कर्म की वृद्धि होती है। समय के साथ, यह धन गुप्त खजाने के कुओं में जमा होने लगा। किले के खजाने में रखे धन की मात्रा अपरिमित बताई जाती है। ऐसा माना जाता है कि किले के आसपास 21 गुप्त खजाने के कुएँ थे, जिनमें से प्रत्येक कुआँ लगभग 4 मीटर गहरा और 2.5 मीटर चौड़ा था। फ़रिश्ता, (तारिख-ए फ़रिश्ता, 1612 ईस्वी), संचित धन का वर्णन "7,00,000 स्वर्ण दिनार" के रूप में करता है; जिसमें 700 मन सोने और चांदी की थालियाँ; सिल्लियों में 200 मन शुद्ध सोना; 2000 मन चांदी की ईंटें और 20 मन विभिन्न रत्न, जैसे कि मूंगा, मोती, हीरे, माणिक, और अन्य मूल्यवान सम्पत्तियाँ सम्मिलित हैं।
काँगड़ा किले की किलेबंदी, चित्र स्रोत: भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण
काँगड़ा किले के विशाल खजाने की कहानियाँ दूर-दूर तक फैली और आक्रमणकारियों को आकर्षित किया। इस प्रकार देशी और विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा, समान रूप से, घेराबंदी और लूट की गाथा शुरू हुई। 470 ईस्वी में, कश्मीर के राजा श्रेष्ठ सेन ने काँगड़ा पर आक्रमण किया लेकिन कटोचों ने किले का सफलतापूर्वक बचाव किया। यह काँगड़ा के किले पर पहला बड़ा हमला था और इसके बाद कई आक्रमण हुए। किले की सबसे प्रसिद्ध घेराबंदियों में से एक, हालांकि, 1009 ईस्वी में हुई थी, जब गजनी के महमूद ने किले पर हमला किया था। कहा जाता है कि उसने किले के 21 खजाने के कुओं में से 8 को लूट लिया था। अल-उतबी ने अपने काम तारिखी-ए-यामिनी (1021 ईस्वी) में घेराबंदी का विवरण दर्ज किया है। उन्होंने उल्लेख किया है कि, "राशि इतनी बड़ी थी कि इसे ऊँटों की पीठ पर लादकर नहीं ले जाया जा सकता था, न ही जहाजों में इसे भरा जा सकता था, न ही लेखक के हाथ ही इसे दर्ज कर पाए, न ही कोई गणितज्ञ इसकी कल्पना कर पाया।"
मुहम्मद-बिन-तुगलक ने 1337 ईस्वी में किले को लूटा, परंतु वह देर तक अपने नियंत्रण में नहीं रख पाया। 1351 ईस्वी में, राजनका रूप चंद कटोच के शासनकाल के दौरान फिरोज़ शाह तुगलक द्वारा किले पर फिर से हमला किया गया। बिना किसी पक्ष की जीत के वहाँ महीनों तक घेराबंदी चली। सन 1540 ईस्वी में शेरशाह सूरी के सेनापति खवास खान ने काँगड़ा किले पर विजय प्राप्त की। शांति बनाए रखने के लिए एक संधि पर हस्ताक्षर किए गए। सूर वंश के पतन के बाद, काँगड़ा ने मुगलों का ध्यान आकर्षित किया। माना जाता है कि मुगल सम्राट अकबर ने किले की लगभग 52 बार असफल घेराबंदी करने का प्रयास किया था। अंत में, 1620 ईस्वी में, 14 महीनों की घेराबंदी के बाद किले पर अकबर के बेटे जहाँगीर ने सफलतापूर्वक कब्जा कर लिया। कटोच राजा, राजा हरि चंद की हत्या कर दी गई और काँगड़ा राज्य को लगभग डेढ़ सदी के लिए मुगल साम्राज्य में मिला लिया गया।
राजनका सुशर्मा चंद कटोच नाम का एक नाबालिग लड़का, 1775 ईस्वी में काँगड़ा की गद्दी पर बैठा। उसने कटोच राजवंश के स्वर्ण युग की शुरुआत की। उसने जय सिंह कन्हेया की सिख सेना की मदद से काँगड़ा किले पर फिर से कब्जा कर लिया। उसके बदले में, उसे कन्हेया को अपने कुछ क्षेत्र देने पड़े। संसार चंद ने "छत्रपति नरेश" और "पहाड़ी बादशाह" की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने स्थानीय संस्कृति और परंपरा को नया जीवन दिया। अपने 20 वर्षों के शासनकाल के दौरान, उन्होंने नए मंदिरों, गाँवों, किलों, महलों और उद्यानों के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया। वे दुनिया भर के कारीगरों, चित्रकारों, संगीतकारों, नर्तकों, शिल्पकारों, जौहरियों, तलवार निर्माताओं और तोप निर्माताओं को भी काम करने के लिए काँगड़ा ले आए। उन्होंने "काँगड़ा लघुचित्र शैली" की स्थापना की, और उनके संरक्षण में, लगभग 40,000 चित्रों का निर्माण किया गया।
संसार चंद ने धीरे-धीरे अपने राज्य के आसपास के सभी क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया, जिसमें चंबा, कहलूर, मंडी और सिरमौर शामिल थे। उसने किले की रक्षा के लिए एक बड़ी सेना तैयार की और मैदानी इलाकों को जीतने और कटोच साम्राज्य को उसके पूर्व गौरव तक पहुँचाने के लिए बहुत अधिक मात्रा में धन जमा किया। पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह ने अपने मैदानी इलाकों पर हुए आक्रमण का सफलतापूर्वक प्रतिरोध किया। दुर्भाग्यवश, संसार चंद की महत्वाकांक्षाओं के कारण अंततः काँगड़ा में गौरवशाली कटोच शासन का पतन हो गया। 19वीं शताब्दी की शुरुआत में, काँगड़ा के किले को गोरखाओं और स्थानीय शासकों की एक संयुक्त सेना ने घेर लिया। संसार चंद ने पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह से सहायता मांगी। 1809 ईस्वी में रणजीत सिंह के जोरदार हमले ने गोरखाओं को उखाड़ फेंका। 24 अगस्त 1809 ईस्वी को हुई एक संधि के परिणामस्वरूप काँगड़ा का किला सिखों के हाथों में चला गया। 1846 ईस्वी के सिख युद्ध के बाद, अंग्रेजों ने अंततः किले पर कब्जा कर लिया। माना जाता है कि उन्होंने किले के 5 मौजूदा खजाने के कुओं को लूट लिया था। 4 अप्रैल, 1905 को भूकंप से गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त होने तक किले पर अंग्रेज़ी सेना का कब्जा बना रहा। विनाशकारी भूकंप के बाद, अंग्रेजों ने किले को खाली कर दिया और इसे कटोच राजाओं को सौंप दिया।
संसार चंद (1765 - 1823)
पहाड़ी पर स्थित दुर्जेय काँगड़ा किला, लगभग 4 किमी के क्षेत्र में फैला हुआ है और उच्च प्राचीरों और एक विशाल दीवार द्वारा संरक्षित है। किला के खड़ी चट्टान पर निर्मित होने के कारण, इसे आसपास की घाटी में एक प्रधान स्थान प्राप्त है। किले की मुंडेरों को पहाड़ी की ढलान के साथ बनाया गया है, ताकि रक्षा की कई परतें प्रदान की जा सकें। इन पर पास-पास ठोस, सीधे खंड बने हैं जिनके बीच में आयताकार अंतराल हैं। चट्टानों में कटी एक खाई, जो बाणगंगा और माँझी नदियों को जोड़ती है, किले को बाहरी दुनिया से अलग करती है। मासीर-उल-उमर के लेखक शाह नवाज़ खान कहते हैं कि, "काँगड़ा किला एक ऊँचे पहाड़ के शिखर पर स्थित है। यह अत्यंत मजबूत है और इसमें 23 बुर्ज और 7 द्वार हैं। आंतरिक परिधि 1 कोस और 50 चेन है - जिसमें 1/4 कोस और 2 चेन की लंबाई, लगभग 15 और 25 चेन के बीच की चौड़ाई और 114 क्यूबिट की ऊँचाई है। किले के भीतर 2 बड़े बड़े हौज भी हैं।“
इसकी किलेबंदी मध्ययुगीन और प्राचीनकालीन किलों की वास्तुकलाओं का एक प्रभावशाली मिश्रण है। इसका ख़ाका प्राचीन काल के दौरान इस क्षेत्र में प्रचलित वास्तुकला और अभियांत्रिकी का एक शानदार उदाहरण है। किले की सुंदरता मेहराबों, गुंबदों, उत्तम कलाकृति की नक्काशियों और पत्थरों के नक्काशीदार आकृतियों में दिखाई देती है। भौतिक रूप से यह किला अब अपने अतीत के गौरव की छाया मात्र है। परंतु, किले की वर्तमान दशा के बावजूद, इसकी जो शानदार संरचना बनाई गई थी, उसकी परिकल्पना की जा सकती है।
किले की मुंडेर का एक दृश्य, काँगड़ा किला, चित्र स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स
किले के विजेताओं ने अपनी जीत का जश्न मनाने के लिए द्वार बनवाए, जैसे जहाँगीरी दरवाजा (मुगल सम्राट जहाँगीर को समर्पित), अहानी और अमीरी दरवाजा, (पहले मुगल राज्यपाल, नवाब सैफ़ अली (अलिफ़) खान को समर्पित), और रंजीत सिंह दरवाजा (महाराजा रंजीत सिंह को समर्पित)। काँगड़ा किले के ऊपरी द्वार को हंदेली या अंधेरी दरवाजा के नाम से जाना जाता है। एक अन्य प्रवेश द्वार जिसे दरसनी दरवाजा या मंदिर द्वार कहा जाता है, गंगा और यमुना देवी की छवियों से सुसज्जित है। महल का प्रांगण किले के उच्चतम बिंदु पर स्थित है, और इसके नीचे एक बड़ा प्रांगण है जिसमें लक्ष्मी नारायण, अंबिका देवी और शीतलमाता के पत्थर के नक्काशीदार मंदिर हैं। लक्ष्मी नारायण मंदिर और शीतलमाता मंदिर के अवशेष नागर वास्तुकला के उल्लेखनीय उदाहरण हैं। अंबिका देवी मंदिर का बहुत महत्व है क्योंकि देवी अंबिका की पूजा सदियों से कटोच साम्राज्य की कुल देवी के रूप में की जाती रही है। अंबिका देवी के मंदिर के ठीक बगल में, भगवान आदिनाथ की मूर्ति के साथ एक जैन मंदिर परिसर है। नागर मंदिरों की तुलना में ये मंदिर सादे और छोटे हैं, लेकिन अच्छी तरह से संरक्षित हैं क्योंकि देवता आदिनाथ की मूर्ति की पूजा अभी भी जैन भक्तों द्वारा की जाती है। जैन मंदिर परिसर के पास ही दो खड़े स्तंभ हैं। इन 12 कोणों वाले स्तम्भों का ऊपरी भाग पूर्ण कलश रूपों से अलंकृत है। यहाँ कपूरसागर नामक एक बावड़ी भी है और यह किले का एक महत्वपूर्ण आकर्षण है। किले के दक्षिण-पश्चिम में एक बहुभुज पर्यवेक्षण बुर्ज है जो काँगड़ा घाटी का मनोरम दृश्य प्रदान करता है।
लक्ष्मी नारायण मंदिर का एक दृश्य, काँगड़ा किला, चित्र स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स
यह ऐतिहासिक किला अब भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) के संरक्षण में है। हालांकि किला आज खंडहर में तब्दील हो गया है, लेकिन समय बीतने के बावजूद इसकी विरासत की भव्यता कम नहीं हुई है। एक ओर तो यह किला बीते युग की समृद्धि और भव्यता की याद दिलाता है। दूसरी ओर, इसकी महान पुरातनता अभी भी इतिहास के पारखी लोगों को विरासत और संस्कृति का समृद्ध खजाना प्रदान करती है।
काँगड़ा किले के खंडहर, चित्र स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स