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हर्ष देव ओली
शेर-ए-काली कुमाऊँ

Portrait of Harsh Dev Oli

हर्ष देव ओली भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान एक पत्रकार और प्रसिद्ध कुमाऊँ मंडल के स्वतंत्रता सेनानी थे। कुमाऊँ के मुसोलिनी के रूप में ज्ञात हर्ष देव ओली को उनकी निडरता और नेतृत्व कौशल के लिए शेर-ए-काली कुमाऊँ भी कहा जाता था। उनका जन्म 1890 में, खेतिखान चंपावत (वर्तमान उत्तराखंड में) के गोशनी गाँव में हुआ था और उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय गाँव के स्कूल में पूरी की। हालाँकि, 11 साल की उम्र में उन्होंने अपने पिता को खो दिया, जिसके पश्चात् वे मायावती आश्रम चले गए। आश्रम में रहते समय, उन्होंने ‘प्रबुद्ध भारत’ पत्रिका के लिए काम किया, जो स्वामी विवेकानंद द्वारा प्रकाशित की गई थी। आगे की पढ़ाई के लिए वे फलतः अल्मोड़ा के रामसे कॉलेज चले गए।

बंगाल विभाजन एवं स्वदेशी आंदोलन का हर्ष देव ओली पर गहरा प्रभाव पड़ा। देश भर में हो रहे राष्ट्रवादी आंदोलनों में शामिल होने के लिए उन्होंने महाविद्यालय छोड़ दिया। क्योंकि पत्रकारिता उनका पूर्णकालिक पेशा था, उन्होंने अपनी लिखाई जारी रखी । 1914 में, उन्हें आईटीडी प्रैस का प्रबंधक नियुक्त किया गया। 1916 में कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में मोतीलाल नेहरू के साथ उनकी पहली मुलाकात ने उन्हें स्वतंत्रता संग्राम में और अधिक सक्रिय रूप से शामिल होने के लिए प्रेरित किया। 05 फरवरी 1919 को, जब पंडित मोतीलाल नेहरू ने अंग्रेज़ी अखबार 'इंडिपेंडेंट' का प्रकाशन शुरू किया, तो उन्होंने हर्ष देव ओली को इसका उप संपादक बनाया। 1923 में, ओली, मोतीलाल नेहरू के साथ नाभा रियासत रहने चले गए। वहाँ उन्हें राजा रिपुदमन सिंह के सलाहकार के रूप में नियुक्त किया गया।ओली ने राजा रिपुदमन सिंह और उनके राष्ट्रवादी विचारों का समर्थन करने के लिए बहुत मेहनत की। जब वे वहाँ काम कर रहे थे, तब उन्हें और जवाहरलाल नेहरू को इस आरोप में गिरफ़्तार किया गया था कि वे राजा रिपुदमन सिंह की अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध मदद करने के लिए काम कर रहे थे।

जेल से रिहाई के पश्चात्, ओली ने कुमाऊँ के जंगल आंदोलन में शामिल होने के लिए नाभा राज्य छोड़ दिया। 1923 से 1930 तक, ओली ने स्वदेशी के आदर्शों का प्रचार करने के लिए पूरे कुमाऊँ की यात्रा की। वे जनता तक पहुँचे और उन्होंने अंग्रेज़ी प्रशासन की शोषणकारी प्रथाओं के बारे में बात की। 1930 के नमक सत्याग्रह आंदोलन ने लोगों का ध्यान आकर्षित किया। उस समय तक, हर्ष देव ओली की लोकप्रियता इतनी ज़्यादा थी कि जनता केवल उनकी एक झलक पाने के लिए सब कुछ छोड़ने को तैयार थी। ऐसा कहा जाता है कि 09 अगस्त 1930 को जब वे देवीधुरा मेले में पहुँचे तो उनके स्वागत और उनकी बात सुनने के लिए भारी भीड़ एकत्र हुई थी। उन्होंने अपने संबोधन में निडर होकर अंग्रेज़ी सरकार की निंदा की। यद्यपि वे अपनी राय में काफ़ी मुखर थे, लेकिन अधिकारी उन्हें गिरफ़्तार नहीं कर सके क्योंकि उन्हें जनता की प्रतिक्रिया का डर था।

Harsh Dev Oli (2nd from right) statue at Indra Park in Khetikhan

अंतत: 12 अगस्त 1930 को पुलिस ने उनके घर पर छापा मारा और उन्हें गिरफ़्तार कर लिया। काली कुमाऊँ में यह खबर जंगल की आग की तरह हर जगह फ़ैल गई। अपनी नाराज़गी जताने के लिए हथियारों से लैस 30,000 लोगों की भीड़ ने तहसील कार्यालय को घेर लिया। इसके परिणामस्वरूप ओली को एकांत कारावास की छह महीने की सज़ा दी गई थी। मार्च 1931 में गांधी-इरविन समझौते पर हस्ताक्षर किए जाने के बाद, गांधी जी द्वारा सत्याग्रह अभियान को छोड़ने का वचन दिया गया। अतः लॉर्ड इरविन इसके दौरान कैद किए गए लोगों को रिहा करने के लिए सहमत हुए और इसप्रकार ओली को मुक्त कर दिया गया। परंतु 1932 में ओली के ऊपर फिर से जुर्माना लगाया गया, और सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान उन्हें छह महीने के लिए दोबारा कैद कर लिया गया।

भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अपने योगदान के साथ-साथ, हर्ष देव ओली को मौजूदा सामाजिक बुराइयों को मिटाने में मदद करने के लिए भी जाना जाता था। उदाहरण के लिए, क्योंकि लेलू गाँव, चौपखिया, सिंचोड, नैनी और पिथौरागढ़ ज़िले में काली कुमाऊँ के नायक जाति के लोग अपनी बेटियों को वेश्यावृत्ति के लिए मजबूर करते थे, ओली ने इसके विरुद्ध नारायण स्वामी के साथ एक जन जागरूकता अभियान शुरू किया। 1934 के नायक प्रथा निवारण अधिनियम को पारित कराने में वे सफ़ल रहे।

यद्यपि हर्ष देव ओली, और भारत के स्वतंत्रता संग्राम में उनके अथक प्रयासों के बहुत कम अभिलेख हैं, उनके सम्मान में खेतिखान में एक योद्धा उद्यान (फ़ाइटर पार्क) विद्यमान है। 05 जून 1940 को नैनीताल में उनका निधन हो गया।