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जैसलमेर का स्वर्णिम किला

“आकाश में चलते हुए सूर्य ने, पूछा अपने सारथी से, धरा पर ऐसा क्या चमक रहा है, जो मेरी चमक सरीखा है? सारथी ने कहा- “ये जैसलमेर का किला है!”
 -जैसलमेर का एक लोकगीत

जैसलमेर का किला, राजस्थान में त्रिकुटा पहाड़ी पर थार मरुस्थल या महान भारतीय मरुस्थल के रेतीले विस्तार के मध्य स्थित है। इसके सुनहरे रंग के बलुआ पत्थरों के कारण इसे "सोनार किला" या स्वर्ण किले का नाम दिया गया है। एक संपन्न शहर से घिरा हुआ यह किला, महलों, आवासों, दुकानों और मंदिरों से बनी एक भूलभुलैया है। जैसलमेर का किला न केवल भारत के, बल्कि पूरे विश्व के उन कुछ किलों में से एक है जो आज भी उपयोग में हैं।

राजस्थान के सुनहरे रंग के जैसलमेर किले का एक दृश्य। छवि स्रोत- फ़्लिकर

उत्पत्ति

ऐसा माना जाता है कि जैसलमेर किले का निर्माण रावल जैसल नामक एक भट्टी राजपूत ने 1156 ईस्वी में किया था। किंवदंतियों के अनुसार, राजा ने इस किले का निर्माण एक स्थानीय सूफ़ी की सलाह पर किया था, जिसने उन्हें यह बताया कि इस स्थान को स्वयं भगवान कृष्ण ने सभी शत्रुओं के लिए अदृश्य रहने का आशीर्वाद दिया था। निर्माण पूरा होने पर, इसका नाम जैसलमेर रखा गया जो कि दो शब्दों के मेल का परिणाम था- "जैसल" (इसके संस्थापक) और "मेरु" (हिंदू और बौद्ध ब्रह्मांड विज्ञान में पाया जाने वाला एक पौराणिक पर्वत)। माना जाता है कि जैसलमेर को लोधुर्वा के स्थान पर नई राजधानी बनाया गया था, जो इससे लगभग 15 किलोमीटर दूर है। लोधुर्वा एक समृद्ध व्यापार मार्ग पर स्थित था लेकिन वहाँ आक्रमणकारियों द्वारा अक्सर लूटपाट होती रहती थी। त्रिकुटा पहाड़ी और इसके आसपास के मरुस्थल के विशाल विस्तार को, नए किले के निर्माण के लिए एक बहुत सुरक्षित स्थल माना गया। स्थानांतरण के बाद, शुरू में एक मिट्टी के किले का निर्माण किया गया था, जिसे बाद में पत्थरों से बने एक शानदार किले में बदल दिया गया।

जैसलमेर का किला उस समय के महत्वपूर्ण व्यापारिक मार्गों, जिनमें से एक ‘सिल्क रूट’ था, के चौराहे पर स्थित था। ये मार्ग भारत और मध्य एशिया को मध्य पूर्व और उत्तरी अफ़्रीका से जोड़ते थे। व्यापारी, भारतीय और चीनी मसाले, चाय, और चित्रपटों को रेगिस्तान के पार तुर्की और यूरोप तक सैकड़ों ऊँटों के विशाल काफ़िले में लेकर जाते थे। व्यापार के ज़रिए जुड़ी इस विशाल संघटित भूमि में, थार मरुस्थल उत्तर भारत के मैदानी इलाकों का प्रवेश द्वार था।

रावल जैसल। छवि स्रोत- विकिमीडिया कॉमन्स

राजनीतिक गतिविधियाँ

पूर्व-औपनिवेशिक युग के दौरान जैसलमेर व्यावसायिक गतिविधि का केंद्र था। छवि स्रोत- पिक्साबे

थार के बंजर भूभाग पर बहुत कम खेती होती थी जिसमें केवल मोटे अनाज ही उगाए जाते थे। इस प्रकार, भट्टी शासकों के लिए आय का प्रमुख स्रोत उन काफ़िलों पर लगाया जाने वाला कर था, जो उनके व्यापार मार्गों से होकर गुज़रते थे। 13वीं शताब्दी के अंत में, अपने एक अहम काफ़िले पर किए गए आक्रमण से उत्तेजित होकर, दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने किले को आठ से नौ वर्षों के लम्बे समय के लिए घेराबंद कर दिया था। जैसलमेर के तत्कालीन शासक रावल जेठसी ने, किले को और मज़बूत किया और हमले की तैयारी में भोजन के विशाल भंडारघर बनाए। एक लंबी घेराबंदी के बाद, अलाउद्दीन खिलजी ने किले में खाद्य-पदार्थ और गोला-बारूद की आपूर्ति रोकने में कामयाबी हासिल की। एक निश्चित हार सामने पाकर, किले में कई राजपूत महिलाओं ने जौहर, अथवा आत्मदाह कर लिया। घेराबंदी के बाद किले को छोड़ दिया गया था और कई वर्षों बाद भट्टियों द्वारा इस पर पुनः अधिकार प्राप्त किया गया।

इसके बाद, भट्टियों ने 16 वीं शताब्दी ईस्वी तक सापेक्ष रूप से शांति से शासन किया, लेकिन फिर मुगलों ने किले पर अपनी नज़रें गड़ा दीं। इस बात ने जैसलमेर के तत्कालीन राजा रावल हर राय को, 1570 ईस्वी में, दिल्ली के शासक सम्राट अकबर के साथ एक संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए प्रेरित किया। इस संधि की शर्तों के तहत, हर राय ने मुगलों का आधिपत्य स्वीकार कर लिया और अपनी बेटी की शादी सम्राट अकबर से कर दी। इस तरह भट्टियों और मुगलों के बीच एक शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के युग की शुरुआत हुई, जिसके परिणामस्वरूप 17वीं और 18वीं शताब्दी के दौरान कला और वास्तुशिल्प के क्षेत्रों में विकास हुआ। अंग्रेज़ों के सत्ता में आ जाने तक मुगलों का राजनीतिक वर्चस्व लगभग 200 वर्षों तक चला। जैसलमेर उन अंतिम राजपूत राज्यों में से एक था जिन्होंने 1819 ईस्वी में अंग्रेज़ों के साथ किसी संधि पर हस्ताक्षर किए और उसके बाद एक रियासत के रूप में बरकरार रहे। भारत में अंग्रेज़ों का नियंत्रण स्थापित हो जाने के कारण इस ऐतिहासिक सैन्य गढ़ और व्यापारिक शहर का धीरे-धीरे पतन हो गया। बंबई में समुद्री बंदरगाह की स्थापना के बाद जैसलमेर अब आर्थिक गतिविधियों का केंद्र भी नहीं रहा। वे प्राचीन व्यापारिक मार्ग, जो इस शहर को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर व्यापारियों के लिए आकर्षक बनाते थे, अब अनुपयोगी हो गए थे। आज़ादी के बाद जैसलमेर, राजस्थान राज्य के एक हिस्से के रूप में भारत संघ में शामिल हो गया।

स्थापत्य

जैसलमेर किले और निचले शहर का एक दृश्य। छवि स्रोत- फ़्लिकर

जैसलमेर का किला, रेगिस्तानी किले का एक आदर्श उदाहरण है, जिसकी ऊँची और मोटी दीवारों को प्रक्षेपी दुर्ग और रक्षात्मक प्रवेश द्वार सुरक्षा प्रदान करते हैं। बाद के समय में राजपुताना क्षेत्र में निर्मित किलों के लिए यह किला अनुकरणीय रहा है। किले की प्रारंभिक नींव रखे जाने के बाद कई शताब्दियों तक किले में परिवर्धन और निर्माण कार्य होते रहे। मुगलों के साथ सांस्कृतिक आदान-प्रदान और एक संयुक्त स्थापत्य परंपरा का उत्कर्ष इसके वास्तुशिल्प में प्रत्यक्ष दिखाई देता है। कई शताब्दियों तक, जैसलमेर शहर और इसकी आबादी किले की परिधि के भीतर ही सीमित थी और केवल 17वीं शताब्दी ईस्वी के बाद ही किले की बाहरी दीवारों के बाहर बस्तियाँ बसनी शुरू हुईं। वर्तमान समय में उपस्थित अधिकांश संरचनाओं का निर्माण महारावल मूलराज द्वितीय (1762-1820 ईस्वी) और महारावल गज सिंह (1820-1846 ईस्वी) के शासनकाल के दौरान किया गया था। आज, जैसलमेर शहर को दो हिस्सों में बँटा हुआ देखा जा सकता है- ऊपरी शहर- किले के प्राचीर के भीतर स्थित है, और निचला शहर- गढ़ के चारों ओर फैला है।

जैसलमेर किले के मज़बूत दुर्ग। छवि स्रोत- फ़्लिकर

जैसलमेर का किला त्रिकुटा पहाड़ी पर, आसपास के ग्रामीण इलाकों से 250 फ़ीट की ऊँचाई पर स्थित है। जैसलमेर किले का क्षेत्रफल लगभग 460 मीटर x 230 मीटर है। इसमें तीन संकेंद्रित किलाबंद दीवारें हैं जो किले को तिहरी रक्षा संरचना प्रदान करती हैं। सबसे बाहरी दीवार में 99 गोलाकार बुर्ज हैं और किले को चारों ओर से घेरतीं कोनों पर मीनारें बनी हैं। सबसे ऊपर की किलाबंद दीवारों में कंगुरे या बंदूक की नली रखने हेतु सुराख बने हैं और झरोखे या आगे को निकलीं खिड़कियाँ हैं, जहाँ से बाहरी दीवारों को देखा जा सकता था। किले को आसपास के इलाके के सदृश बनाने के लिए इसमें विशिष्ट परिवर्धन किए गए थे। पहाड़ी की चिकनी मिट्टी को थामे रखने के लिए पत्थरों से बनी एक दीवार बनाई गई थी। भीतरी और बाहरी दीवारों के बीच एक मोरी या मार्ग बनाया गया था, जिसके ज़रिए युद्ध के समय सैनिक और घोड़े किले में कहीं भी आसानी से पहुँच सकते थे।

किले में चार विशाल ऊँचे द्वार हैं - गणेश पोल, अक्षय पोल, सूरज पोल और हवा पोल, जो किले के मुख्य क्षेत्र की ओर जाने के लिए प्रवेश बिंदु थे। इनमें से प्रत्येक प्रवेश द्वार पर लोहे की भारी कीलें लगी हुई थीं, जिसके कारण शत्रु इन्हें आसानी से फाँद नहीं सकते थे। प्रवेश द्वार किले के ऊपरी क्षेत्र की ओर ले जाते हैं, जहाँ केंद्र में स्थित एक शाही प्रांगण, सुंदर महलों के समूह से घिरा हुआ है। यह शाही चौक, जिसे दशहरा चौक के नाम से भी जाना जाता है, शहर का केंद्र हुआ करता था और यही वह सार्वजनिक स्थान भी था जहाँ व्यापारी और आगंतुक, राजा और सर्व-साधारण से मिला करते थे। राजा का सिंहासन चौक के एक कोने पर स्थित है। चौक के चारों ओर के शाही महलों में रंग महल, गज विलास, बड़ा विलास, मोती महल, सर्वोत्तम विलास और ज़नाना महल आदि हैं। यहाँ सुंदर छज्जों और मंदिर के आकार के गुंबदों वाली एक सात मंज़िला भव्य इमारत है जिसे राज महल या शाही महल कहते हैं। आज इस महल के कुछ शाही कक्षों को देखकर, अतीत में जैसलमेर के राजघरानों के जीवन की एक झलक देखी जा सकती है। रंग महल अपने भित्ति चित्रों के लिए प्रसिद्ध है, जो राजस्थानी चित्रकारियों की विरासत की एक अद्वितीय संपदा हैं। सर्वोत्तम विलास को नीली टाइलों और काँच के टुकड़ों के जड़ाई के काम से सूक्ष्मता से सजाया गया है। मोती महल का निर्माण महारावल मूलराज द्वितीय (1762-1820 ईस्वी) ने 19वीं शताब्दी में कराया था। यह हवेली इसकी छत पर चित्रित राधा और कृष्ण के सांसारिक प्रेम की सुंदर चित्रकारियों से सुसज्जित है। इस महल के दरवाज़ों पर खूबसूरत नक्काशियाँ की गई हैं और शीशे का काम मनोरम है। गज विलास का निर्माण 19वीं शताब्दी में महारावल गज सिंह (1820-1846 ईस्वी) द्वारा शुरू कराया गया था।

सूरज पोल। छवि स्रोत- विकिमीडिया कॉमन्स

जैसलमेर के किले में कई जैन मंदिर भी हैं। जैसलमेर के भट्टी शासकों ने सदियों से यहाँ रहने वाले धनी जैन व्यापारियों को संरक्षण दिया और कुछ उत्कृष्ट मंदिरों का निर्माण कराया। ये मंदिर, अपने शानदार वास्तुशिल्प के अतिरिक्त, पवित्र जैन साहित्य के सबसे बड़े संग्रहों में से एक को संचयित करने के लिए भी जाने जाते हैं। यहाँ मौजूद कुछ मंदिर पार्श्वनाथ, आदिनाथ, संभवनाथ, शीतल नाथ और शांति नाथ जैसे देवताओं को समर्पित हैं। इन मंदिरों का वास्तुशिल्प और सजावट स्पष्ट रूप से दिलवाड़ा के जैन मंदिरों के समान हैं। इन संरचनाओं की लगभग हर एक सतह, जैसे कि स्तंभ, अग्रभाग, दीवारें और छत, गंधर्वों जैसे- यक्ष और यक्षिणियों की बारीक और सूक्ष्म नक्काशियों, जानवरों और फूलों के पैटर्न से सुशोभित हैं।

जैसलमेर किले में एक जैन मंदिर की अलंकृत छत। छवि स्रोत- फ़्लिकर

जैसलमेर किले में एक जैन मंदिर की सूक्ष्म नक्काशी से सुसज्जित बाहरी दीवारें। छवि स्रोत- फ़्लिकर

देवी लक्ष्मी और भगवान विष्णु को समर्पित लक्ष्मीनाथ मंदिर भी एक आकर्षक संरचना है। ऐसा माना जाता है कि इस मंदिर का निर्माण रावल लुनकरण सिंह (1530-1551 ईस्वी) द्वारा कराया गया था। मंदिर को आकर्षक शिखरों से सँवारा गया है और पूरी संरचना सूक्ष्म नक्काशियों से सजी हुई है।

हालाँकि किले की सबसे प्रभावशाली विशेषताओं में से एक है, इसकी जल निकास प्रणाली, जिसे घुट नाली कहा जाता है। इस अनूठी व्यवस्था के ज़रिए पर्वत के शिखर पर स्थित इस किले से बारिश का पानी चार अलग-अलग दिशाओं में आसानी से बाहर निकल जाता है जिससे कि पानी का जमाव नहीं होता। हालाँकि, जैसलमेर शहर की आधुनिक जल और मल निकास प्रणाली की शुरुआत ने इस सदियों पुरानी संरचना को अस्थिर करने का खतरा पैदा कर दिया है और इसके संरक्षण के लिए उपाय किए जा रहे हैं। किले से लगभग 2 किलोमीटर दूर स्थित गड़ीसर झील का निर्माण रावल घरसी सिंह (1306-1335 ईस्वी) ने 14वीं शताब्दी में कराया था। 20वीं सदी की शुरुआत तक यह झील, जैसलमेर शहर के लिए पानी के मुख्य स्रोतों में से एक थी।

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पटवों की हवेली के सूक्ष्मता से तराशे गए झरोखे। छवि स्रोत- फ़्लिकर।

इसके अतिरिक्त, व्यापारियों द्वारा रहने के लिए बड़ी हवेलियों का निर्माण किया गया था। इनका निर्माण पीले बलुआ पत्थरों से किया गया था और इनमें खिड़कियों के डिज़ाइन, मेहराब, कमरे और फ़र्श बहुत सुंदर थे। इनमें से कई अभी भी जैसलमेर में मौजूद हैं, और सैकड़ों साल पुरानी होने के बावजूद, अभी भी उनमें उन्हें बनाने वाले लोगों के वंशज निवास करते हैं। उनमें से सबसे प्रभावशाली पटवाओं की हवेली है, जो अपने सूक्ष्म रूप से तैयार किए गए अग्रभाग और सुंदर छज्जों के लिए जानी जाती है। यह कार्य 18वीं शताब्दी ईस्वी में एक धनी व्यापारी घुम्मंद चंद द्वारा कराया गया था। ऐसी अन्य प्रमुख हवेलियों में नाथमल की हवेली और सलाम सिंह की हवेली भी शामिल हैं।

जैसलमेर के किले में एक युद्ध बंदूक भी है, जो अब किले के शिखर पर स्थित है और विशाल जैसलमेर शहर की चौकसी करती है। ऐसा माना जाता है कि किले के प्रवेश द्वारों में से एक की सुरक्षा में इसका इस्तेमाल किया गया था।

युद्ध बंदूक। छवि स्रोत- फ़्लिकर

एक जीता-जागता किला

जैसलमेर का किला भारत के उन कुछ किलों में से एक है जो आज भी उपयोग में है। बीते युग के अधिकांश किलों के विपरीत, इसके परिसर अभी भी जीवन, बाज़ारों और भोजनालयों से भरे हुए हैं। इसकी संकरी गलियाँ (दुश्मनों के मार्ग को बाधित करने के लिए बनाई गईं) एक रंगीन दुनिया को दर्शाती हैं, जहाँ अतीत और वर्तमान साथ रहते और उन्नति करते हैं। यह दावा किया जाता है कि किले में अभी भी लगभग 5000 निवासी रहते हैं, जो असंख्य तरीकों से जैसलमेर किले के जीवन का हिस्सा हैं। बीते युग की कई परंपराएँ अभी भी यहाँ देखी जा सकती हैं, जो इसके शाही अतीत को कायम रखती हैं और आगे लेकर जाती हैं। दशहरे के दिन यहाँ एक विशाल मेला लगता है, जहाँ आज भी राजा अपनी उपस्थिति से इसकी शोभा में चार-चाँद लगाते हैं। जबकि कुछ हवेलियों या आवासों को संरक्षित करके उन्हें संग्रहालयों में बदल दिया गया है, अन्य हवेलियों में अभी भी सदियों से यहाँ रहने वाले परिवारों के वंशज रहते हैं।

कला और शिल्प की दुकानों का एक बहुरूपदर्शक जैसलमेर के जीते-जागते किले को सुशोभित करता है। छवि स्रोत- फ़्लिकर

ऐतिहासिक रूप से आकर्षक होने के अलावा, जैसलमेर किले ने साहित्य और कला को भी प्रेरित किया है। प्रसिद्ध लेखक और फ़िल्म निर्देशक सत्यजीत रे द्वारा लिखा गया उपन्यास ‘सोनार केल्ला’ इस किले पर आधारित था जिसे बाद में एक फ़िल्म में रूपांतरित भी किया गया।

डॉ. आर.ए. अगरवाल ने जैसलमेर शहर पर, ‘हिस्टरी, आर्ट एंड आर्किटेक्चर ऑफ़ जैसलमेर’ शीर्षक की अपनी प्रसिद्ध रचना में इस किले को "सुबह के सूरज में एक सुनहरा मुकुट" कहा है। वस्तुतः जैसलमेर का किला, जैसलमेर के रावलों के पराक्रम, वैभव और कौशल का एक शुभ्र उदाहरण है। इसका शानदार वास्तुशिल्प, रहस्यवादी आकर्षण और जीवंतता, साल-भर देश के भीतर और बाहर दोनों से पर्यटकों को आकर्षित करती है।

सोनार किला का रात के समय का दृश्य। छवि स्रोत- फ़्लिकर