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अशारीकंडी
असम का टेराकोटा गाँव

प्रकृति और उसके तत्वों के साथ प्रयोग करना, प्रारंभिक मानव समाजों का एक महत्वपूर्ण पहलू था। इसने रचनात्मक अभिव्यक्तियों की एक लंबी शृंखला का अनावरण किया, जिसके परिणामस्वरूप विशिष्ट शिल्प परंपराएँ उभर कर सामने आईं। सदियों पुरानी टेराकोटा (पकी मिट्टी) शिल्प परंपरा को पोषित करने वाले अशारीकंडी गाँव में, प्राकृतिक-सांस्कृतिक संबंधों का एक वास्तविक प्रतिबिंब देखने को मिलता है। असम के धुबरी ज़िले में स्थित अशारीकंडी में, लगभग डेढ़ सौ परिवार रहते हैं। यहाँ टेराकोटा की कलाकृतियों को बनाते पुरुषों, महिलाओं और बच्चों को एक साथ काम करते हुए देखना, एक मंत्रमुग्ध कर देने वाला दृश्य होता है। इस गाँव को पहले ही अपने सौंदर्यपरक शिल्पकारिता के लिए, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिल चुकी है। इस गाँव का नाम 'अशारीकंडी' दो शब्दों - आषाढ़ और कंडी के योग से बना है। असमिया कैलेंडर में आषाढ़ साल का तीसरा महीना होता है। ऐसा कहा जाता है कि आषाढ़ में वर्षा ऋतु के दौरान भारी बाढ़ के कारण, गाँव के कुछ हिस्से जलमग्न हो गए थे और चूँकि कारीगर अपना काम जारी रखने में असमर्थ रहे इसलिए वे सब दु:खी होकर आँसू बहाने (कंडी) लगे। इसलिए, आषाढ़ की वर्षा ऋतु और आँसू बहाने (कंडी) के लिए उपयोग किए जाने वाले दोनों शब्दों को मिलाकर इस गाँव को 'अशारीकंडी' नाम दिया गया है।

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अशारीकंडी गाँव का प्रवेश द्वार

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अशारीकंडी में एक पारंपरिक भट्टी

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पकी मिट्टी से बनाए गए उत्पाद

अशारीकंडी गाँव गोदाधार नदी से घिरा हुआ है, जो कि शक्तिशाली ब्रह्मपुत्र नदी की एक सहायक नदी है। नदी के तटवर्ती रास्ते का उपयोग, पकी मिट्टी से बनाए गए उत्पादों के वितरण और विपणन के लिए किया जाता है। इस शिल्प के निर्माण में मुख्य सामग्री होती है हीरामती मिट्टी (चिकनी मिट्टी), जो गाँव के पास के इलाकों में पाई जाती है। कारीगर बड़ी मेहनत करके, कुदाल की सहायता से, नदी के किनारे से मिट्टी लाते हैं। फिर उस मिट्टी को रात भर भिगोया जाता है और उसकी अशुद्धियों को खोटे क मदद से हटा दिया जाता है। खोटा, बाँस से बना एक पतला उपकरण होता है। इसके बाद इस मिट्टी को धूप में खड़े होकर हाथों और पैरों से गूँथा जाता है जिससे इसमें लचक पैदा हो। इसके बाद इस मिट्टी में पानी, रेत और कास्टिक सोडा मिलाया जाता है। इस प्रकार, इस मिश्रण से यह निश्चित हो जाता है कि तैयार उत्पादों में कोई दरार नहीं मिलेगी। एक बार जब यह ताज़ी मिट्टी इन आवश्यक चरणों से गुज़र चुकी होती है, तब अलग-अलग तकनीकों की मदद से विभिन्न प्रकार के उत्पादों को बनाया जाता है। मिट्टी को अपेक्षित आकार देने के लिए, कारीगर दो प्रकार के औज़ारों - बोइला और पिटना का उपयोग करते हैं। वे उत्पादों पर डिज़ाइन उकेरने के लिए, छुरियों का भी प्रयोग करते हैं। एक बार जब उत्पाद बनकर तैयार हो जाते हैं, तब उन्हें दो दिन के लिए धूप में सुखाया जाता है और उसके बाद लाल चिकनी मिट्टी (काबिश) से बने पाउडर को उनके ऊपर लगा दिया जाता है। आखिर में, उन उत्पादों को भट्टी में पकाया जाता है।

अशारीकंडी की पकी मिट्टी से बनी कलाकृतियों में, उत्पादों की एक विस्तृत शृंखला पाई जाती है, जिनका उपयोग विभिन्न आवश्यकताओं के लिए किया जा सकता है। इनमें रसोई के बर्तन, पूजा के बर्तन, घड़े, खिलौने, सजावटी सामान, देवी-देवताओं की मूर्तियाँ और प्रसिद्ध व्यक्तियों की मूर्तियाँ आदि शामिल हैं। ये उत्पाद अद्वितीय हैं क्योंकि इन पर उत्कीर्ण की गई नक्काशी, जाने-पहचाने दृश्यों और स्थानीय संस्कृति को दर्शाती है। कारीगर ऐसे खिलौने बनाते हैं जो जानवर, गाड़ियों, साइकिल, मोटरबाइक इत्यादि जैसी घरेलू ज़रूरतों को प्रदर्शित करते हैं। 'हातिमा गुड़िया' या 'मदर एंड चाइल्ड डॉल' को अशारीकंडी की सबसे लोकप्रिय शिल्प कृति कहा जाता है। हातिमा शब्द, एक हाथी के जैसे कान वाली माँ का वर्णन करता है, जो अपने बच्चे को गोद में लिए हुए है। सन् 1982 में, स्वर्गीय सरला बाला देवी को उनके पारंपरिक टेराकोटा शिल्प, हातिमा गुड़िया के लिए, राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

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एक हातिमा गुड़िया

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देवी-देवताओं की मूर्तियाँ

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एक देशी नाव

अतीत में, गौरीपुर के शाही परिवार ने इस शिल्प का संरक्षण और प्रचार किया था। अशारीकंडी की शिल्प कृतियों में हाथियों का चित्रण ऐतिहासिक रूप से शाही परिवार द्वारा पोषित, हाथी-केंद्रित संस्कृति को दर्शाता है। नए ज़माने के लोगों की दिलचस्पी को ध्यान में रखते हुए, कारीगर मेलों और त्योहारों के दौरान, लोकप्रिय वस्तुओं को बनाते हैं। अशारीकंडी गाँव, मिट्टी से अद्भुत वस्तुओं को बनाता आया है और चूँकि पीढ़ी दर पीढ़ी इस कला को पूरी लगन से अपनाया गया है, इसलिए अभी तक इस समृद्ध परंपरा को जीवित रखा जा सका है।