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बुर्ज़होम
भारत का नवपाषाणकालीन स्टोनहेंज

श्रीनगर ज़िले (कश्मीर घाटी) में बुर्ज़होम नामक नवपाषाणकालीन स्थल, समुद्री सतह से 1800 मी. ऊपर अत्यंतनूतन (प्लीस्टोसीन) युग के सरोवर तल पर स्थित है। यह स्थल नवपाषाण युग से लेकर महापाषाण युग और प्रारंभिक ऐतिहासिक युग तक मनुष्यों के निवास-स्थानों में चरण-दर-चरण आए बदलावों को स्पष्ट रूप से दर्शाता है। बुर्ज़होम 3000 ईसा पूर्व से लेकर 1000 ईसा पूर्व तक कृषि, वास्तुकला, कर्मकांडीय प्रथाओं और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हुए विकास का साक्ष्य है।

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बुर्ज़होम पुरातत्वीय स्थल
 

हालाँकि, बुर्ज़होम में उत्खनन-कार्य 1930 में शुरू हुए, लेकिन आखिरकार 1960 से 1971 के बीच भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की ओर से टी.एन. खज़ांची और उनके सहयोगियों द्वारा शुरु किए गए व्यापक उत्खनन-कार्यों में एक के बाद एक चार संस्कृतियाँ सामने आईं, जिनमें प्रथम व द्वितीय नवपाषाण युग की हैं; तृतीय महापाषाण युग की है और चतुर्थ ऐतिहासिक युग की है।

नवपाषाण युग की प्रथम और द्वितीय संस्कृतियाँ, गर्तवासों (गड्ढे के नीचे बने घर) के रूप में गृह स्थापत्य का आरंभ दर्शाती हैं। ऐसे अंडाकार या वृत्ताकार गर्त जिनका मुँह सँकरा है एवं तल चौड़ा है और जिनमें बड़ी संरचनाओं को आधार देने के लिए भूमि-तल पर लकड़ी के पोस्टहोल हैं, उत्खनन के दौरान पाए गए हैं। भूमि-तल पर पत्थर की अँगीठियाँ भी पाई गई हैं जो वहाँ होने वाली मानवीय गतिविधियों का संकेत देती हैं। दूसरी संस्कृति में इन गर्तवासों को भरकर उन्हें ऐसी समतल संरचनाओं में तब्दील कर दिया गया था जिनमें आदिम खेती के और गेहूँ, जौ तथा मसूर जैसी फ़सलों के भंडारण के संकेत पाए गए थे। दूसरी संस्कृति में कुछ ताँबे के तीरों की नोकें भी पाई गई हैं जो धातुविज्ञान के विकास की ओर इशारा करती हैं। पत्थर की सिल्ली जिस पर शिकार के व्यापक दृश्यों के नक्काशीदार चित्र हैं, वे कलाकृतियों की मौजूदगी को इंगित करते हैं।

द्वितीय संस्कृति में शवाधानों के सबसे पहले प्रमाण भी पाए गए हैं, जो या तो रिहायशी परिसर में या फिर आसपास के इलाकों में खोदे जाते थे। इन अंडाकार गर्तों पर चूने का लेप लगाया जाता था और हड्डियों पर लाल गेरू लगाकर शवों को उनमें रखा जाता था। कुछ शवाधानों में पशु-कंकालों के अवशेष भी पाए गए हैं और कुछ शवाधानों में, मानव कपाल शल्यकर्म (ट्रिपैनिंग) का प्रमाण भी देखा गया है। इस प्रक्रिया में या तो चोट लगने के बाद रक्तदाब को कम करने या फिर आंतरकपालीय बीमारियों का इलाज करने के लिए कपाल पर छेद किए जाते हैं। इन उत्खननों में से एक सबसे रोचक उत्खनन उस शवाधान का है जिसमें पाँच जंगली कुत्तों के अवशेष और एक बारहसिंगे का सींग मिला था।

नवपाषाण युग के बाद महापाषाण युग का आरंभ हुआ जिसमें विशाल पत्थरों से प्रतीकात्मक स्मारक बनाए जाते थे जिन्हें ‘मेनहिर’ कहा जाता था। इन स्मारकों को बनाने के लिए पत्थर के बड़े खंडों को हाथों से ले जाकर, निवास स्थलों के आसपास स्थापित कर दिया जाता था। महापाषाण युग को उसकी उच्च श्रेणी की कारीगरी के लिए भी जाना जाता है। यहाँ लाल मिट्टी के बर्तन, ताँबे की वस्तुएँ और हड्डी और पत्थर से बने उपकरण प्रचुर मात्रा में पाए गए हैं। महापाषाण युगीन व्यक्तियों से संबंधित खुरदरे पत्थर से बनीं संरचनाएँ पाई गई हैं जो इस युग में वास्तुकला के क्रमिक विकास को इंगित करती हैं।

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बुर्ज़होम में होने वाली गतिविधियों का अंतिम चरण प्रारंभिक ऐतिहासिक युग से सम्बद्ध है। इसमें मिट्टी की ईंटों से बनी संरचनाएँ, चाक पर निर्मित मिट्टी के बर्तन और कुछ धातु की वस्तुएँ पाई गई हैं। बुर्ज़होम में विशिष्ट सांस्कृतिक पैटर्न होने के कारण उसकी एक अनोखी पहचान है। इसका विस्तृत विकासपरक अनुक्रम नवपाषाण संस्कृतियों की महापाषाण संस्कृति में हुई तब्दीली को समझने के लिए एक बेहतरीन उदाहरण है। संपूर्ण स्थल अपने मूल रूप में बना हुआ है और यह वर्तमान में भी अपने परिदृश्य से नवपाषाण युग के प्राकृतिक परिवेश की याद दिलाता है। उत्खनित स्तरों को उनके मूल स्थानों में संरक्षित रखा गया है और उन्हें भारतीय पुरातत्व संरक्षण तथा अन्य विनियामक प्राधिकरणों द्वारा संरक्षित और प्रबंधित किया जाता है। बुर्ज़होम यूनेस्को के विश्व धरोहर स्थलों की संभावित सूची में भी मौजूद है।