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चेट्टीनाड कोट्टन
तमिलनाडु के चेट्टीनाडु क्षेत्र की पाल्मायरा टोकरी

तमिलनाडु का चेट्टीनाडु क्षेत्र अपने महलनुमा घरों, मंदिरों और सुगंधित व्यंजनों के लिए जाना जाता है। यह भारत के दक्षिणी भाग में तमिलनाडु के शिवगंगई ज़िले में स्थित है। इस क्षेत्र में राजधानी कराईकुडी और 74 अन्य गाँव सम्मिलित हैं, तथा यह एक समृद्ध व्यावसायिक और व्यापारिक समुदाय, नट्टुकोट्टई चेट्टियार (नगरथथर) की मातृभूमि है। कई विरासती पहलुओं के बीच, यह क्षेत्र कोट्टन के लिए भी जाना जाता है,जो मुलायम ताड़ के पत्तों और तनों से बनाई गई पारंपरिक टोकरियाँ होती हैं। इन कोट्टनों को पारंपरिक तौर परआचियों (तमिल में दादी के लिए प्रयुक्त शब्द) द्वारा बनाया जाता था, और इसका उपयोग संवेष्टन के लिए तथा उपहार और अन्य वस्तुओं को रखने के लिए डिब्बों या बरतनों के रूप में किया जाता था। कोट्टन के डिज़ाइन बहुत महीन और देखने वालों के लिए बहुत मोहक होते हैं।

चेट्टीनाड कोट्टन

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कोट्टन अलग-अलग रंगों में पाया जाता है

विशेष अवसरों पर लोगों को पान और सुपारी के साथ कोट्टन की टोकरियाँ दी जाती हैं। इन टोकरियों को बनाने की प्रक्रिया में कच्ची सामग्री और विभिन्न प्रकार के औज़ारों का उपयोग किया जाता है। कुरुथु (कटा हुआ ताड़ का पत्ता), प्राकृतिक और रासायनिक रंजक और धागे, इसे बनाने के लिए उपयोग में लाए जाने वाला कच्चा माल है। इसी प्रकार, सत्यगाम (काटने का उपकरण), ताड़ का पत्ता काटने की मशीन, रिंच, काटने का उपकरण, सुई-धागा, मापने का फ़ुट्टा व माप-पट्टी, रंगाई के लिए बर्तन और पानी रखने के लिए एक कटोरा, इसे बनाने के लिए उपयोग में लाए जाने वाले औज़ार हैं। इसे बनाने के लिए आस-पास के इलाकों से ताड़ के कोमल पत्ते एकत्रित किए जाते हैं और दो से तीन घंटों के लिए धूप में सुखाए जाते हैं। क्योंकि ताड़ के पत्ते जल्दी से खराब नहीं होते, इसलिए इन्हें लंबे समय के लिए रखा जा सकता है। फिर, ताड़ के पत्ते काटने की मशीन का उपयोग करके पत्तों को समान-चौड़ाई की पट्टियों में काट लिया जाता है। रंगाई की प्रक्रिया के दौरान, इन पत्तों को पानी में डुबाकर इनमें प्राकृतिक या रासायनिक रंजक मिलाए जाते हैं। फिर इन गीली पट्टियों को एक दिन के लिए धूप में सुखाया जाता है। चेट्टीनाडु कोट्टन की बुनाई का पैटर्न अनूठा है और यह तमिलनाडु के अन्य क्षेत्रों में पाए जाने वाले ताड़ के पत्तों की हस्तकलाओं से अलग है। इसमें बुनाई के कई पैटर्न शामिल हैं जैसे गुंडामनी पैटर्न, मलयालम पैटर्न, कट कोट्टन इत्यादि। बुनाई हो जाने के बाद, टोकरी को टिकाऊ बनाने के लिए एक किनारी (जिसे इक्की कहते हैं) को पट्टियों में बुना जाता है। इन टोकरियों को अलंकृत करने और उन्हें और अत्यधिक आकर्षक बनाने के लिए, उनमें मनकों और कशीदाकारी जैसी सजावटी वस्तुओं को बुना जाता है। हालाँकि कोट्टनों का उपयोग मुख्य रूप से संवेष्टन के लिए और डिब्बों (बर्तनों) के रूप में किया जाता था, मगर बाज़ार की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए, इनमें नए उत्पाद जैसे चटाइयाँ, तश्तरियाँ, कोस्टर (गर्म बर्तन रखने की गोल टिकलियाँ), झोले इत्यादि भी बनाए जाने लगे हैं।

कोट्टन बनाने की कला अब लगभग विलुप्त हो चुकी है, फिर भी इसे संरक्षित करने के लिए कुछ संगठन काम कर रहे हैं। जब यह एक फलती-फूलती हस्तकला थी, तब यह स्थानीय समुदायों के लिए आय का एक प्रमुख स्रोत हुआ करती थी। चेट्टीनाडु के गाँवों की महिलाएँ कोट्टन बनाने में व्यस्त रहती थीं, जबकि पुरुष खेती-बाड़ी का काम करते थे। बहुत से लोग अब बेहतर संभावनाओं की तलाश में शहर जाने लगे हैं, जिसके कारण इस हस्तकला का अभ्यास करने वालों की संख्या कम हो गई है। परिणामस्वरूप, वर्तमान में बहुत ही कम लोगों ने चेट्टीनाडु क्षेत्र में इस हस्तकला को जारी रखा है। कोट्टन में बने उत्पादों और उनके उपयोग को बढ़ावा देना, संधारणीयता का संदेश फैलाने में सहायक हो सकता है।

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ताड़ के पत्तों से टोकरियाँ बुनती महिलाएँ

ये उत्पाद प्लास्टिक और अन्य एक बार उपयोग किए जाने वाले उत्पादों के मुकाबले, बहुत ही अच्छे और टिकाऊ होते हैं। सन् 2004 में कोट्टन उत्पादों को ‘यूनेस्को सील ऑफ़ एक्सीलेंस’ से सम्मानित किया गया था। अपनी अनूठी शैली और चमकीले रंगों के कारण, चेट्टीनाडु कोट्टन को सन् 2012 में भौगोलिक संकेतक का लेबल भी दिया गया था। यूनेस्को और भारत सरकार द्वारा इस हस्तकला को मिली मान्यता, इन उत्पादों के लिए खरीदारों को आकर्षित करने में बहुत लंबे समय तक मदद करेगी।