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चराइदेव मैदाम : अहोम स्वर्गदेवों का अंतिम विश्राम स्थल

अहोम राजाओं या ‘स्वर्गदेवों’ (ताई-अहोम में इसका अर्थ है, ‘स्वर्ग का स्वामी’) ने अपने छह सौ साल लंबे शासनकाल (1228 ईस्वी - 1826 ईस्वी) के दौरान कई उल्लेखनीय वास्तुशिल्पीय संरचनाओं का निर्माण किया था। अहोम साम्राज्य की पहली राजधानी, चराइदेव (ताई-अहोम में इसका अर्थ है, "पहाड़ियों पर जगमगाता चमकीला शहर"), में ‘मैदाम’ नामक संरचनाओं का एक अद्भुत समूह मौजूद है। ये ‘मैदाम’, अहोम स्वर्गदेवों और शाही परिवार के सदस्यों के समाधि टीले हैं।

‘मैदाम’ शब्द, ताई-अहोम शब्द ‘फ्रांगमोई-दाम’ से लिया गया है। ‘फ्रांगमोई’ का अर्थ है, "कब्र में डालना" और ‘दाम’ शब्द का अर्थ है, "मृत व्यक्ति की आत्मा"। अहोम साम्राज्य के संस्थापक सौलुंग सु-का-फा, जिन्होनें 1253 ईस्वी में चराइदेव (शिवसागर शहर से 28 किलोमीटर पूर्व में स्थित) में अपनी राजधानी स्थापित की थी, उनको ताई-अहोम अंत्येष्टि अनुष्ठानों के अनुसार यहाँ दफ़नाया गया था। तब से, चराइदेव एक पवित्र स्थान बन गया, जहाँ अहोम शाही परिवारों के मृत सदस्यों के अंत्येष्टि अनुष्ठान किए जाने लगे। स्वर्गदेव गदाधर सिंह (1681 ईस्वी - 1696 ईस्वी) के शासनकाल तक अहोमों ने मृतकों को दफ़नाने की प्रथा का पालन किया। हालाँकि, अहोम धर्म, संस्कृति, और राजनीति पर हिंदू धर्म के बढ़ते प्रभाव के कारण, ‘मैदाम’ में मृतकों को दफ़नाने की बजाय उनकी राख (दाह संस्कार के बाद) को दफ़नाने की प्रथा शुरू हो गई।

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चराइदेव में एक मैदाम। छवि स्रोत : विकीमीडिया कॉमन्स

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चराइदेव मैदाम स्थल का दृश्य। छवि स्रोत : विकीमीडिया कॉमन्स

‘मैदामों’ का बाहरी हिस्सा अर्धगोलाकार होता है, जो एक छोटे टीले से लेकर लगभग बीस मीटर ऊँची पहाड़ी तक के आकार का हो सकता था। ऐसा कहा जाता है कि मैदाम का आकार दफ़न किए जाने वाले व्यक्ति की सामाजिक ताकत और दर्जे पर निर्भर करता था। मैदाम की तीन प्रमुख विशेषताएँ होती हैं : एक शव-कक्ष, कक्ष को ढकने वाला मिट्टी का अर्धगोलाकार टीला, और टीले के आधार के चारों तरफ़ बनी अष्टकोणीय बाहरी दीवार जिसके पश्चिम में एक मेहराबदार प्रवेश-द्वार होता है। शव-कक्ष शुरुआत में ठोस लकड़ी के स्तंभों और शहतीरों से बनाए जाते थे। स्वर्गदेव रुद्र सिंह (1696 ईस्वी - 1712 ईस्वी) के शासनकाल के दौरान शव कक्षों के निर्माण में, लकड़ी के बजाय पत्थरों और ईंटों का इस्तेमाल होने लगा।

अहोम स्वर्गदेवों (राजाओं) ने शाही ‘मैदामों’ के निर्माण के साथ-साथ बाकी सभी नागरिक संरचनाओं के निर्माण और रखरखाव के लिए, ‘चांगरुंग फुकन’ नामक एक विशेष अधिकारी नियुक्त किया था। इसके अतिरिक्त, ‘मैदामों’ की सुरक्षा और रखरखाव के लिए, ‘मैदाम फुकन’ नामक विशेष अधिकारी और ‘मैदामिया’ नामक पहरेदारों के समूह भी नियुक्त किए गए थे। ‘चांगरुंग फुकन’ के ऐतिहासिक अभिलेखों में लिखा है कि मैदाम की ईंटों और पत्थरों को ‘करल’ नामक एक अद्वितीय गारे के मिश्रण अथवा सीमेंट जैसी वस्तु का उपयोग करके जोड़ा जाता था। यह मिश्रण स्थानीय रूप से उपलब्ध विभिन्न सामग्री जैसे चूना, घोंघे का खोल, दालें, राल, सन, शीरा, ‘माटीमाह’ (काली उड़द), मछली, इत्यादि, से तैयार किया जाता था।

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चराइदेव मैदाम स्थल का दृश्य। छवि स्रोत : विकीमीडिया कॉमन्स

अहोम राज्य में, स्वर्गदेव की मृत्यु की खबर उनके उत्तराधिकारी का राज्याभिषेक होने तक गोपनीय रखी जाती थी। खबर सार्वजनिक होते ही, स्वरगदेव के मृत शरीर को दफ़नाने की प्रक्रिया शुरू करने का आदेश दिया जाता था। आदेश के तुरंत बाद ही, ‘पाइक’ (अहोम साम्राज्य में 15-50 वर्ष की आयु वर्ग के बीच का हर सक्षम पुरुष जो अभिजात वर्ग का, पुजारी, उच्च जाति का, अथवा गुलाम नहीं था) चराइदेव पहुँच जाते थे। ‘मैदाम’ के लिए 2880-4320 वर्ग फ़ीट के बीच की एक भूमि का चयन किया जाता था। इसके बाद ‘पाइक’ गड्ढा खोदने, दूर-दूर के स्थानों से विभिन्न प्रकार के पत्थर लाने, शव-कक्ष को मिट्टी से भरने, ईंट बनाने, और गारे का मिश्रण तैयार करने, इत्यादि, में लग जाते थे। ऐसा कहा जाता है कि केवल ‘घरफालिया’ और ‘लुखुरखन’ ‘खेलों’ (‘खेल’ शब्द उन लोगों के समूह को दर्शाता है, जो कुछ विशिष्ट कार्य करने के लिए नियुक्त किए जाते थे) के सदस्यों को ही अहोम राजाओं और रानियों के शवों को दफ़नाने की अनुमति थी। एक स्वर्गदेव की मृत्यु और ‘मैदाम’ में उनके पार्थिव शरीर की अंत्येष्टि के बीच काफ़ी समय का अंतर हुआ करता था। ऐसा कहा जाता है कि इस अवधि के दौरान उनके शव को पारद या शहद में रखकर संरक्षित किया जाता था। शवों को ले जाने के लिए एक विशिष्ट मार्ग का उपयोग किया जाता था, जिसे ‘सा-निया-अली’ (सा: शव, निया: ले जाने के लिए, अली: पथ अथवा मार्ग) कहा जाता था, और शव के आनुष्ठानिक स्नान के लिए ‘सा-धोवा-पुखुरी’ (सा: शव, धोवा: स्नान, पुखुरी: जलाशय) नामक एक विशिष्ट जलाशय का उपयोग किया जाता था। ‘घरफालिया’ और ‘लुखुरखन’ ‘खेलों’ के लोग, विशिष्ट प्रकार की लकड़ी से बने ‘रुंग-डांग’ नामक ताबूत को दफ़नाने के स्थल तक ‘केकोरा डोला’ (एक प्रकार की पालकी) में लाते थे। हालाँकि ‘करेंग-रुंग-डांग’ नामक अर्धगोलकर टीलों के नीचे बने बड़े शव-कक्ष में केवल ‘लुखुरखनों’ को ही प्रवेश करने की इजाज़त थी। ताबूत (रुंग-डांग) को सोने और चाँदी से बने बर्तनों, कालीनों, कपड़ों, खाद्य पदार्थों, इत्यादि, सहित बहुत सी वस्तुओं के साथ पूर्व-पश्चिम दिशा में रखा जाता था। ताबूत रखने के बाद, गोल पत्थरों में मिट्टी का गारा लगाकर शव-कक्ष के द्वार को बंद कर दिया जाता था।

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अहोम साम्राज्य के शासनकाल में तैयार की गई ईंटें। छवि स्रोत : विकीमीडिया कॉमन्स

‘असम के पिरामिड’ के रूप में जाने जाने वाले ‘चराइदेव मैदामों’ में लगभग 90 समाधि टीले हैं। ये कालातीत संरचनाएँ, अहोम साम्राज्य के गौरवशाली इतिहास के प्रमाण के रूप में खड़ी हैं।