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गारो समुदाय का मनोहर पारंपरिक परिधान

गारो एक जनजातीय समुदाय है, जिसकी उत्पत्ति तिब्बत और बर्मा में हुई थी और यह मेघालय, असम, त्रिपुरा, नागालैंड समेत भारत के उत्तर- पूर्वी राज्यों तथा बांग्लादेश के कुछ निकटवर्ती क्षेत्रों में निवास करता है। ऐतिहासिक रूप से, 'गारो' शब्द का इस्तेमाल ब्रहमपुत्र नदी के दक्षिणी तट पर स्थित विभिन्न समुदायों के लिए किया जाता है। किंतु वर्तमान में इसका उपयोग केवल ‘ए-चिक मांडे’ नामक लोगों के लिए किया जाता है, जिसका अनुवाद 'पहाड़ी लोग' है (‘ए-चिक’ का अर्थ 'मिट्टी को काटना' और ‘मांडे’ का अर्थ 'लोग' है)। गारो समुदाय, एक जीवंत और बेजोड़ सांस्कृतिक विरासत का धनी है, जो उनके पारंपरिक परिधान में सुंदरता से प्रदर्शित होती है।

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गारो लड़का और लड़की, अपने पारंपरिक परिधान में। छवि स्रोत : विकिमीडिया कॉमन्स

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रेसुबेलपारा, उत्तरी गारो पहाड़ियाँ, मेघालय, के ‘एवे’ त्योहार के दौरान पारंपरिक परिधान पहने गारो लड़कियाँ। छवि स्रोत : विकिमीडिया कॉमन्स

गारो महिलाएँ

डक्मंडा’, गारो औरतों का एक पारंपरिक परिधान है। यह दो-भागों के जोड़े से बनता है, जिनमें एक ऊपरी चोली और लपेटकर पहना जाने वाला घाघरा शामिल हैं। ‘डक्मंडा’, हाथ की महीन बुनाई वाला, अपरिष्कृत सूती कपड़े से बना सजावटी आयताकार कपड़ा होता है, जो महिलाओं द्वारा अधोवस्त्र के रूप में सुंदरता से लपेटकर पाहना जाता है। इसकी लंबाई, घुटने से लेकर टखनों तक की होती है। इस परिधान में लगभग 6 से 10 इंच चौड़ा किनारा होता है, जिसमें फूलों के पैटर्नों, चौड़ी क्षैतिज पट्टियाँ, और अन्य अलंकृत पैटर्न होते हैं। ‘डक्मंडा’ के निचले भाग में किनारे पर ‘मिक्रोन’ नामक पारंपरिक सकेंद्रित हीरे की आकृतियों बनी होती हैं, जिसका गारो में अर्थ ‘आँख’ होता है। इस वस्त्र की बुनाई की अनोखी विशेषताओं में सीधी और आड़े-तिरछी रेखाओं तथा क्रॉस के रूपंकानों जैसे ज्यामितीय डिज़ाइन शामिल हैं।

अतीत में, हर घर में कटि करघा होता था, और महिलाएँ एक न्यूनतम कटि वस्त्र पहनती थीं, जिसे 'ईकिंग' के नाम से जाना जाता था। इसके डिज़ाइन को कुशलतापूर्वक बनाया जाता था, जिसमें किनारी को वज़नदार बनाने के लिए, हाथी दाँत से बने मनकों का उपयोग किया जाता था। इससे सुनिश्चित तौर पर यह वस्त्र अपनी जगह पर सुरक्षित बना रहता था। महिलाएँ, ‘ईकिंग’ को बिना ऊपरी चोली के और केवल गले के आभूषण के साथ पहनती थीं। परंतु, ‘ईकिंग’ का अंततः उपयोग बंद हो गया, और ‘डक्मंडा’ पसंदीदा परिधान के रूप में उभरने लगा। परंपरागत तौर पर, ‘डक्मंडा’ को एक प्रकार के लंबे रेशेदार कपास से प्राप्त किए गए धागों से बुना जाता है, जिन्हें गारो में 'किल्डिंग' कहा जाता है। आमतौर पर, इस परिधान के साथ ‘चादोर’ नाम की एक शॉल भी पहनी जाती है, जो मिलती- जुलती कढ़ाई और मनके के काम से अलंकृत होती है।

अधिकांश महिलाओं को 'डक्साड़ी' धारण किए हुए देखा जा सकता है। यह लपेटकर पहनने वाला परिधान है, जिसे आमतौर पर घर के अंदर और बाहर भी पहना जाता है। ‘डक्मंडा' के विपरीत, ‘डक्साड़ी’ अत्यधिक सादगी और विनम्रता की भावना का प्रतीक है, और इसकी कम लागत के कारण, यह आम गारो महिलाओं के सबसे अधिक लोकप्रिय परिधानों में से एक है। एक अन्य प्रकार के लपेटकर पहनने वाले घाघरे को 'गाना' के नाम से जाना जाता है, और यह भी सादा होता है। अपने छोटी लंबाई के कारण, इसे सामान्यतः घर में विभिन्न कामों और दैनिक गतिविधियों को करते समय पहना जाता है। इन परिधानों के अतरिक्त, महिलाएँ अपने पारंपरिक संपरिधानों के साथ मिलती-जुलती शीश की पट्टी भी पहनती हैं, जिसे ‘कोटिप’ कहते हैं। इसे सूती कपड़े से तैयार किया जाता है, और मनके के महीन काम से अलंकृत किया जाता है। 'कोटिप' महिलाओं के परिधान में मनोहरता का आभास जोड़ता है।

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गारो समुदाय द्वारा मनाए जाने वाले फ़सल के उत्सव, ‘वंगाला’, के दौरान अपने पारंपरिक परिधान में गारो महिलाएँ। छवि स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स

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गारो पुरुष अपने पारंपरिक परिधान में। छवि स्रोत : विकिमीडिया कॉमन्स

गारो पुरुष

पुरुष प्रायः 'गंडो' पहनते हैं। यह कमर पर पहना जाने वाला वस्त्र है, जिसमें पीतल की प्लेटें होती हैं, जिनकी लंबाई लगभग 6 से 7 फ़ीट, और चौड़ाई 6 इंचों तक की होती है। इसपर पारंपरिक रूपांकन बनाए जाते हैं, जिनमें ‘मिक्रोन’ नामक सकेंद्रित हीरे के आकार के रूपांकन शामिल होते हैं। स्थानीय पुरुष 'कोटिप' नामक एक शीश की पट्टी का भी उपयोग करते हैं, जिसे मनके के काम से अलंकृत, गहरे नीले या सफ़ेद सूती कपड़े से बनाया जाता है। पुरुषों के पारंपरिक परिधान का एक अन्य अंश, 'पाँडरा' है - एक कपड़ा जो छाती पर आड़ा-तिरछा करके पहना जाता है। गारो समुदाय के लोग एक हार पहनते हैं, जिसे 'रिगिटोक' कहा जाता है। इस हार में पतली काँच की नलियाँ होती हैं, जिन्हें एक महीन धागे में पोरोया धा जाता है। इसे, पुरुष और महिलाएँ, दोनों ही विभिन्न अवसरों पर पहनते हैं।

गारो लोगों के द्वारा पहने जाने वाले पारंपरिक परिधानों से ना केवल उनके समृद्ध इतिहास और कलात्मक निपुणता, बल्कि प्रकृति से उनके गहरे लगाव और उनकी विशिष्ट जीवन शैली के बारे में भी पता चलता है।

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गारो जनजाति द्वारा मनाए जाने वाले फ़सल के उत्सव, ‘वंगाला’, के दौरान अपने पारंपरिक परिधान में गारो पुरुष और महिलाएँ। छवि स्रोत : विकिमीडिया कॉमन्स