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हिमालय की थांका चित्रकला

आध्यात्मिक तत्वों के अतिरिक्त, बौद्ध धर्म ने पूरे उपमहाद्वीप में कला एवं संस्कृति और चित्रकारियों, संरचनाओं व मूर्तियों समेत, कलाकारों की कई सुंदर संरचनाओं को प्रेरित किया। थांका, मुख्य रूप से पवित्र पट्ट चित्रकारियाँ होती हैं, जो महात्मा बुद्ध, बौद्ध देवताओं, साधुओं और स्वामियों के जीवन में होने वाली आध्यात्मिक महत्व की घटनाओं को प्रतिपादित करती हैं। ये उन मण्डल रचनाओं को भी दर्शाती हैं, जो ध्यान लगाने की प्रक्रिया के साथ, प्रतीकात्मक रूप से भी महत्वपूर्ण हैं। ये चित्रकारियाँ बौद्ध समुदायों के रहन-सहन और प्रचलित परंपराओं का एक भाग हैं, जिसके कारण ये उनके समक्ष एक गहरी श्रद्धा का स्त्रोत भी मानी जाती हैं। इन चित्रकारियों की बुनियादी रचनाएँ और छवि-चित्रणों का प्रयोग, दोनों ही इन्हें दिव्य बनाने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

एक थांका चित्रकारी की चित्रात्मक रचनाएँ बहुत पेचीदा होती हैं। इसमें ऐसे कई तत्व हैं जिन्हें निपुणता और सटीकता से निष्पादित किए जाने की आवश्यकता होती है। प्रारंभ में, इन्हें बौद्ध लामा और साधु चित्रित किया करते थे। सामान्य कलाकारों के हाथों में यह कला काफ़ी समय बीतने के बाद ही सौंपी जाती थी। हालाँकि, इन सामान्य कलाकारों को भी, इनमें महारत हासिल करने के लिए बहुत कड़े प्रशिक्षण से गुज़रना पड़ता था।

 

आवदान आख्यान के दृश्यों में शाक्यमुनि बुद्ध

धर्मशाला की नॉरबुलिंका संस्था में थांका कलाकार

थांका चित्रकारी बनाने के आरंभिक चरणों में बाँस या लकड़ी के फ्रेम् पर एक कपड़ा लटकाकर उसे ताना और कसा जाता है, ताकि इसे एक समतल आधार प्रदान किया जा सके और कपड़ा कहीं से भी ढीला न हो। इसका आधार गोंद और चॉक से बनाया जाता है। कभी-कभी इनमें एक हल्का व्यंजक भी मिलाया जाता है। आधार के सूखने के बाद, आरेख की बाहरी रेखा बनाई जाती है। चित्रकारी को रूप देने के लिए, यह एक महत्त्वपूर्ण चरण है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि इस आरेख के ज़रिए मनुष्य दृष्टिगत रूप से आध्यात्मिक दुनिया तक पहुँच सकता है। मुद्राओं और हाव-भावों को आरेखित करते हुए, कलाकार ठोस दिशा-निर्देशों का पालन करते हैं, जो चित्रकारी की भावनाओं और मनोदशाओं का दृश्यात्मक वर्णन करते हैं। चूँकि ये प्रतीकात्मक तत्व इन चित्रकारियों के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण होते हैं, इन आरेखों को सममितीय और छवि-चित्रण के जाली-नुमा पैटर्नों में विभाजित किया जाता है। अंतिम चरण में कलाकार चित्रकारी में रंग भरता है, जिनसे गहराई की अनुभूति होती है। शुरुआत में तो सब्ज़ियों और खनिज पदार्थों से प्राप्त प्राकृतिक रंगों का ही उपयोग किया जाता था, लेकिन बाद में ऐक्रिलिक रंगों की सहज उपलब्धता के कारण वे अधिक लोकप्रिय हो गए। चूँकि बौद्ध धर्म में प्रत्येक रंग एक अलग देवता को दर्शाता है और एक अलग अर्थ स्पष्ट करता है, इसलिए रंग ही इस चित्रकारी की विशेषताओं को उभारते हैं। सबसे पहले चित्रकारी की पृष्ठभूमि को रंगों से भरा जाता है और उसके बाद अग्रभूमि में रंग किए जाते हैं। देवताओं की मुखाकृति को सबसे अंत में भरा जाता है।

इस चित्रकला का महत्व कलात्मक से धार्मिक, रातों-रात नहीं हुआ है। मठों में रहने वाले कलाकारों और साधुओं से बातचीत करने पर आपको थांका के निर्माण में लगने वाले परिश्रम के साथ-साथ यह भी समझ आता है कि कलाकार के लिए यह पूरी प्रक्रिया एक पवित्र रिवाज की तरह है। थांका को तीन चरणों में अपनी दिव्यता प्राप्त होती है। पहला चरण है आरेख बनाना, जो सटीक होना चाहिए और जिसके दिशा-निर्देशों का विधिपूर्वक पालन करना चाहिए। पहले चरण में इन चित्रकारियों को पारंपरिक रूप से रीतिगत बनाने के बाद, एक प्रतिष्ठान के ज़रिए इनमें प्रबोधन की भावना उत्पन्न होती है, जिसके पश्चात इस रिवाज के दूसरे चरण की शुरुआत होती है। थांका चित्रकारियाँ एक कलाकार के पूर्ण समर्पण और निष्ठा को दर्शाती हैं और  यही चीज इस चित्रकला को दिव्य बनाती है। वास्तविकता में, इनमें लगने वाला लंबा समय, कलाकार के लिए एक बेहद ध्यानमग्न अनुभव होता है।

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