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कबूतर-बाज़ी

पुराने वक्त में कबूतर सबसे भरोसेमंद दूत हुआ करते थे। नियमित रूप से त्वरित संचार की आवश्यकता को देखते हुए, शासकों ने महसूस किया कि कबूतरों के माध्यम से संदेश भेजना सबसे महफ़ूज़ और सुरक्षित तरीका है। समय के साथ, कबूतरों की भूमिका केवल संदेशवाहक की ही नहीं रही और उन्हें जल्द ही खेल के लिए भी इस्तेमाल किया जाने लगा। दिलचस्प बात यह है कि आधुनिक समय के कबूतर-बाज़ी के खेल का एक लंबा इतिहास रहा है और यह मुगल शासन के दौरान प्रसिद्ध हुआ था।

KABUTAR-BAAZI

उड़ते हुए कबूतर (पुरानी दिल्ली)

KABUTAR-BAAZI

अपने पक्षियों के साथ कबूतर-पालक

मुगल बादशाह बाबर के संस्मरण तुज़्क-ए-बाबरी में इस खेल का कई बार ज़िक्र किया गया है। जब शाहजहाँ ने राजधानी को आगरा से दिल्ली स्थानांतरित किया, तब शाहजहाँनाबाद के नाम से प्रसिद्ध पुरानी दिल्ली में कबूतर-बाज़ी शुरू हुई। पहली बार खेल देखने वाले किसी आम आदमी के लिए, कबूतर-बाज़ी पुरुषों के एक सामान्य समूह द्वारा महज़ अपने कबूतरों को उड़ाना और उन्हें वापस बुलाना प्रतीत हो सकता है।

परंतु, यह खेल इससे कहीं अधिक है। इस खेल में कबूतरों को अपने दरबों से उड़ने और अन्य झुंड के कबूतरों के साथ वापस लौटने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। कबूतरों को अपने मालिक की आवाज़ पर प्रतिक्रिया करना भी सिखाया जाता है। 'काबुक' कहलाए जाने वाले कबूतरों के दरबे, मालिकों के घरों की छतों पर बड़ी सावधानी और प्रेमपूर्वक बनाए जाते हैं। किसी भी अन्य कुशल समूह की तरह, कबूतर-पालक भी एक विस्तृत पदानुक्रम का पालन करते हैं। इनमें सबसे वरिष्ठ ‘उस्ताद’ कहलाए जाते हैं, उसके बाद ‘खलीफ़ा’ और फिर शागिर्द होते हैं। जब कोई अपनी शिक्षा पूरी करके अंत में शागिर्द बन जाता है, तब कबूतर-पालकों की पूरी बिरादरी के लिए भव्य दावतें आयोजित की जाती हैं।

प्रत्येक उस्ताद का एक शिष्य होता है, जिसे शागिर्द कहा जाता है, जो समय के साथ उस्ताद के पद तक पहुँच जाता है। खेल में दावेदार को, उस्ताद से मुकाबला करने से पहले, खलीफ़ा से मुकाबला कर उसे हराना होता है। अक्सर उस्ताद की उपाधि पीढ़ी दर पीढ़ी दी जाती है, जिसमें यह पिता से पुत्र को प्राप्त होती है। हालाँकि, उपाधि का दिया जाना केवल रक्त संबंधों तक ही सीमित नहीं होता है। उस्ताद की उपाधि प्राप्त करने के लिए, कबूतर-पालक को शागिर्द का कौशल और अनुभव हासिल करना होता है। एक शागिर्द का उस्ताद के दर्ज़े को हासिल कर पाना खुशी का अवसर होता है, जिसे नए उस्ताद के सिर पर पगड़ी बाँधने के साथ मनाया जाता है।

कबूतर-बाज़ी के खेल में दो दल और उनके पक्षियों का समूह शामिल होता है। खेल आमतौर पर 30 मिनट तक चलता है, और भाग लेने वाले कबूतर अपने मालिक के मौखिक निर्देशों का पालन करने के लिए अच्छी तरह से प्रशिक्षित किए जाते हैं। मालिक अपने कबूतरों को सुगंधित पानी से नहलाते हैं और उनके पतले पैरों पर छोटे-छोटे फ़ीते बाँधते हैं, ताकि एक कबूतर की दूसरे से पहचान अलग करना आसान हो सके। प्रतियोगिता की निगरानी करने के लिए, अंपायरों की तीन जोडियाँ अलग-अलग जगहों पर तैनात की जाती हैं - एक जोड़ी शुरुआती बिंदु पर, दूसरी बीच में और तीसरी जोड़ी अंतिम बिंदु पर स्थित होती है। आमतौर पर मुंसिफ़ के रूप में जाना जाने वाला अंपायर, एक तेज़ दृष्टि वाला अनुभवी खिलाड़ी होता है, क्योंकि उसे कबूतरों के प्रत्येक झुंड द्वारा तय की गई दूरी पर नज़र रखनी होती है। उसे इस बात पर भी ध्यान देना होता है कि कौन सा झुंड समय पर वापस आया और कौन सा झुंड विचलित हुए बिना अपने मालिक की आवाज़ का अनुसरण करता रहा। इन तीन बातों के आधार पर एक कबूतर-बाज़ को विजेता घोषित किया जाता है। जीत का जश्न मनाया जाता है, जिसमें विजेता, कबूतर-पालकों के पूरे समुदाय के लिए पारंपरिक रात्रिभोज का आयोजन करता होता है।

KABUTAR-BAAZI

अपने झुंड के साथ एक उस्तााद

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एक अभ्यास क्रम (जामा मस्ज़िद पर वास्तविक प्रतियोगिता के पहले)

जब एक झुंड में से कोई कबूतर दूसरे झुंड में शामिल हो जाता है, तो मूल मालिक उस कबूतर पर अपना अधिकार खो देता है। मालिक को अपने कबूतर को वापस पाने के लिए उस कबूतर की नस्ल और कौशल के अनुसार उचित राशि का भुगतान करना होता है। उसके बाद भी, इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि कबूतर नए झुंड में फ़िर से शामिल नहीं होगा।

यद्यपि कबूतर-बाज़ी मुगल काल के नवाबों का पसंदीदा मनोरंजन था और उत्तर भारत में गरिमा, गौरव और सम्मान का खेल माना जाता था, परंतु आज इसे उस उत्साह के साथ नहीं खेला जाता है, जैसा कि अतीत के दिनों में खेला जाता था।