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कच्छ की धातु की घंटियाँ

बन्नी, जो कि एशिया का सबसे बड़ा और उत्कृष्ट घास का मैदान है, कच्छ के रण के दक्षिणी किनारे पर स्थित है। यहाँ के स्थानीय खानाबदोश समुदायों (मालधारी) का प्रमुख व्यवसाय पशुचारण है। मालधारियों को यह नाम उनके पेशे से मिला है, जिसका अर्थ है, मवेशियों (माल) को रखने वाले (धारी)। ये चरवाहे देशी नस्लों, जैसे बन्नी भैंस, कंक्रेज मवेशी, सिंधी घोड़ों और कच्छी ऊँटों को पालते हैं। ये समुदाय अपने जानवरों और सीमित संपत्ति के साथ देश भर में महीनों तक यात्रा करते हैं। पशुचारकों की यह समृद्ध परंपरा लगभग 500 साल पुरानी है, जब इस प्रवास का केंद्र बन्नी था, जहाँ सिंध और बलूचिस्तान (आधुनिक पाकिस्तान में) और यहाँ तक कि अफ़गानिस्तान से भी चरवाहे आया करते थे।

खानाबदोश मालधारी समुदाय

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मालधारी और उसकी घास चरती हुईं भैंसे

मालधारियों में जाट, मुतवा, समा, रबाड़ी, भारवाड़ जैसे समुदाय भी शामिल हैं। इन खानाबदोश समुदायों और आसपास बसे गाँवों के बीच पारस्परिक क्रियाएँ सिर्फ आर्थिक गतिविधियों तक ही सीमित थीं। एक ओर जहाँ वे ग्रामीणों के लिए दूध, घी, ऊन, चमड़ा आदि उत्पादों की आपूर्ति करते थे, वहीं बदले में ग्रामीण उन्हें बुने और रंगे हुए कपड़े, लाख के बर्तन, जूते और अन्य वस्तुएँ देते थे। चरवाहों के लिए सबसे व्यवहारिक वस्तुएँ घंटियाँ थीं, जो उनके जानवरों की गर्दनों में बाँधने के काम आती थीं। प्रत्येक परिवार के पास 20 से 50 जानवरों के झुंड होते थे। ये घंटियाँ मालिकों को अपने जानवरों की पहचान करने में भी सहायता करती थीं और जानवरों को एक दूसरे का पता लगाने में भी मदद करती थीं, ताकि वे झुंड से अलग होकर भटक ना जाएँ। लोहार समुदाय द्वारा बनाई गई ये तांबे की परत वाली घंटियाँ कच्छ तब पहुँचीं, जब वे अपने मूल स्थान सिंध (अब पाकिस्तान में) से यहाँ आए।

तांबे की परत वाली घंटी बनाने की प्रक्रिया में लोहार परिवारों के पुरुष और महिला दोनों ही शामिल होते थे। प्रारंभिक प्रक्रिया में, धातु के टुकड़ों की पतली परतों को खोखला बेलनाकार दिया जाता है। बेलन के एक सिरे पर धातु का एक गुंबद जैसा हिस्सा बनाया जाता है और उस पर धातु की एक पट्टी लगा दी जाती है जिससे घंटी को लटकाया जा सके। एक बार जब पुरुषों द्वारा यह खोखला बेलन बना दिया जाता है, उसके बाद परिवार की महिलाएँ इसे मिट्टी और पानी के घोल में डुबा देती हैं। यह मिट्टी का मिश्रण एक परत बना देता है, जिसपर बाद में पीतल और तांबे के मिश्रित चूरे का लेप लगाया जाता है। इसके बाद, महिलाएँ मिट्टी के मिश्रण और रुई की रोटी बनाती हैं, उसमें घंटी लपेटती हैं और फिर उसे पकने के लिए भट्ठी में रख देती हैं। इसके ढंग से पक जाने के बाद, मिट्टी और कपास की परत को छील कर निकाल दिया जाता है, और घंटी को अच्छे से चिकना किया जाता है। पुरुष फिर घंटी के खोखले भाग के अंदर स्थानीय लकड़ी, शीशम से बना एक घंटी जैसा बजने वाला हिस्सा लगा देते हैं। फिर प्रत्येक घंटी को चरवाहों की आवश्यकताओं के अनुसार, ठीक तरह से समस्वरित (ट्यून) किया जाता है। ऐसा कहा जाता है, कि घंटी को किसी विशेष स्वर के अनुसार समस्वरित करने के लिए भी एक विशेष कौशल की आवश्यकता होती है, जो केवल कुछ ही घंटी बनाने वालों के पास होता है। इस प्रक्रिया की सबसे खास बात यह है, कि किसी भी प्रकार की झलाई (वेल्डिंग) या कील का उपयोग किए बिना धातु के सभी टुकड़े हथौड़े से पीटकर, एक इंटरलॉकिंग पद्धति से जोड़े जाते हैं।

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धातु की घंटियाँ बनाने की प्रक्रिया में लोहार परिवार के पुरुष और महिला दोनों ही सदस्यों का योगदान देखा जा सकता है

परंपरागत रूप से, घंटियों को अपने आकार के आधार पर अलग-अलग नाम दिए जाते थे, जैसे- छोटा पाइला, पाइला डिंगला, दो डिंगला। विभिन्न प्रकार के जानवरों के लिए तेरह तरह के आकारों की घंटियाँ बनाई जाती थीं। इस प्रकार, एक बकरी के गले में उच्च-स्वर वाली एक छोटी घंटी और गाय के गले में गहरे स्वर वाली बड़ी घंटी बाँध दी जाती है। यहाँ तक ​​कि एक ही आकार की घंटियों को मवेशियों के अलग-अलग मालिकों के बीच अंतर करने के लिए अलग-अलग ध्वनियों या सुरों के अनुसार विशिष्ट रूप से बनाया जाता  था। प्रत्येक आकार में पाँच या छह प्रकार के स्वर होते थे।

वर्तमान में, कच्छ के यह घंटी बनाने वाले ज़्यादातर समुदाय, भुज तालुका के निरोना गाँव में रहते हैं। वे उन्हीं तकनीकों का उपयोग करके घंटियाँ बनाते हैं, लेकिन आज ये घंटियाँ केवल पशुझुंड और मवेशियों के लिए ही उपयोग नहीं की जाती, बल्कि वे इतनी सुंदर होती हैं, कि अब उन्हें व्यावसायिक रूप से घरेलू सजावट के लिए भी बेचा जाता है।

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स्रोत- बन्नी में, धातु की घंटी पहने हुए एक भैंस

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अलग-अलग मवेशियों के लिए अलग-अलग आकार की घंटियों का इस्तेमाल किया जाता है।