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खारी बावली

एशिया के सबसे बड़े मसाला बाज़ारों में से एक, पुरानी दिल्ली के ‘खारी बावली’ बाज़ार की सैर किसी भी रसोइए के लिए आनंददायक हो सकती है। जोशपूर्ण आवाज़ों से गूँजता और मसालों की मोहक सुगंध से सराबोर यह बाज़ार, चांदनी चौक के पश्चिमी छोर पर, लाल किले के नज़दीक और जामा मस्ज़िद के बगल में स्थित है। खारी बावली का वास्तव में बहुत पुराना इतिहास है। यह लगभग उसी समय बना था जिस समय 1650 ईस्वी में फ़तेहपुरी मस्ज़िद का निर्माण हुआ था। ‘खारी’ शब्द का अर्थ नमकीन या खारा होता है, और ‘बावली’ शब्द का अर्थ सीढ़ीनुमा कुआँ होता है। हालाँकि खारी बावली नाम का अर्थ बावली में पाए जाने वाले खारे पानी से है, लेकिन आज ना तो यहाँ कोई बावली है और ना ही आसपास कोई पानी का स्रोत। इसलिए, इस बाज़ार का नाम जिस बावली के नाम पर पड़ा, उसे केवल इतिहास के पन्नों में ही पाया जा सकता है।

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खारी बावली - मुख्य मार्ग

हालाँकि यहाँ बावली की मूल संरचना का कोई अवशेष नहीं मिलता है, फिर भी यह पूरा इलाका बहुत पुराना जान पड़ता है। ऐसा कहा जाता है कि शेरशाह सूरी के पुत्र इस्लाम शाह के शासनकाल के दौरान बावली पर काम शुरू हुआ था। इस बावली के अवशेष खो जाने के बाद उसकी जगह यहाँ खारी बावली नामक मसाला बाज़ार बना। जिस गली में यह मसाला बाज़ार स्थित है, वहाँ 1920 के दशक में लक्ष्मी नारायण गड़ोदिया ने एक हवेली बनवाई थी। वर्तमान में, यह गली स्थानीय दुकानदारों द्वारा सार्वजनिक रूप से गड़ोदिया बाज़ार के रूप में जानी जाती है, और यह थोक और खुदरा व्यापार का केंद्र है। इस विशाल परिसर में दुकानें और गोदाम हैं, जिनकी सबसे ऊपरी मंज़िलों में लोगों के घर हैं। दिलचस्प बात यह है कि इन दुकानों के नाम आज तक उसी तरह बरकरार हैं जिस तरह बाज़ार की स्थापना के समय उपयोग में थे, जैसे ‘15 नंबर की दुकान’, ‘चावल वाले 13’, इत्यादि। इस बाज़ार की प्रत्येक दुकान पुराने ज़माने की याद दिलाती है।

गड़ोदिया बाज़ार की छत पर जाने से, इस हवेली के केंद्रीय प्रांगण और पास के खारी बावली बाज़ार का एक निर्बाध दृश्य दिखाई देता है। उस बाज़ार में स्थित इमारतें, वास्तुकला की मिश्रित शैली का एक जीवंत उदाहरण हैं- यानी इनमें भारतीय स्थापत्य तत्वों के साथ विक्टोरियन, एडवर्डियन और जॉर्जियन काल के यूरोपीय प्रभावों का एक सहज संयोजन है। हालाँकि वे स्पष्ट रूप से यूरोपीय शैली की दिखती हैं, किंतु छज्जे और छतरियों जैसे उनके सजावटी तत्वों में एक सुस्पष्ट भारतीय प्रभाव नज़र आता है। आगंतुकों को छत से, लाल किला, जामा मस्ज़िद, पास की फ़तेहपुरी मस्ज़िद, कबूतर-बाज़ी (कबूतरों की लड़ाई) और पतंगबाज़ी का अद्भुत नज़ारा दिखाई देता है। औपनिवेशिक काल के समय की इस पुरानी हवेली का रूप पूरी तरह से बदल गया है जो आज के समय में मसालों की खुशबू से महकती है।

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गड़ोदिया बाज़ार की छत से एक दृश्य

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मसाले ही मसाले

खारी बावली में विभिन्न प्रकार के मसाले मिलते हैं, जिनमें स्थानीय और विदेशी दोनों प्रकार के मसाले शामिल हैं, और यहाँ मसालों की उपलब्धता को देखकर भारत को मसालों की भूमि कहे जाने के पीछे का कारण आसानी से समझ आ सकता है। लाल मिर्च, हल्दी, और तेजपत्ते से लेकर, आसानी से ना मिलने वाले मसालों तक, ये सभी इस बाज़ार में उपलब्ध हैं। ऐसा कहा जाता है कि इस बाज़ार में लगभग 100 अलग-अलग मसालों का कारोबार होता है, और हर एक मसाले की कई किस्में भी यहाँ उपलब्ध हैं। आप व्यापारियों को उनके पूर्वजों के चित्रों के नीचे बैठे तथा व्यवस्थित और अनुशासित तरीके से अपना व्यापार करते हुए पा सकते हैं। और ध्यान देने योग्य बात यह है कि अधिकांश व्यापारी अपनी पाँचवीं- या छठी- या दसवीं पीढ़ी के मसाला व्यापारी हैं।

हर तरफ़ फैली मसालों की गर्द के कारण बंद हो गई शिरानाल के बावजूद, यहाँ रोज़ आने वाले मजदूरों और ग्राहकों, और पीढ़ियों से अपनी आजीविका की खोज में आए सौदागरों और व्यापारियों के माध्यम से, खारी बावली में इंसानी उत्साह का मार्मिक प्रतिबिंब देखते ही बनता है। हाल ही में, यह अंतरराष्ट्रीय और घरेलू यात्रियों, विरासत प्रेमियों और फ़ोटोग्राफ़रों के लिए एक जाना-माना गंतव्य बन गया है, जहाँ उन्हें पुरातन पृष्ठभूमि के विपरीत आधुनिकता का अनुभव करने और देखने को मिलता है।