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माजुली के पारंपरिक मुखौटों की संस्कृति

असम का माजुली द्वीप नव-वैष्णव संस्कृति का एक केंद्र है। 15वीं -16वीं शताब्दी के वैष्णव संत, श्रीमंत शंकरदेव ने यहाँ नव-वैष्णववाद के दर्शन शास्त्र का प्रचार किया था। उन्होंने नव-वैष्णव संस्कृति के प्रचार के लिए और उसकी अटलता को बनाए रखने के लिए, सत्तरा संस्थानों को स्थापित किया था। सत्तरों की स्थापना ने जनता के समक्ष अभिनय कलाओं की प्रस्तुति को संभव बनाया। पौराणिक पात्रों की विभिन्न अभिव्यक्तियों को चित्रित करने के लिए, शंकरदेव ने भाओना के नाट्य प्रदर्शनों में मुखों या मुखौटों के उपयोग की शुरुआत भी की। 1468 में उन्होंने सिहना यात्रा नामक अपनी पहली एकांकी के लिए ब्रह्मा, गरुड़ और हारा के मुखौटे तैयार किए। माजुली के सत्तरों में मुखौटा बनाने की यह ऐतिहासिक परंपरा, अभिनय कला के माध्यम से संवाद करने का एक कलात्मक ज़रिया हैं।

भाओना का एक दृश्य

सत्तरिया मुखौटे या मुख, जैव-निम्नीकरणीय सामग्री जैसे बाँस, बेंत, कुम्हार-माटी, गाय के गोबर, रस्सी, कागज़, रुई, कपड़ा, शोलापीठ और प्राकृतिक रंगों से बनाए जाते हैं। अंतिम उत्पाद तैयार करने के लिए शिल्पकार एक निश्चित प्रक्रिया क्रम का पालन करते हैं। यह प्रक्रिया एक मूल संरचना से शुरू की जाती है, जिसे एक षट्भुज आकार में प्रबंधित चिरे हुए बाँस का उपयोग करके बनाया जाता है। लचीलेपन के लिए इसे दो से तीन साल पुरानी जातिबा (एक प्रकार का बाँस) की आवश्यकता होती है। इसकी षट्भुज संरचना को कुम्हार की मिट्टी में डूबे एक सूती कपड़े की परत से ढका जाता है। गाय के गोबर और चिकनी मिट्टी के एक मिश्रण को कपड़े पर लगाकर धूप में सूखने के लिए छोड़ दिया जाता है। मुखौटा सूख जाने के बाद, शिल्पकार उसकी दिखावट पर काम करते हैं। इस चरण के बाद, कपड़े को चिकनी मिट्टी में डूबे मुखौटे पर चिपका दिया जाता है। जब मुखौटा पूरी तरह से सूख जाता है, तब इसे प्राकृतिक रंगों से रंग दिया जाता है।

एक मुखौटे का षट्भुज पैटर्न

सूती कपड़े पर मिट्टी और गोबर का मिश्रण लगाता हुआ एक कलाकार

मुखौटा बनाने के विभिन्न चरण। छवि स्रोत–आखाई ज्योति महंत

ये मुखौटे रूपात्मक और संरचनात्मक उद्देश्यों से बनाए जाते हैं। संरचनात्मक मुखौटों में लौकिक और अलौकिक मुखौटे सम्मिलित होते हैं। लौकिक मुखौटे मनुष्यों और जानवरों को दर्शाते हैं, और अलौकिक मुखौटे अनन्य रूप से असांसारिक पात्रों के लिए होते हैं। इसके संरचनात्मक उद्देश्य तीन प्रकारों में विभाजित हैं- पहला, मुख मुख या मुर मुख जो केवल अभिनेता के मुख को ढकने के लिए बनाया जाता है, दूसरा, बोर मुख या सु मुख जो लगभग कलाकार के पूरे शरीर को ढकता है। बोर मुख के ऊपरी भाग को मुख कहते हैं, और शरीर को सु। तीसरा प्रकार, जिसे लुतुकई या लुतुकोरी कहा जाता है, तुलना में सु मुख से भी छोटा होता है।

 

विभिन्न प्रकार के मुख (मुखौटे)

माजुली में विभिन्न प्रकार के मुखौटों के साथ एक कलाकार

विभिन्न प्रकार के मुख (मुखौटे)

मुखौटा बनाने की माजुली की परंपरा पिछली कई सदियों से हमारी अमूर्त सांस्कृतिक विरासत की एक समृद्ध विशेषता रही है। यह श्रीमंत शंकरदेव द्वारा सत्तरिया संस्कृति में शुरू की गई एक कलात्मक विवेचना है। सदियों पुरानी इस परंपरा में शामिल कौशल को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित किया जा रहा है। आज मुख या मुखौटों का उपयोग सत्तरा और नामघर के सांस्कृतिक स्थलों से बहुत आगे निकल चूका है, हालाँकि इसके बनाने की प्रक्रिया आज भी वही है। पारंपरिक नाट्य प्रदर्शनों के अलावा, इन मुखौटों का उपयोग अब विभिन्न रूपों में किया जाता है- जैसे आधुनिक नाटकों, घर की सजावटों और संग्रहालय के प्रदर्शनों में। माजुली के मुखौटा कलाकार अपने पारंपरिक शिल्प-कौशल के माध्यम से वैश्वीकरण की अभिव्यक्तियों को दर्शाने की आकांक्षा भी रखते हैं। इस कला के साथ किए गए नवीन प्रयोग ने इस परंपरा को दुनिया भर में लोकप्रिय बना दिया है। ये मुखौटे विभिन्न आकारों में उपहारों के रूप में भी दिए जाते हैं। यह मुखौटा बनाने की इस विरासत को वर्त्तमान में जीवित रखने का एक संगठित प्रयास है।

मुखौटा बनाने की कार्यशाला का एक दृश्य। छवि स्रोत–उद्दीपन शर्मा

तेज़पुर विश्वविद्यालय के संग्रहालय में प्रदर्शित एक मुखौटा