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मांडवी की पोतनिर्माण परंपराएँ

किसी वक्त में एकाकी रहने वाला कच्छ-द्वीप, अपने उत्तर और पूर्वी छोर में रण (रेगिस्तान) कहलाए जाने वाले नमक-दलदलों के एक विशाल वृक्षहीन इलाके से घिरा था। दक्षिण और पश्चिम की ओर यह समुद्र और उसकी समृद्धियों से घिरा था। एल एफ़ रशब्रुक विलियम्स ने अपनी पुस्तक, ‘द ब्लैक हिल्स - कच्छ इन हिस्ट्री ऐंड लेजेंड’ में कहा है कि, “यह कोई आश्चर्य की बात नहीं, कि कच्छ के निवासी समुद्री-यात्राओं में इतने माहिर हो गए”, क्योंकि दुनिया के बाकी हिस्सों में आने-जाने के लिए, समुद्र ही उनका मुख्य मार्ग था। इस लंबी समुद्र-यात्रा की परंपरा को न केवल नाविकों द्वारा, बल्कि व्यापारियों और सौदागरों द्वारा भी अपनाया जाता था, जो पूर्वी अफ़्रीका, अरब और फ़ारस की खाड़ी से लगातार आते-जाते रहते थे। कच्छ के ये नाविक इतने कुशल थे, कि जब वास्को डी गामा ने यूरोप से एशिया के लिए अपने मार्ग की खोज की, तो कांजी मलम नामक एक कच्छी नाविक ने ही समुद्र की कठिनाइयों में जहाज़ का मार्ग-निर्देशन करने में उनकी मदद की। मलम, मांडवी नामक एक छोटे पोतनिर्माण केंद्र से आया था।

 

1880 में कच्छ का एक नक्शा

 

1581 में कच्छ के पहले जडेजा शासक, राव खेंगरजी प्रथम द्वारा स्थापित, मांडवी एक समृद्ध बंदरगाह और पोत-कारखाना था, जो मसालों के समुद्री व्यापारों के साथ रेगिस्तान के ऊँटों के कारवानों के लिए भी एक महत्वपूर्ण संधि स्थल था। आप आज भी बंदर रोड पर रुक्मावती नदी के किनारे गाड़ी चलाते हुए, इसका 400 साल पुराना पोतनिर्माण इतिहास साक्षात देख सकते हैं। नदी के किनारे खारवा समुदाय द्वारा बनाए गए दुनिया के सबसे बड़े हस्तशिल्प माने जाने वाले, लकड़ी के विशाल कच्छी डाउ देखे जा सकते हैं। डाउ शब्द का उपयोग पारंपरिक नौकायन जहाज़ों की एक शृंखला में इस्तेमाल किए जाने वाले एक या एक से अधिक मस्तूलों (या तिकोने पाल जिन्हें एक क्रॉस बीम से जोड़कर हवाओं केअनुसार नियंत्रित किया जाता है) के लिए किया जाता है। माना जाता है, कि डाउ का आविष्कार या तो भारतियों या अरबों द्वारा किया गया था और वे व्यापारिक जहाज़ थे जो अरब देशों, पूर्वी अफ़्रीका और भारतीय उपमहाद्वीप के तटों पर माल लाते और ले जाते थे।

रुक्मावती नदी के तट पर एक कच्छी जहाज़ का निर्माण
पारंपरिक पोतनिर्माण केंद्र, मांडवी, गुजरात

 

2000-टन की क्षमता वाले ये जहाज़, मलेशिया, इंडोनेशिया और बर्मा से आयातित, साल की लकड़ियों या स्थानीय बबूल के पेड़ों की लकड़ियों के बने होते हैं। डाउ बनाने की प्रक्रिया जहाज़ के ढाँचे के आधार के रूप में प्रयोग होने वाली एक लंबी धरणी (बीम), पठान बिछाने से शुरू होती है। नाव के आकार को सहारा देने के लिए इसके चारों ओर एक फ़्रेम बनाया जाता है। इसपर लगाए जाने वाले लकड़ी के बड़े तख्तों को वाकिया कहा जाता है। जब जहाज़ के वक्र भागों को एक आकार मिल जाता है, इनके बाहर पटिया नामक तख्तों से बनी लकड़ी की एक परत लगा दी जाती है। इन तख्तों को आकार देने से पहले, इन पर मिट्टी का लेप लगाया जाता है और इन्हें आग पर गर्म किया जाता है। नट और बोल्ट के साथ मज़बूती से सुरक्षित करने के बाद, तख्तों के बीच के अंतराल को मछली के तेल में डूबे हुए कपास से बने मिश्रण से भर दिया जाता है, ताकि पोत को वायुरोधी बनाया जा सके।

सीलबंदी की इस प्रक्रिया को कई बार दोहराया जाता है, ताकि जहाज़ समुद्र के तूफ़ानी मौसम के लिए पर्याप्त रूप से मज़बूत हो सके। वर्तमान में, आधुनिक तकनीकों के साथ तालमेल बैठाते हुए, कई डाउ पारंपरिक कपड़े के पालों के बजाय उपांतरित नाव इंजनों का उपयोग करते हैं।

मांडवी पोत कारखाना - एक जहाज़ की शुरुआत

घुमावदार पटिया से बनी लकड़ी की बाहरी परत "एपिक कंस्ट्रक्शन"

मांडवी में सागर शिप मॉडल संग्रहालय और कार्यशाला भी स्थित है, जो विभिन्न प्रकार के पारंपरिक भारतीय और विदेशी जहाज़ों के प्रतिरूप बनाते हैं। कार्यशाला की शुरुआत 90 वर्ष की आयु पार कर चुके, शिवजी बुद्ध ने की थी, जिन्होंने 7 साल की उम्र में ही नौकायन शुरू कर दिया था। वे बताते हैं कि, अफ़्रीका के रास्ते पर जाने वाले गुजराती नाविक समुद्र की देवी सिकोटर माँ से सुरक्षित यात्रा के लिए प्रार्थना करते थे। सेशेल्स के ईडन द्वीप पर सिकोटर माँ को समर्पित एक मंदिर भी है। देवी का आशीर्वाद और रक्षा प्राप्त करने के लिए नाविक उस जहाज़ का एक प्रतिरूप देवी को चढ़ाते थे, जिसमें वे यात्रा कर रहे होते थे।