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पट्टमड़ई पाई
तिरूनेलवेली में पट्टमड़ई की रेशम-जैसी चटाइयाँ

पारंपरिक चटाई-बुनाई का काम पूरे तमिलनाडु राज्य में एक प्रचलित व्यवसाय है।  तमिलनाडु के तिरूनेलवेली ज़िले में बसा एक छोटा-सा गाँव, पट्टमड़ई कोराई घास के इस्तेमाल से बनी हाथ की बुनी सुंदर चटाइयों के लिए प्रसिद्ध है। चटाइयाँ बुनने की यह विशिष्ट परंपरा इस क्षेत्र में सदियों पुरानी है। यहाँ इसकी शुरुआत धर्मोपदेशक सैयद खलीफ़ा मीराँ ने की थी, जो पट्टमड़ई में बसे हुए लेब्बाई समुदाय से संबंध रखते थे। लेब्बाई दक्षिण भारत के तमिलनाडु, कर्नाटक और केरल जैसे राज्यों में रहने वाले मुसलमानों का एक व्यापारी समुदाय है। चटाइयों की बुनाई इस समुदाय के परिवारों के लिए एक अतिरिक्त आय का साधन बनी। कुछ ही समय में उन्होंने इस कला में महारत हासिल करके, अपनी परंपरा अगली पीढ़ियों को सुपुर्द कर दी। इन चटाइयों की उत्पत्ति पट्टमड़ई क्षेत्र से होने के कारण तमिल में उन्हें पट्टमड़ई पाई कहा जाता है। इन चटाइयों की विभिन्न किस्में हैं जिनमें पट्टू पाई (रेशम की चटाई) या कोराई पाई (कोराई घास की चटाई) के नाम से प्रसिद्ध वे उत्कृष्ट दर्जे की चटाइयाँ भी शामिल हैं, जिन्हें छूने पर रेशम के कपड़े जैसा एहसास होता है।

 

अलग-अलग आकारों में पट्टमड़ई पाई

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चटाइयों की बुनाई करने के लिए आजकल इस्तेमाल किया जाने वाला बिजली का करघा

पट्टमड़ई पाई को बनाने की प्रक्रिया में सुखाना, भिगोना, विपाटन और रंगाई जैसी क्रियाएँ शामिल हैं। ये चटाइयाँ तिरूनेलवेली में ताम्रपर्णी नदी के किनारों पर प्रचुर मात्रा में पाई जाने वाली कोराई घास (Cyperus corymbosus rottb.) से बनाई जाती हैं। इनकी कटाई सितंबर, अक्टूबर तथा फ़रवरी, मार्च में होती है। चटाइयों के लिए सबसे लोकप्रिय कोराई घास है, करुंगडूकोराई। सबसे पहले घास का आंतरिक भाग हटाकर उसकी पट्टियों को हल्का पीला होने तक धूप में सुखाया जाता है। फिर उन्हें पानी में उबाला जाता है और एक बार फिर सुखाया जाता है। अंत में पट्टियों को बहते पानी में भिगोकर धूप में फिर एक बार सुखाया जाता है। एक अंतिम बार फिर धूप में सुखाने के बाद इसकी बाहरी परत को हटा दिया जाता है।  यह तकनीक सैयद खलीफ़ा मीराँ के वंशज, हसन बाबा लेब्बाई द्वारा पेश की गई थी। उन्होंने संयोग से यह खोज निकाला, कि कोराई के रेशों को पानी में भिगोने के बाद उसे कई पतले सूत्रों में विभक्त करना संभव है। इससे सूत्रों की संख्या बढ़ाने, और उनसे उत्कृष्ट दर्जे की बहुत कोमल चटाइयाँ बनाने में सहायता मिली।

सबसे आम तौर पर इस्तेमाल किए जाने वाले प्राकृतिक और रासायनिक रंग हैं — काला, लाल और हरा। इनकी बुनाई फ़र्श के करघे पर की जाती है और इस प्रक्रिया के दौरान घास को मुलायम बनाए रखने के लिए पानी का उपयोग किया जाता है। उसे फिर धूप में सुखाया जाता है और एक चिकनी परसज्जा पाने के लिए उसे पत्थर से चिकना किया जाता है। एक चटाई बनाने के लिए अक्सर दो सप्ताह से एक महीने तक का समय लगता है। उनकी बुनाई खुरदुरी या महीन होती है। सबसे मुलायम चटाई को साड़ी की भाँति मोड़ा जा सकता है और उसमें अक्सर सूत्रों की संख्या बाकी चटाइयों के मुकाबले अधिक होती है। पारंपरिक रूप से, इन चटाइयों पर वर और वधू का नाम और विवाह की तिथि लिखकर उन्हें विवाह के दिन ये तोहफ़े में दी जाती थीं। ज़्यादातर इन चटाइयों की कीमत ₹1500 से लेकर ₹15,000 के बीच होती है। आजकल के बुनकर कोराई घास की मदद से झोलों, मेज़पोशों, हाथपंखों, बटुओं और भंडारण बक्सों जैसी अन्य वस्तुएँ बनाने के लिए भी इसी तकनीक का उपयोग करते हैं। परंतु वे आज भी अपनी खूबसूरत चटाइयों के लिए ही सबसे ज़्यादा प्रसिद्ध हैं।

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तिरूनेलवेली सरकारी संग्रहालय में प्रदर्शित पट्टमड़ई पाई

मद्रास सरकार (अब तमिलनाडु) ने 1953 में पट्टमड़ई पाई को महारानी एलिज़ाबेथ द्वितीय को तोहफ़े में दिया था और इस सम्मानीय प्रयास ने पाई को अंतर्राष्ट्रीय बाज़ारों तक पहुँचाने में सहायता की। 2013 में पट्टमड़ई पाई को भौगोलिक संकेत (GI) का लेबल दिया गया।