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रामधारी सिंह दिनकर

23 सितंबर 1908 को बिहार के बेगूसराय ज़िले में जन्मे रामधारी सिंह दिनकर एक प्रख्यात भारतीय कवि थे, जिन्होंने भारत की आज़ादी की लड़ाई के दौरान अपने शब्दों और भावनाओं की ऊर्जा का प्रभावी ढंग से इस्तेमाल किया था। उन्हें 'वीर रस' (वीरता और साहस की विधा से संबंधित कविताएँ) का महानतम हिंदी कवि माना गया, और उन्हें 'राष्ट्र कवि' की उपाधि से सम्मानित किया गया।

भारत को ब्रिटिश राज से आज़ादी मिलने से पहले लिखी गई अपनी देशभक्ति की कविताओं के कारण वे एक राष्ट्रवादी कवि के रूप में उभरे। 'दिनकर' उपनाम से जाने जाने वाले, रामधारी सिंह ने पटना विश्वविद्यालय से स्नातक की पढ़ाई पूरी की। महाविद्यालय में उन्होंने राजनीति विज्ञान, इतिहास और दर्शन जैसे विषयों का अध्ययन किया, जिसने उनकी विचारधारा को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बाद में वे मुज़फ्फ़रपुर महाविद्यालय में हिंदी विभाग के प्रमुख और फिर भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति बने।

उनकी कविताओं में देशभक्ति और राष्ट्रीयता की झलक मिलती है। उन्होंने महात्मा गांधी के साथ साइमन कमीशन के विरोध प्रदर्शन के दौरान ब्रिटिश सरकार के खिलाफ़ रैलियों में भाग लिया। लाला लाजपत राय की मृत्यु और ब्रिटिश प्रशासन द्वारा किए गए अन्य अत्याचारों ने उनके काव्य विचारों को जन्म दिया। गिरफ्तार हुए बिना या ब्रिटिश अधिकारियों के रोष का सामना किए बिना अपनी कविता प्रकाशित करते रहना जारी रखने के लिए, दिनकर अपनी साहित्यिक कृतियों को 'अमिताभ' के नाम से प्रकाशित करवाते थे। ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने स्वतंत्रता सेनानी जतिन दास की शहादत के बारे में लिखी एक कविता के लिए इस छद्म नाम का इस्तेमाल किया था। वे मुख्य रूप से इकबाल, रवींद्रनाथ टैगोर, कीट्स और मिल्टन के लेखन से प्रभावित थे और उन्होंने रवींद्रनाथ टैगोर की कृतियों का बंगाली से हिंदी में अनुवाद भी किया था।

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रामधारी सिंह दिनकर

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रामधारी सिंह दिनकर का रूपचित्र

उनके शब्दों, उनके विचारों और उनके लेखन का आम जनता की आवाज़ के साथ बढ़िया तालमेल था। ऐसा ही एक उदाहरण "सिंहासन खाली करो के जनता आती है" नामक उनकी कविता है, जिसने ना केवल उनके पाठकों और अनुयायियों के बीच लोकप्रियता हासिल की, बल्कि यह जनसाधारण के लिए एक राजनीतिक नारा भी बन गई। उन्होंने समाज में प्रचलित जाति और वर्ग संबंधी पूर्वाग्रहों की आलोचना करने के लिए कलम की शक्ति का इस्तेमाल किया।

सन 1928 में प्रकाशित उनकी पहली प्रमुख काव्य रचना 'विजय संदेश', सरदार वल्लभभाई पटेल के नेतृत्व में किसानों के सत्याग्रह पर आधारित थी। हालाँकि उन्होंने आमतौर पर वीरता और स्वतंत्रता संग्राम से संबंधित प्रेरक कविताएँ ही लिखीं, किंतु उनकी कृति 'उर्वशी' इस नियम का अपवाद थी। यह पुस्तक मानवीय संबंधों के बारे में थी, और इसके लिए उन्हें प्रतिष्ठित ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया था। उनकी कुछ अन्य प्रसिद्ध कृतियों में 'धूप छाँह', 'सामधेनी', 'बापू', 'मिट्टी की ओर', और 'कृष्णा की चेतवानी' शामिल हैं। उनकी कृतियों के लिए उन्हें पद्म भूषण (1959), साहित्य अकादमी पुरस्कार (1959), और ज्ञानपीठ (1972) जैसे कई पुरस्कार और सम्मान दिए गए। सन 1952 में, वे राज्य सभा के सदस्य बने और बाद में उन्हें भारत सरकार के हिंदी सलाहकार के रूप में नियुक्त किया गया। कविता, निबंध और अन्य साहित्यिक कार्यों की समृद्ध विरासत को पीछे छोड़, 24 अप्रैल 1974 में 'राष्ट्र-कवि' दिनकर का निधन हो गया।

भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई में उनके योगदान का सम्मान करते हुए, 1999 में उनकी छवि के साथ एक स्मारक डाक टिकट जारी किया गया। इसके अतिरिक्त, उनकी स्मृति को बनाए रखने के लिए कई सड़कों और सार्वजनिक स्थानों के नाम, उनके नाम पर रखे गए हैं।

राष्ट्रीय कवि माने जाने वाले दिनकर जी, आज भी अपने उत्कट प्रशंसकों के लिए प्ररणा का स्रोत बने हुए हैं।

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एक स्मारक डाक टिकट (1999)