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सगोल कांगजेई

हरे-भरे पहाड़ों और सुंदर परिदृश्यों वाले राज्य, मणिपुर, में विविध सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों का एक खज़ाना है। यह राज्य कई प्राचीन पारंपरिक क्रीड़ाओं और खेल-कूद को बढ़ावा देने के लिए प्रसिद्ध है। ‘सगोल कांगजेई’ एक ऐसा प्राचीन खेल है, जिसे वर्तमान के पोलो का पूर्ववर्ती स्वरूप माना जाता है। 'सगोल' का शाब्दिक अर्थ ‘घोड़ा’ है, और 'कांगजेई' का अर्थ, गेंद पर वार करने के लिए एक ‘मुद्गर’ या लंबे हत्थे युक्त लकड़ी के सिरे वाला हथौड़ा है। ‘मणिपुरी पूया’ के रूप में जाने जाने वाले मेतेई ग्रंथों के अनुसार, यह प्राचीन खेल, मारजिंग और थंगजिंग सहित स्थानीय देवताओं द्वारा खेला जाता था। गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स, 1991, के अनुसार, "पोलो की उत्पत्ति के संकेत भारत के मणिपुर राज्य में लगभग 3100 ईसा पूर्व में पाए जा सकते हैं, जब इसे 'सगोल कांगजेई' के रूप में खेला जाता था।" कहा जाता है कि मणिपुर के महाराजा सर चंद्रकीर्ति सिंह (1834-44 ईस्वी) ने असम के कछर में पहली बार ब्रिटिश अधिकारियों का इस खेल से परिचय करवाया था।

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सगोल कांगजेई। छवि स्रोत : विकिमीडिया कॉमन्स

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कांगजेईरोल। छवि स्रोत : विकिमीडिया कॉमन्स

‘कांगजेईरोल’ नामक एक प्राचीन पांडुलिपि में दावा किया गया है कि ‘सगोल कांगजेई’ के खेल की शुरुआत, मणिपुर के राजा निंगथौ कंगबा (1405-1397/1359 ईसा पूर्व) के शासनकाल के दौरान, ईसा मसीह के जन्म से कुछ शताब्दियों पहले हुई थी। राजा कंगबा अपने अधिकारियों को घोड़े पर बैठकर खेलने का आदेश दिया करते थे। ‘सगोल कांगजेई’ को ‘खोंग कांगजेई’ (मैदानी हॉकी) और ‘मुक्ना कांगजेई’ (कुश्ती और हॉकी) समेत हॉकी के तीन प्रकारों में से एक माना जाता है, जिन्हें उस समय के लोग खेला करते थे। ऐसा कहा जाता है कि राजा खंगेम्बा (1597-1652 ईस्वी) के शासनकाल के दौरान हुए नियमों के संशोधनों के बाद, यह खेल काफ़ी लोकप्रिय हो गया था। मणिपुर के शाही इतिहास, ‘चीथरोल कुम्बाबा’, में लिखा है कि ‘सगोल कांगजेई’ ने कूटनीति, राजनीति, और महल की साज़िशों में भी भूमिका निभाई थी।

‘सगोल कांगजेई’ का खेल परंपरागत रूप से दो गुटों के बीच खेला जाता है, जिन्हें आमतौर पर उत्तर गुट और दक्षिण गुट कहते हैं। प्रत्येक गुट में सात सदस्य होते हैं और प्रत्येक खिलाड़ी 4 से 5 फ़ीट की ऊँचाई के एक टट्टू या घोड़े की सवारी करता है। खेल के मैदान को ‘मापल कांगजेईबुंग’ कहा जाता है, और यह आकार में आयताकार होता हैl इसकी लंबाई लगभग 210 गज और चौड़ाई 100 गज की होती है। इसमें कोई गोल के खंभे (गोल पोस्ट) नहीं होते हैं और खिलाड़ी को गेंद पर अपने मुद्गर से वार करना होता है। जब गेंद मैदान की चौड़ाई की अंतिम रेखा को पार करती है, तब गोल दर्ज किए जाते हैं। मुद्गर अच्छी गुणवत्ता के बेंत से बनाया जाता है, जिसके वार करने वाले सिरे पर एक संकीर्ण कोण वाला लकड़ी का टुकड़ा लगा होता है। बाँस की जड़ से बनी गेंद या ‘कांगद्रम’ की परिधि 14 इंच की होती है। ऐसा पाया जाता है कि प्रत्येक खिलाड़ी मैदान में एक विशिष्ट स्थान लेता है- ‘पुन-नगकचुन’ (पूरा पीछे), ‘पुन-नगकचुन’ (आधा पीछे), ‘पुल्लुक’ (बाईं विंग), ‘लांगजेई’ (केंद्र), ‘पुल्लुक’ (दाईं विंग), ‘पुंजेन’ (अंदर), और ‘पुन-जेनचुन’ (अंदर)।.

खिलाड़ी घुटनों के ऊपर एक सफ़ेद धोती (बिना सिला कपड़े का लंबा टुकड़ा) पहनते हैं। शीश-रक्षक के रूप में एक मणिपुरी पगड़ी या ‘कोकयेट’ को ठोड़ी के पट्टे या ‘खडंगचेत’ से पहना जाता है। खिलाड़ी आमतौर पर एक ही रंग की छोटी बाज़ू वाली जैकेट पहनते हैं। ‘खोंगयोन’ या पाँव-रक्षक का उपयोग, पिंडलियों और अग्रजंघा की सुरक्षा के लिए किया जाता है, जबकि ‘खुनिंग खांग’ एड़ी और टखने की सुरक्षा के लिए इस्तेमाल किया जाता है। इस खेल में उपयोग की जाने वाली रकाब का आधार सपाट होता है और पाँव रखने की जगह संकरी होती है, जिसपर खिलाड़ी अपने पैर के नग्न अंगूठे को रखता है। खिलाड़ी ‘चनम मारू’ या एक नरम लगाम का उपयोग करते हैं। घोड़े की जीन सजावटी चमड़े से बनी होती है, जिसे ‘उकांग खे’ नामक एक लकड़ी के फ़्रेम पर चढ़ाया जाता है। ‘खे-यू’ वृक्ष के एक उत्पाद का उपयोग सजावट के उद्देश्य से किया जाता है।

खेल-कूद के प्रति उत्साह की एक लंबी विरासत को दर्शाने वाले ‘सगोल कांगजेई’ के कारण मणिपुर राज्य को आज भी भारतीय खेलों का शक्ति-घर कहा जाता है।

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मणिपुर के कांगला किले में स्थित दुनिया के सबसे पुराने पोलो मैदानों में से एक, मानुंग कांगजेईबुंग। छवि स्रोत : विकिमीडिया कॉमन्स