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सिट्टानवसाल
दक्षिणी भारत में जैन धर्म का केंद्र

तमिलनाडु में पुदुकोट्टई ज़िले का एक छोटा सा गाँव, सिट्टानवसाल, शैल-कर्तित जैन गुफ़ा मंदिर, अरिवर कोइल की फ़्रेस्को भित्ति-चित्रकारियों और एक प्राकृतिक गुफ़ा - एझादिप्पट्टम के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ पर नवच-चुनई नामक एक जलमग्न गुफ़ा मंदिर के अतिरिक्त महापाषाणकालीन कब्रगाहें भी हैं, जो इस क्षेत्र में प्रागैतिहासिक मनुष्यों के अस्तित्व का प्रमाण देती हैं। सिट्टानवसाल नाम की उत्पत्ति का ज़िक्र करते हुए, एक से अधिक स्पष्टीकरण मौजूद हैं। एक व्याख्या के अनुसार, सिट्टानवसाल नाम चिरन्नलवायिल शब्द से लिया गया हो सकता है, जिसका अर्थ है 'महान संतों का निवास'। एक अन्य व्याख्या, इस शब्द की उत्पत्ति को चिरुअन्नलवायिल से जोड़ती है, जिसका अर्थ है, 'छोटाअन्नल वायिल', जो उस समय की ओर इशारा करता है, जब सिट्टानवसाल पहाड़ी कभी अन्नलवायिल उपनगर का हिस्सा थी। एक तीसरी व्याख्या कहती है कि इस शब्द का उत्तरी मूल सिद्धानाम वासा से हो सकता है। हालाँकि, मंदिर के एक तमिल ब्राह्मी अभिलेख पर इस स्थान का नाम चिरुपोसिल बताया गया है। सिट्टानवसाल, शायद पुदुकोट्टई में सबसे पुराने आवासित स्थलों में से एक था, और पहली शताब्दी ई. से 10वीं शताब्दी ई. तक जैन धर्म का एक केंद्र भी था।

अरिवर कोइल का प्रवेश द्वार, सिट्टानवसाल  में एक जैन शैल-कर्तित गुफ़ा मंदिर

सिट्टानवसाल में अरिवर कोइल के अंदर फ़्रेस्को चित्रकारियाँ

एक चट्टानी पहाड़ी पर स्थित अरिवर कोइल (अरहतों का मंदिर), एक जैन शैल-कर्तित गुफ़ा मंदिर है। शुरुआत में, इस मंदिर में एक गर्भ-गृहम्, अर्ध-मंडपम् और मुख-मंडपम् हुआ करते थे। 20वीं शताब्दी में पुदुकोट्टई के तत्कालीन महाराजा ने यहाँ एक स्तंभित बरामदा बनवाया था। बरामदे में स्थित एक प्रसिद्ध तमिल अभिलेख में यह उल्लेख मिलता है कि पांड्यन राजा श्रीमरण श्रीवल्लभन, जिन्हें अवनिपासेखर (815-862 ई.) भी कहा जाता है, के शासनकाल के दौरान इस मंदिर की मरम्मत एक प्रसिद्ध जैन आचार्य, इलन गौतमन ने कराई थी। अरिवर कोइल अपनी भित्ति-चित्रकारियों के लिए प्रसिद्ध है, जिन्हें अजंता चित्रकारियों (दूसरी से छठी शताब्दी ई.) की समान शैली में फ़्रेस्को-सेक्को तकनीक (सूखी दीवार पर की गई चित्रकारी) से निष्पादित किया गया है। इसके गर्भगृह और अर्ध-मंडप में उत्कृष्ट चित्रकारियाँ देखी जा सकती हैं और ये दक्षिण भारत की प्रारंभिक जैन भित्तिचित्रों का बचा हुआ एकमात्र उदाहरण हैं। दुर्भाग्य से लापरवाही और तोड़-फोड़ के कारण समय के साथ ये चित्रकारियाँ खराब हो गई हैं।

पहाड़ी के पूर्वी हिस्से में एक प्राकृतिक गुफ़ा, एझादिप्पट्टम में परिष्कृत की गईं चट्टाने मौजूद हैं, जो जैन तपस्वियों (पहली शताब्दी ई. से दसवीं शताब्दी ई.) से संबंधित थीं। यहाँ पर सत्रह चट्टाने हैं जिन पर तमिल के अभिलेख मिलते हैं। इनमें सबसे बड़ी और शायद सबसे पुरानी चट्टान पर पहली शताब्दी ई. का तमिल ब्राह्मी अभिलेख मिलता है। सिट्टानवसाल में कलश-कब्रगाहों, पत्थरों के घेरों और ताबूतों के साथ महापाषाणकालीन कब्रगाहें भी एक महत्वपूर्ण आकर्षण हैं। ऐसा माना जाता है कि तमिलनाडु में शवाधान के इस तरीके का अभ्यास, संगम काल (तीसरी शताब्दी ई. से पहली शताब्दी ई.) के दौरान किया जाता था। चट्टान के पूर्वी हिस्से में नवच-चुनई नाम का एक टार्न में डूबा मंदिर भी है। यह नाम पास में ही पाए जाने वाले नवल मरम (जंबू वृक्ष) से लिया गया है। उत्तर पांड्य शैली की वास्तुकला (13 वीं शताब्दी ई.) में निर्मित यह मंदिर, भगवान शिव को समर्पित है और स्थानीय रूप से जम्बुनाथ गुफ़ा के रूप में प्रसिद्ध है। वर्तमान में, अरिवर कोइल, एझादिप्पट्टम और महापाषाणकालीन कब्रगाह स्थल भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित और प्रशासित हैं।