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थेरुकुथु
तमिल नाडु की एक पारंपरिक कला

तमिल नाडु, कहानी सुनाने की प्रथाओं के लिए प्रसिद्ध रह चुका है। थेरुकुथु , जिसे एक तरह का नुक्कड़ नाटक कह सकते हैं, कथाकारी की एक प्राचीन शैली है, जिसे कई पीढ़ियों से अदा किया जा रहा है। कलाकारों को भारी वस्त्रों और गहनों से सजाया जाता है, जिसके पश्चात वे संवाद, गाना और नृत्य प्रस्तुत करते हैं। थेरुकुथु की उत्पत्ति और पुरावशेष ज्ञात नहीं हैं। थेरुकुथु दो शब्दों के मेल से बना है- थेरु मतलब सड़क, और कुथु मतलब नाटक या कला प्रदर्शन। तमिल महाकाव्य सिलप्पादिकारम में 11 प्रकार के कुथु का उल्लेख मिलता है। परंतु थेरुकुथु अकेला ऐसा नाटक है जिसमें अभिनेता को गाना, नृत्य, कथन और रीति सभी का प्रदर्शन करना पड़ता है। थेरुकुथु तमिल नाडु के उत्तरी ज़िलों में ज़्यादा लोकप्रिय है, जहाँ इसे मंदिरों में उत्सवों के दौरान गाँवों में आयोजित किया जाता है। तमिल में यह थिरुविझा के नाम से प्रसिद्ध है। इसे आम तौर पर पंगुनी (मार्च-अप्रैल) और आदी (जुलाई-अगस्त) के महीनों में, अच्छी फ़सल या बारिश के लिए प्रार्थना, या मंदिर के अनुष्ठानों के रूप में आयोजित किया जाता है। थेरुकुथु प्रमुख रूप से महाभारत, रामायण, पेरिया-पुराणम, और संगम काल की अन्य तमिल साहित्यक रचनाओं की विषय-वस्तुओं पर प्रस्तुत किया जाता है। इसे गर्मी के मौसम में आयोजित किया जाता है, जब खेतों में ज़्यादा काम नहीं होता। ये कलाएँ अपने गीतों, विस्तृत विवेचना और हास्य के माध्यम से दर्शकों के सामने स्थानीय इतिहास और संस्कृति प्रस्तुत करती हैं।

ये विशेष प्रदर्शन ऐसे खुले क्षेत्र में आयोजित किया जाता है जहाँ अक्सर दो से अधिक रास्तों का मिलन होता है। आमतौर पर ये देर शाम को शुरू होकर, सुबह के शुरुआती घंटों तक चलते हैं। थेरुकुथु प्रदर्शन में कलाकार कहानी सुनकर, संवाद प्रस्तुत करके, गाना गाकर और नृत्य करके दर्शकों का ध्यान आकर्षित करते हैं। संवादों से ज़्यादा महत्त्व संगीत और गीतों को दिया जाता है। इसलिए, दूर तक फैले हुए दर्शकों तक अपनी आवाज़ पहुँचाने के लिए, कलाकार उच्च स्वर में गाने के लिए औपचारिक प्रशिक्षण लेते हैं। पारंपरिक रूप से केवल पुरुष कलाकार ही प्रदर्शन में भाग लिया करते थे, और परिणामस्वरूप वे महिला पात्रों की भूमिका भी निभाया करते थे। आजकल इन प्रदर्शनों में महिलाएँ भी भाग लेती हैं। एक थेरुकुथु प्रदर्शन की वेश-भूषा में एक लंबा वस्त्र, चमचमाती स्कंध पट्ट, घेरेदार रंगीन घागरा और शृंगार शामिल हैं। प्रदर्शन के दौरान कलाकार कट्टियाकरन (मंच प्रबंधक या सूत्रधार) के साथ संवाद में अपना परिचय देते हैं। जब कोई पात्र कहानी में प्रवेश करता है, तब वह उससे उसकी पहचान और उसके पात्र के विषय में सवाल करता है। कोमाली (विदूषक) एक और ऐसा कलाकार है जो प्रदर्शन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। वह अपने मसखरेपन से दर्शकों का मनोरंजन करता है। वादक समूह एक ओर एक तख्त पर बैठता है, जिसमें मुखवीना, हारमोनियम, मिरुधंगम और कंजीरा जैसे वाद्ययंत्रों के साथ एक प्रमुख गायक और अन्य कलाकार होते हैं।

थेरुकुथु प्रदर्शन तमिल नाडु के उत्तरी ज़िलों के द्रौपदी अम्मन  मंदिरों में भी आयोजित किए जाते हैं। यह मंदिर उत्सव तमिल नव वर्ष के ठीक बाद शुरू हो जाता है, जो अप्रैल से जून के अंत तक चलता है। इस क्षेत्र में फ़सल की कटाई का मौसम जनवरी महीने के दौरान शुरू होता है,  जिस दौरान सूर्य को नमन किया जाता है। फ़सल कटाई का प्रसिद्ध उत्सव, पोंगल भी इसी समय मनाया जाता है। थेरुकुथु के प्रदर्शन, फ़सल कटाई के बाद आयोजित किए जाते हैं, एक ऐसा समय, जो आराम और आत्मनिरीक्षण के लिए होता है। इसमें प्रस्तुत की जाने वाली महाभारत की कहानियाँ, यहाँ के लोगों के लिए सुरक्षा और यश का प्रतीक हैं। इन्हें आशीर्वाद एवं सौभाग्य का स्त्रोत भी माना जाता है। इस प्रदर्शन का खर्चा लोगों द्वारा किए गए दान के माध्यम से यहाँ की पंचायत उठाती है। प्रदर्शन के दौरान दर्शक कुछ विशेष अभिनयों के लिए दान भी देते हैं। थेरुकुथु प्रदर्शन से स्थानीय नाश्ता, चाय, गुब्बारे, और तंबाकू के अन्य छोटे विक्रेता भी आर्थिक रूप से लाभान्वित होते हैं। महाभारत और अन्य महाकाव्यों की कहानियाँ और घटनाएँ लोगों और उनके विश्वास को प्रभावित करती हैं। नुक्कड़ नाटक होने से ज़्यादा, थेरुकुथु एक ऐसा त्योहार है, जो दर्शकों की सामूहिक स्मृति से  जुड़ा हुआ है।

पारंपरिक थेरुकुथु प्रदर्शन

थेरुकुथु प्रदर्शन के लिए तैयार होते हुए एक कलाकार

द्रौपदी थुगिल पर एक थेरुकुथु प्रदर्शन