(ध्यान दें: चूंकि यह कथा काफी विस्तृत समय-काल के बारे में बताती है, इसमें बम्बई तथा मुंबई, दोनों ही नामों का उपयोग किया गया है।)
सन 1853 में 'पारसी ड्रामेटिक कोर' ने बम्बई के ग्रांट रोड थिएटर में एक नाटक का मंचन किया जिसका नाम था रुस्तम ज़बूली और ज़ोहराब । यह 10 वीं शताब्दी के फ़ारसी महाकाव्य शाहनामेह का एक रूपांतर था, जो फ़ारसी कवि फ़िरदौसी द्वारा लिखी गयी उनके वीरों, रुस्तम और उनके बेटे, सोहराब, की एक दुखद कहानी है। इससे शहर में पारसी नाट्यकला की शुरुआत हुई, जिसने, हिंदी फ़िल्म उद्योग सहित, मनोरंजन के क्षेत्र में काफी प्रभाव डाला।
इस नाटक का मंचन शहर में पहले नाटक मंचन के लगभग 70 साल बाद हुआ था। इस बीच की अवधि में, कुछ ऐसी चीज़ें हुई थीं, जिनके कारण बम्बई के पारसी समुदाय को इस क्षेत्र में कदम रखने के लिए प्रेरणा मिली।
प्राचीन फ़ारसी महाकाव्य शाहनामेह का एक दृश्य
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बॉम्बे ग्रीन 1860 में
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बॉम्बे ग्रीन क्षेत्र में, 1776 में स्थापित पहले थियेटर - बॉम्बे थिएटर में,समय-समय पर यूरोपीय नाटक कंपनियों द्वारा नाट्य प्रदर्शन किए जाते थे।
इस थिएटर को माउंटस्टुअर्ट एल्फिंस्टन (बम्बई के तत्कालिक गवर्नर) द्वारा समर्थन प्राप्त था, परंतु उनके प्रस्थान के बाद यह थिएटर कर्ज़ में डूब गया। हालात इस हद तक गिर गए कि 1834 में सरकारी अधिकारियों की एक महत्वपूर्ण बैठक में यह प्रस्तावित किया गया कि अगर थिएटर लगातार नुकसान उठाता रहा, तो इसे क्लब हाउस में बदल दिया जाएगा। ठीक इसी समय एक प्रसिद्ध पारसी व्यापारी और समाज-सेवी, जमसेटजी जीजीभॉय एक उद्धारक के रूप में आगे आए।
बम्बई के गवर्नर (1819-27), माउंटस्टुअर्ट एल्फिंस्टन
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जमसेटजी जीजीभॉय
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उन्होंने 1835 में थिएटर को 50,000 रुपये में खरीद लिया। उन्होंने सभी ऋणों और देनदारियों का भुगतान कर दिया, लेकिन थिएटर की संपत्ति पर स्वामित्व बनाए रखा।
बॉम्बे थिएटर दस साल तक बंद रहा। इसके बाद, बॉम्बे के प्रमुख व्यापारियों में से एक, जगन्नाथ शंकरसेठ ने 1844 में ग्रांट रोड पर एक भूखंड दान किया, जहाँ ग्रांट रोड थिएटर बनाया गया।
जगन्नाथ शंकरसेठ
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यह पहली बार था जबकि अंग्रेजी-शिक्षित भारतीयों द्वारा निर्मित नाटकों का मंचन इस थिएटर में किया गया। 1846 में, खेतवाड़ी थिएटर बना जिसमें ‘हिंदू ड्रामेटिक कोर’ नामक नवगठित थियेटर कंपनी ने नाटकों का प्रदर्शन किया, जो मराठी, गुजराती और हिंदुस्तानी भाषाओं में थे। यह नाटक कंपनी 1842 में सांगली के शासक द्वारा गठित मराठी 'भावे' नाटक कलाकारों से बहुत प्रभावित थी, और भावे कलाकार स्वयं घुम्मकड़ 'कनारा' नाटककारों के नाटकों को देख कर प्रभावित थे। इन नाट्य परंपराओं ने पारसी समुदाय को अपने स्वयं के नाटक का मंचन करने के लिए प्रेरित किया था।
रुस्तम ज़ाबुली और ज़ोहराब फ़ारसी लोककथा में निहित नाटक था क्योंकि ज़ोरास्ट्रियन आस्था और विश्वास को मानने वाला पारसी समुदाय फ़ारस से गुजरात में आकर बसा था। पारसियों ने भले ही पोशाक और स्थानीय भाषा को अपना लिया था लेकिन उन्होंने अपनी सामाजिक-धार्मिक पहचान को बनाए रखा था। 16वीं शताब्दी के अंत में बम्बई पहुंचने के बाद, पारसियों ने शहर में एक महत्वपूर्ण व्यापारिक उपस्थिति स्थापित की। उनका धन और पश्चिमीकरण वो अन्य कारक थे, जिनकी बदौलत उन्होंने रंगमंच के क्षेत्र में प्रवेश किया। अपने पहले नाटक की सफलता के बाद, इस समुदाय ने अपने प्रदर्शनों का विस्तार किया और जल्द ही उनके गुजराती, हिंदुस्तानी, अंग्रेजी और मराठी भाषाओं में मंचित नाटक एशियाई और यूरोपीय मूल की विभिन्न पौराणिक तथा लोक परंपराओं के अंतः-सांस्कृतिक अनुकूलन द्वारा चिह्नित होने लगे।
जल्द ही अन्य कंपनियों की स्थापना हुई। 1853 में फ़ारम जी. दलाल द्वारा पारसी नाटक मंडली की स्थापना की गई। इसमें कई पारसी अभिनेता और नाटककार थे। उन्हीं में मौजूद थे प्रसिद्ध डी. आर. थुधी जिन्होंने पश्चिमी वाद्य यंत्रों को भारतीय शास्त्रीय तार वाद्य यंत्रों के साथ प्रतिस्थापित करने की शुरुआत की। उन्होंने पारसी नाटकों में अभिनय और रंगमंच-संबंधी प्रभावों के मानकों में भी सुधार किया। 1858 में, इंडियन थियेट्रिकल क्लब का गठन हुआ, जिसने ‘नाना साहेब’ नामक एक नाटक का प्रदर्शन किया, जो बेहद लोकप्रिय हुआ और इस नाटक के गीत पारसी घरों में गाए जाते थे। खवासजी खटाऊ, जिन्हें 'इरविंग ऑफ़ इंडिया' के रूप में भी जाना जाता है, ने 1877 में अल्फ़्रेड थियेट्रिकल कंपनी की स्थापना की जो शेक्सपियर के नाटकों के रूपांतरणों के मंचन के लिए जानी जाती थी।
जमशेदजी फ़्रामजी मदान
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1912 में नारायण बेताब द्वारा ‘द कॉमेडी ऑफ़ एरर्स’ का रूपांतरण ‘गोरखधंधा (ए लेबीरिन्थ)’, और 1918 में नाज़र देहलवी द्वारा ‘ओथेलो’ का रूपांतरण ‘शेर-दिल (द टाइगर-हार्टेड)’ बेहद सफल रहे।
The पारसी एल्फिंस्टन ड्रामेटिक क्लब की स्थापना एलफिंस्टन कॉलेज में एक पारसी छात्र कुंवरजी सोहराबजी नज़ीर ने की थी। यह क्लब सप्ताह के दिनों में कॉलेज में और शनिवार की रात को ग्रांट रोड थिएटर में नाटकों का प्रदर्शन किया करता था। इस क्लब ने मुख्य रूप से शेक्सपियर के नाटकों के रूपांतरणों का मंचन किया क्योंकि पारसी युवाओं में से अधिकांश अंग्रेज़ शिक्षकों द्वारा शिक्षित थे और शेक्सपियर से परिचित थे। 1865 में नानाभाई रुस्तमजी रानीना द्वारा प्रकाशित ‘जेड़िया भाई - अधले बेहेरु कुतवु’ (कॉमेडी ऑफ़ एरर्स से रूपांतरित) और ‘कासरिवाज ना कारस्तान’ (ओथेलो से रूपांतरित) जैसे नाटकों ने काफी प्रसिद्धि पाई। इस क्लब को, जिसे बाद में एल्फिंस्टन थिएटर कंपनी के रूप में जाना जाता था, 1883 में जमशेदजी फ़्रामजी मदान ने अपने अधिकार में ले लिया था। मदान, जो 1868 में एक मंच सहायक (प्रॉप बॉय) के रूप में क्लब में शामिल हुए थे, एक प्रसिद्ध निर्माता तथा फ़िल्मों और नाटकों के वितरक बन गए।
पारसी नाट्यकला अपने शक्तिशाली अभिनय के लिए जानी जाने लगी। पारसी थिएटर मालिकों द्वारा बहुत ही उदारतापूर्वक मंच के समायोजन में पैसा खर्च करने से इसको और भी बढ़ावा मिला। उन्होंने यूरोपीय नाट्य परंपराओं को अपनाया जैसे कि पृष्ठभूमि और पर्दों सहित रंगमंच के आगे के भाग में मेहराब का उपयोग, पश्चिमी संगीत वाद्य यंत्रों का उपयोग, तथा पश्चिमी उपकरणों और रंगमंच की सामग्री का उपयोग। वे दृश्यों को चित्रित करने के लिए यूरोप से कलाकारों को बुलाते, मंच के लिए इंग्लैंड से मशीनरी खरीदते, और अंग्रेजी शैली में छपे नाटकों के विज्ञापन के माध्यम से 'परिवर्तन दृश्य' या 'भंग दृश्य' आदि का प्रचार करते । मंचन के दौरान दर्शकों को गाने के बोल वाली एक 'ओपेरा बुक' भी दी जाती थी। यहाँ तक कि कुछ कलाकारों को अभिनय शैली सीखने के लिए इंग्लैंड भी भेजा जाता था। उन्होंने मुख्य नाटक के अंत में छोटे प्रहसनों के मंचन की अंग्रेजी प्रथा को भी अपनाया था।
महिलाओं को नाट्य मंच पर लाने का श्रेय भी पारसी थिएटर को दिया जाता है। मंच पर उपस्थिति बनाने वाली पहली महिला अभिनेत्री गोहर थीं, जिन्हें इस क्षेत्र में खटाउ द्वारा लाया गया था। एक अंग्रेज़ सेना अधिकारी की बेटी मैरी फेंटन भी कई नाटकों में पारसी नायिका के रूप में अपनी भूमिका के चलते प्रमुखता से उभरी। मुन्नीबाई नामक एक अन्य अभिनेत्री ने घरेलू त्रासदियों पर आधारित नाटकों में उत्कृष्ट प्रदर्शन किया।
मैरी फेंटन
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2017 में एडवर्ड थिएटर
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देशी अभिनेताओं का औसत वेतन, आवास एवं भोजन सहित, 5 रुपये से 50 रुपये प्रति माह के बीच हुआ करता था, जिसमें प्रमुख अभिनेताओं को 300 रुपये प्रति माह तक का वेतन दिया जाता था। थिएटरों को 1000 रुपये की आय हो जाती थी। नाटकों का मंचन बुधवार और शनिवार की रात और रविवार दोपहर को होता था। इन नाटकों को प्राप्त अधिकाधिक संरक्षण अंग्रेज़ी शासन के तहत उभरे बॉम्बे में नए वाणिज्यिक समूहों, श्रमिक वर्गों, पेशेवरों, और वेतनभोगी लोगों के कारण मिला था। ये लोग मनोरंजन पर पैसा खर्च करने को तैयार थे और मनोरंजन के नए रूपों की तलाश में रहते थे।
पारसी नाट्यकला की यात्रा सुगम नहीं थी। इसमें मुख्य बाधा बम्बई में थिएटर घरों की कमी थी। कभी-कभी ग्रांट रोड थिएटर को हफ्ते-हफ्ते भर के लिए किसी भी विशेष नाटक कंपनी को किराए पर दे दिया जाता था। इस बाधा को दूर करने के लिए, पारसी नाट्य कंपनियाँ यात्राओं पर जाने लगी, और इस प्रकार घुम्मकड़ थिएटर समूहों को विकसित किया गया जो अधिक अवधि तक अपने नाटकों का प्रदर्शन कर सकते थे। यह वही समय था जब पारसी नाट्यकला गुजरात, बंगाल और तमिलनाडु सहित भारत के अन्य हिस्सों में फैली। यहाँ तक कि एक प्रसिद्ध नाट्य कलाकार, खुरशेदजी बल्लीवाला द्वारा स्थापित विक्टोरिया थियेट्रिकल कंपनी ने रंगून, सिंगापुर और यहाँ तक कि इंग्लैंड की यात्रा भी की थी।
बहरहाल, कई थिएटर हॉल अठारहवीं शताब्दी के अंत और उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में खुल गए। इनमें से एडवर्ड थिएटर, गेयटी थिएटर, विक्टोरिया थिएटर और एम्पायर थिएटर प्रमुख हैं। गेयटी थियेटर को 1880 में इसके पट्टा-समझौते पर दस साल का नवीनीकरण प्रदान किया गया। हालांकि, आज, इनमें से अधिकांश थिएटर या तो नष्ट हो गए हैं या सिनेमा घरों में परिवर्तित हो गए हैं।
उस समय पर प्रकाशित अंग्रेज़ी और गुजराती अखबारों ने पारसी नाट्यकला को समर्थन प्रदान किया और उसका संपोषण सुनिश्चित किया। द बॉम्बे टाइम्स, द बॉम्बे टेलीग्राफ़, द बॉम्बे कूरियर, द ब्रिटिश इंडियन जेंटलमैन्स गैज़ेट, कैसर-ए-हिंद और रास्त गोफ्तार में विज्ञापन, स्थान परिवर्तन के बारे में नोटिस, टिकट की कीमतें और समीक्षाएँ प्रकाशित की जाती थीं।
अपने उतार-चढ़ाव के बावजूद, पारसी नाट्यकला की परंपरा बनी रही और इसने मुंबई की रंगमंच संस्कृति में समृद्ध रूप से योगदान दिया है। पारसी नाट्यकला ने, बच्चों की किताबें लिखने वाले और एक त्रिभाषी शब्दकोश के रचयिता, रुस्तमजी नानाभाई रानीना और, रास्त गोफ्तार (एक पारसी अखबार) के मालिक और संपादक नवरोजी काबराजी, जैसे उल्लेखनीय नाटककारों को जन्म दिया। सबसे महत्वपूर्ण नाटककारों में से एक, आदि फिरोजशाह मरज़बान (1914-1987) को आधुनिक समय (1950-1960) में पारसी नाट्यकला में दृश्यमान बदलाव के लिए जिम्मेदार माना जाता है।
नवरोजी काबराजी
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सोहराब मोदी
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मुंबई की बदलती संस्कृति के अनुकूल होने के लिए, उन्होंने रूढ़िबद्ध तथा घिसे-पिटे पारिवारिक नाटकों और ऐतिहासिक मिथकों से दर-किनारा किया और उन विषयों को चित्रित किया जो समकालीन संस्कृति के साथ मेल खाते थे। उनका पहला नाटक, ‘अर्धि राते आफ़त’, एक सनसनीखेज़ नाटक (उस समय की एक उभरती हुई शैली) था। उनके हास्य नाटक सामाजिक रूप से प्रासंगिक विषयों जैसे कि एक निष्क्रिय हो चुके परिवार की गतिशीलता (पिरोजा भवन) के इर्द-गिर्द घूमते थे। उन्होंने होमी तवाड़िया, बुर्जोर पटेल, फ़िरोज़ एंटिया और रूबी पटेल जैसे युवा अभिनेता-निर्देशकों को भी प्रशिक्षित किया, जिन्होंने आगे चलकर पारसी नाट्य परंपरा को आगे बढ़ाया।
पारसी नाट्यकला की सबसे स्थायी विरासत मुंबई में स्थित हिंदी फिल्म उद्योग, अथवा बॉलीवुड पर इसका ज़बर्दस्त असर है। अपनी यात्रा की शुरुआत में, हिंदी फिल्म उद्योग ने अधिकतर सभी पारसी नाटकों में चित्रित प्राच्य और पौराणिक विषयों, वेशभूषा और संवादों को आत्मसात किया। पारसी नाटक कंपनियों ने खुद को शुरुआती फिल्म कंपनियों में बदल लिया। वित्तदाता, प्रबंधक और अभिनेता दोनों के लिए ही सामान्य होते थे। सोहराब मोदी और उनके भाई रुस्तम ने अपने नाट्य दल को ‘स्टेज फ़िल्म कंपनी’ में रूपांतरित कर दिया। उन्होंने अपने लोकप्रिय नाटक ‘खून का खून’ (हैमलेट पर आधारित) को फ़िल्माया, जिसमें 17 गाने थे, और भारतीय नाम वाले पात्र थे। भारत की पहली पूर्ण लंबाई वाली मूक फ़ीचर फ़िल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ इसी नाम के पारसी नाटक का रूपांतरण है, जिसके 4,000 से अधिक प्रदर्शन हुए थे।
फ़िल्म उद्योग ने गलत पहचान और अत्यधिक अतिरंजित कथानक के चारों ओर घूमने वाले हास्य आख्यानों को भी शामिल किया जोकि शिरीन फरहाद जैसे लोकप्रिय पारसी नाटकों में स्पष्ट रूप से दिखाए गए थे। पारसी नाटकों के लेखकों, जैसे आगा हश्र कश्मीरी, ने बड़ी ही आसानी से फ़िल्मों के लिए पटकथाकार के रूप में खुद पदांतरित कर लिया। जब फिल्में नाटकों पर आधारित नहीं हुआ करती थीं, तब भी कलाकार नाट्यकला में अपना प्रारंभिक प्रशिक्षण लिया करते थे। परंतु पारसी नाट्यकला का भारतीय फ़िल्म उद्योग पर सबसे अधिक प्रभाव अमूर्त रूप से पड़ा। इसमें भावुकतापूर्ण नाट्य प्रदर्शन, गीत और नृत्य दृश्यों के माध्यम से कथा प्रगति, भावुकता, वेश परिवर्तन, तथा कथानक परिवर्तन जैसे शैलीगत तत्व शामिल थे। आज भी बॉलीवुड फ़िल्मों में साररूप में मौजूद संगीत और नृत्य पर निर्भरता पारसी नाट्य कला की ही देन है। पारसी नाटकों की तरह ही बॉलीवुड की फ़िल्में भी अखिल भारतीय दर्शकों के लिए बनती हैं और राष्ट्रीय दर्शक की अवधारणा को जन्म देने में मदद करती हैं।
चलचित्र ‘राजा हरिश्चंद्र’ का एक दृश्य (1913)
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