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दारा शिकोह

जब शहज़ादा दारा शिकोह सिर्फ सात साल के थे, तब उनके पिता शहज़ादा खुर्रम ने अपने दो बड़े भाइयों के होते हुए भी साम्राज्य का दावा करने के लिए सम्राट जहाँगीर के खिलाफ विद्रोह कर दिया। विद्रोह के सफल होने के अवसर बहुत कम थे। चार साल बाद, उनकी ग़लतियों के लिए उन्हे माफ़ करते हुए पराजित शहज़ादे का शाही परिवार में वापस स्वागत किया गया। अपने बेटे की महत्वाकांक्षाओं को प्रतिबंधित करने के लिए सम्राट जहाँगीर अपने पोतों को बंधक के रूप में महल में ले गए और उन्हें उनकी सौतेली दादी नूरजहाँ की निगरानी में रखा गया। तेरह साल की उम्र में दारा अपने पिता से उस समय मिलने वाले थे जब शहज़ादा खुर्रम को सम्राट शाहजहाँ का ताज पहनाया गया।

दारा शिकोह का जन्म ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की भूमि अजमेर में हुआ था, जिनसे उनके पिता शाहजहाँ ने एक बेटे के लिए प्रार्थना की थी। छह पुत्रों में से सबसे बड़े पुत्र दारा को मुग़ल साम्राज्य के भावी शासक के रूप में तैयार किया गया और महल ही उनका घर था। यद्यपि उनके भाइयों को प्रशासक के रूप में सुदूर प्रांतों में प्रतिनियुक्त किया गया, किंतु अपने पिता की आंखों के तारे, दारा को शाही दरबार में ही रखा गया।

सुदूर के धूल-धूसरित प्रांतों और प्रशासन कार्यों से दूर रखे जाने के कारण दारा अपना समय आध्यात्मिक खोज में लगा सके। उन्होंने छोटी उम्र में ही सूफी रहस्यवाद और कुरान में गहरी रुचि और दक्षता विकसित कर ली थी।

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The Emperor Shah Jahan with his son Dara Shikoh circa 1620, a Folio from the Shah Jahan Album at The Metropolitan Museum. It is painted by Nanha and Mir Ali Haravi has done the calligraphy

पच्चीस वर्ष की आयु में दारा ने अपनी पहली पुस्तक, सफ़ीनात-उल-औलियालिखी जो कि पैग़ंबर और उनके परिवार, ख़लीफाओं तथा भारत में लोकप्रिय पांच प्रमुख सूफी संघों से संबंध रखने वाले संतों के जीवन का विवरण देने वाला एक संक्षिप्त दस्तावेज़ है| दारा शिकोह को उनके पीर (आध्यात्मिक मार्गदर्शक) मुल्ला शाह द्वारा सूफियों के क़ादरी संघ में दीक्षित किया गया। एक धर्मनिष्ठ अनुयायी के रूप में, आगे जा कर दारा लाहौर में अपने पीर और मियाँ मीर के लिए दरगाह बनवाने का काम करने वाले थे। मियाँ मीर मुल्ला शाह के पीर थे। इसके साथ-साथ, दारा अपने शब्दों के माध्यम से मियाँ मीर की जीवनी को 'सकीनात-उल-औलिया’ में अमर करने वाले थे। शहज़ादे की अन्य कृतियों में ‘रिसाला-ए-हकनुमा’ (सच्चाई का कम्पास), 'शाथियात या हसनत-गुल-आरिफिन' और 'इक्सिर-ए-आज़म' शामिल हैं। उन्होंने 'जुग बशिस्त' और 'तर्जुमा-ए-अकवाल-ए-वासिली' भी शुरू किया।

मुल्ला शाह युवा शहज़ादे की तारीफ़ में एक ग़ज़ल कहते हैं

 

“पहले और दूसरे साहिब किरान (अमीर तैमूर और शाहजहाँ) भव्यता के राजा हैं,
हमारा दारा शिकुह दिल का साहिब किरान है।
कायनात से, दोनों जहां के कानून से, वो अपने दिल के सौदे की वजह से
गिरफ्त में है”

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Dara Shikoh with Miyan Mir and Mulla Shah Circa 1635

सूफी शहज़ादा ‘एकेश्वरवाद’ (तौहीद) का अनुकरण करना चाहते थे। उनका मानना था कि "ईश्वर के कथन और करनी एक दूसरे को स्पष्ट करते हैं और समझाते हैं" (दारा शिकोह, सिर-ए-अकबर) और इस प्रकार अपनी पहुंच के भीतर उन सभी रहस्य खोलने वाली पुस्तकों को पढ़ने की इच्छा रखते थे।

अपने अध्ययन के माध्यम से वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि ‘सत्य’ किसी विशेष या ’चुनी हुई’ जाति की अनन्य संपत्ति नहीं, बल्कि सभी धर्मों में और हर समय पाया जा सकता था (दारा शिकोह, शथियात)। उनका मानना था कि सभी ज्ञात शास्त्रों का एक वह सामान्य स्रोत होना चाहिए जो कि कुरान में उम्म-उल-किताब (किताब की मां) के रूप में उल्लिखित है।

इस प्रकार वे भारत की आध्यात्मिक परंपराओं हेतु इस्लाम के अनुकूलन के लिए एक महान साहित्यिक आंदोलन का हिस्सा बन गए। हालाँकि दारा शिकोह इस परंपरा के नवीनतम वाहक थे, इस आंदोलन के मूल में कई मुस्लिम शासक थे जिन्होंने अतीत में हिंदू धर्म के प्रति मुस्लिम समझ को बढ़ाने के लिए विभिन्न संस्कृत कृतियों का फारसी में अनुवाद करने का आदेश दिया था। इसका एक उदाहरण सम्राट अकबर का मकतबखाना (अनुवाद ब्यूरो) है, जिसने महाभारत, रामायण और योग वशिष्ठ के अनुवाद किए।

दारा ने न केवल अन्य धर्मों के साहित्य को पढ़ा, बल्कि उन धर्मों के विद्वानों के साथ वे बातचीत भी करते थे और उनका सम्मान भी करते थे। ‘मुकालिमा-ए-दारा शिकोह व बाबा लाल’ दारा शिकोह और उन बाबा लाल के बीच एक आध्यात्मिक चर्चा को दर्शाता है, जिन्हें बाद में पंजाब के हिंदू रहस्यवादी लाल दयाल के रूप में माना गया। इन दोनों का परिचय मुल्ला शाह के माध्यम से हुआ था। उनके बीच होने वाले वार्तालाप में हिंदू धर्म के विभिन्न पहलुओं और इसे प्रोत्साहित करने वाले तपस्वी जीवन के बारे में दारा की जिज्ञासा दिखती है। आगे जा कर सूफी शहज़ादे बाबा लाल को 'परिपूर्ण,' बताते हुए कहते हैं कि " प्रत्येक समुदाय में ईश्वर की समझ रखने वाले और 'परिपूर्ण' हैं, जिनकी कृपा से भगवान उस समुदाय को मुक्ति प्रदान करते हैं। "

बयालीस वर्ष की आयु तक, दारा 'मजमा-उल-बहरेन' (दो महासागरों का मिलना) लिखने वाले थे। इस पचपन पृष्ठ के दस्तावेज़ में दारा विश्लेषणात्मक रूप से इस्लाम और हिंदू धर्म के पहलुओं की तुलना करते हैं और उनके मूलभूत मूल्यों में प्रचुर समानताएं निकालते हैं। यह पुस्तक ’तत्वों,' ’धार्मिक अभ्यासों,' ’ईश्वर का अवलोकन करना,' ’परम पिता ईश्वर के नाम’ और ‘ईश्वर-दौत्य और नबीयत’ जैसी अवधारणाओं का अध्ययन करती है। लेकिन शहज़ादे द्वारा अपने बहुसंख्यक धर्म के अनुयायियों के लिए सबसे बड़ी प्रशंसाकृति ’सिर-ए-अकबर’ (महान रहस्य) था, जो कि उपनिषदों के पचास अध्यायों का अनुवाद था।


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Miniature painting of Dara Shikoh

दारा ने बनारस (वाराणसी) के पंडितों और संन्यासियों के सहयोग से इस विशाल कार्य को अंजाम दिया, ताकि उनमें छिपे 'अस्तित्व की एकता' (वहदत-अल-वजूद) के सिद्धांतों की खोज की जा सके। इसमें उनका तर्क है कि हिंदू एकेश्वरवाद की उपेक्षा नहीं करते हैं, बल्कि उपनिषद एक प्राचीन कार्य है जो एकेश्वरवाद के सागर का स्रोत है। कुछ इतिहासकार दारा को 'भगवद गीता' के अनुवाद का भी श्रेय देते हैं।

1657 तक ’सिर-ए-अकबर’ पूरा हो चुका था। उसी वर्ष, सम्राट शाहजहाँ एक गंभीर और लंबी बीमारी से ग्रस्त हो गए। सम्राट की आसन्न मृत्यु की अफवाहों ने छह भाई-बहनों के बीच उत्तराधिकार के युद्ध की चिन्गारी को भड़का दिया। दारा के दावों को उनकी बहन जहाँआरा बेगम ने समर्थन दिया। अपनी बहन रोशनारा बेगम द्वारा समर्थित औरंगज़ेब, मुराद और शुजा ने मिल कर शाही राजधानी पर हमला बोल दिया।

अपने प्यारे पिता की लंबी बीमारी से तंग आकर और अपने ही भाइयों द्वारा मुकाबला करने आने पर, दारा ने युद्ध क्षेत्र में अप्रत्याशित सैन्य रणनीति और नेतृत्व का प्रदर्शन किया। .

फिर भी, सूफी शहज़ादा 1658 में सामूगढ़ की लड़ाई में पहला हमला हार गए। पराजित शहज़ादे ने अफग़ानिस्तान के दादर में शरण मांगी, लेकिन उनके मेज़बान ने उनके भाई औरंगज़ेब को उनके बारे में सूचना दे कर उन्हें धोखा दे दिया। युद्ध में प्दारा शिकोह को हराना ही पर्याप्त नहीं होता। दारा के लिए शाहजहाँनाबाद (दिल्ली) के लोगों के मन में जो आराधना जैसा प्रेम था, औरंगज़ेब को उस चीज़ को हराना था।‘ख़ुशकिस्मती के शहज़ादे’ को, जैसा कि उनके पिता ने एक बार उन्हें नाम दिया था, चिथड़ों में दिल्ली लाया गया। इसके बाद उन्हें ज़ंजीरों से बाँध कर और कलंकित करके शाही राजधानी की गलियों में एक मादा हाथी के ऊपर बिठा कर उनका जुलूस निकाला गया।

 

इस अपकीर्तिकर प्रदर्शन के प्रत्यक्षदर्शी बर्नियर ने कहा कि "इस घृणित अवसर पर अपार भीड़ इकट्ठी हुई और हर जगह मैंने देखा कि लोग रो रहे थे और बेहद मार्मिक भाषा में दारा के भाग्य पर अफ़सोस कर रहे थे। हर तरफ़ से कर्णभेदी और कष्टप्रद चीखें मुझे सुनाई दे रही थीं, क्योंकि भारतीय लोगों का दिल बहुत कोमल होता है; पुरुष, महिलाएं और बच्चे ऐसे क्रंदन कर रहे थे मानो खुद उन पर कोई भारी विपत्ति आ गई हो।"

औरंगज़ेब के उलेमा द्वारा स्वधर्मत्याग का आरोप लगा कर, दारा को 9 सितंबर, 1659 को मार दिया गया और उसके शव को एक हाथी की पीठ पर लाद कर दिल्ली के शहर के प्रत्येक बाजार और गली में प्रदर्शित किया गया था।

इतिहासकारों ने अक्सर दारा शिकोह को एक दुखद व्यक्ति के रूप में चित्रित किया है, जो भारत के इतिहास के वृत्तांतों में अपने ही भाइयों के आगे फीका पड़ गया, लेकिन जो धार्मिक रूढ़िवादी युग में आशा की एक झिलमिलाहट था। हालांकि, इस प्सूफी के शब्द उसके साम्राज्य से कहीं ज़्यादा लंबे समय तक बने रहे और आने वाले समय में पुनरुत्थान की तलाश में हैं।

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Princes Shuja, Aurangzeb and Murad painted by Balchand