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दुर्गा पूजा

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कलाकार स्वर्गीय श्री गोपेश्वर पाल द्वारा निर्मित दुर्गा की मूर्ति

भूमिका

पूर्वी भारत में हुगली नदी के किनारे स्थित कोलकाता (जिसे पहले कलकत्ता के नाम से जाना जाता था) को अक्सर भारत की सांस्कृतिक राजधानी के रूप में जाना जाता है। अपनी भव्य औपनिवेशिक वास्तुकला, समृद्ध परंपराओं, सुंदर संगीत और कला के साथ, इस शहर का एक अनूठा चरित्र है। अन्य लोगों सहित, रवींद्रनाथ टैगोर और सत्यजीत रे जैसे सम्मानित कलाकारों के आश्रय के रूप में इस शहर के लोग साहित्य के साथ-साथ सिनेमा के भी विशेष पारखी हैं। यह शहर हर साल दुर्गा पूजा का एक अनूठा धार्मिक और सांस्कृतिक अनुभव प्रदान करता है।

“दुग्गा दुग्गा”, घर की सभी महिलाओं की यह एकजुट आवाज़ें गूँजती हैं जैसे-जैसे वे, जीवन में आगे की सुरक्षित यात्रा की कामना करती हुईं, पूजा (पूजो ) के लिए पंडालों की ओर बढ़ती हैं। हर घर, उद्यान या कोने में ज्योतिर्मय धुनुची की सुगंध के साथ ढाक से आने वाली तीव्र ताल की आवाज़ कोलकाता की सड़कों को भर देती है। सबसे सुंदर पोशाक पहनें हुए, सबसे भारी गहने और अपने माथों पर सिंदूर और बिंदियों के साथ मोटी चूड़ियाँ पहनें महिलाओं का आज पुरुषों से एक कदम आगे चलना प्रतीत होता है। आखिरकार, दुर्गा पूजा देवी का दिन होता है।

नौ दिन, जब तक माँ दुर्गा अपने चार बच्चों के साथ बाशा (घर) में रहती हैं, तब तक गलियों में रंग और उत्सव के अलावा कुछ भी नहीं होता है, और केवल दसवें दिन उनका अपने पति शिव के साथ मिलन होता है (जिस दिन को विजयदशमी भी कहा जाता है)। लेकिन क्या यह वास्तव में वहाँ समाप्त हो जाता है? दुर्गा पूजा की विशाल भव्यता और शैली केवल नौ दिनों के त्यौहार तक ही सीमित नहीं है। यह स्वयं उन भक्तों के दिलों में घर करती है, जो जीवन में आने वाली छोटी-छोटी अड़चनों पर "माँ दुग्गा" का उच्चारण करते हैं। शहर की गलियों में लंबे समय तक पूजा की समाप्ति के बाद भी उल्लू ध्वनि (बहुत ही शुभ मानी जाने वाली और बुरी शक्तियों से बचाव करने वाली एक उच्च-स्वर वाली कोलाहल ध्वनि जिसे दोनों गालों पर जीभ से आघात करके उत्पन्न किया जाता है) गूँजती रहती है।

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खास बांग्ला चाली का एक विशिष्ट उदाहरण यहाँ पृष्ठभूमि में देखा जा सकता है जिसमें सजावटी तत्व बेहद सुंदर और विशद हैं

देवी दुर्गा का जन्म

किंवदंतियाँ देवी दुर्गा को हिंदू देवगणों में तीन सबसे शक्तिशाली देवों - ब्रह्मा (निर्माता), विष्णु (संरक्षक) और शिव (संहारक)- की रचना के रूप में बताती हैं। दुर्गा के जन्म की कहानी देवी भागवतम् में वर्णित है। इस पवित्र ग्रंथ के अनुसार एक बार महिषासुर नामक पुत्र, एक असुर (दानव) के यहाँ पैदा हुआ। असुर के रूप में जन्म लेने के कारण उसने हर लड़ाई में असुरों पर देवों की विजय देखी। असुरों की लगातार हार से खिन्न होकर महिषासुर ने देवताओं को प्रसन्न करने के लिए तपस्या (एक लंबा तप) करने का निर्णय लिया। वर्ष बीतते गए। महिषासुर के समर्पण से प्रभावित होकर, भगवान ब्रह्मा ने उसे एक वरदान देने का निर्णय लिया। इस अवसर पर उत्तेजित होकर महिषासुर ने ब्रह्मा से उसे यह वरदान देने के लिए कहा कि कोई मनुष्य और न ही कोई भगवान उसे मार सके। इस प्रकार, उसकी मृत्यु केवल एक महिला के हाथों में होगी- जो उसके संज्ञान में असंभव था। वरदान का लाभ उठाकर महिषासुर ने अपनी असुरों की टुकड़ी के साथ पृथ्वी पर आक्रमण कर दिया। उसने दंड मुक्ति भाव के साथ लूटपाट मचाई और हत्या की। जल्द ही शक्ति से उग्र होकर, इस विश्वास के साथ कि वह तीनों लोक का शासक हो सकता है, उसने स्वर्ग पर कब्ज़ा करने का निर्णय लिया। असुरों और देवों के बीच का युद्ध भयंकर था। महिषासुर ने अंत में अमरावती में इंद्र की सेना को हराया। इस घटना से अपमानित देवतागण एक समाधान खोजने की उम्मीद से त्रिदेव से मिले।

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ओड़िशा। पारंपरिक पाटा। देश। बंगाली युग - 1368

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ओड़िशा। पारंपरिक पाटा। देश। बंगाली युग - 1369

देवों की हार पर खिन्न और क्रोधित त्रिदेव ने इस पर चिंतन किया। असुर को दिए वरदान के बारे में सोचकर भगवान ब्रह्मा ने कहा, "केवल एक स्त्री ही महिषासुर का वध कर सकती है”। लेकिन तीनों लोकों में कौन सी इतनी शक्तिशाली महिला थी जो युद्ध कर सके? त्रिदेव ने अपनी एकजुट सोच के साथ अपनी शक्तियों का उपयोग करके ऊर्जा का निर्माण किया जिसने देवी दुर्गा का रूप धारण किया। महिषासुर को मारने में मदद करने के लिए प्रत्येक देवता ने देवी को अपना अस्त्र दिया। हिमालय के देवता हिमवत ने देवी को सवारी करने के लिए एक शेर प्रदान किया।

प्रारंभ में, दुर्गा के अमरावती पहुँचने पर, महिषासुर एक स्त्री से युद्ध लड़ने के बारे में सोचकर ही हँसने लगा। लेकिन युद्ध छिड़ने पर, महिषासुर को एहसास हुआ कि देवी के भीतर सन्निहित सर्वोच्च शक्तियों का कोई मुकाबला नहीं है। दस दिनों की लड़ाई में, असुर देवी को भ्रमित करने के लिए कई रूप बदलता रहा, लेकिन देवी का निशाना कभी नहीं चूका। जैसे ही असुर अपने मूल रूप, एक भैंस, में बदल गया, दुर्गा ने तेज़ी से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया, और इस प्रकार स्वर्ग और पृथ्वी को अत्याचारी शासक से मुक्ति दिला दी। इसलिए, दुर्गा महिषासुर मर्दिनी (महिषासुर की संहारक) के रूप में जाने जाने लगीं। इस अंतिम दृश्य को दुर्गा पूजा में स्थापित देवी की कई मूर्तियों में दिखाया जाता है। कुछ मूर्तियों में असुर की हत्या करते हुए माँ दुर्गा की मुद्रा, तांडव करते हुए शिव की मुद्रा के समान है।

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कुमारतुली के कलाकार गोपाल पाल द्वारा निर्मित आर्तेर ठाकुर। देवी दुर्गा की खड़ी हुई मुद्रा भारतीय शास्त्रीय मूर्तिकला में दर्शाई गई भगवान शिव की नृत्य मुद्रा का स्मरण कराती है।

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शिव नटराज। चोल, 11-12वीं शताब्दी । कांस्य।

पूजा का इतिहास

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कलाकार स्वर्गीय श्री गोपेश्वर पाल द्वारा निर्मित दुर्गा की मूर्ति।

आश्विन (सितंबर - अक्टूबर) के महीने में मनाई जाने वाली, दुर्गा पूजा (जिसे पूजो के रूप में प्रेमपूर्वक संदर्भित किया जाता है) भारत, विशेष रूप से पश्चिम बंगाल के सबसे प्रतीक्षित त्यौहारों में से एक है। हालाँकि मौसम में ठंडक की शुरुआत होने के बावजूद, भक्तों द्वारा उत्सर्जित गर्मजोशी से हवा भार युक्त हो जाती है।

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ऐहोल दुर्गा मंदिर, VI शताब्दी। बरामदे का आला: दुर्गा, महिषासुर मर्दिनी

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मामल्लपुरम, महिषा मंडप, VII शताब्दी। दुर्गा महिषासुर मर्दिनी

एक आराध्य के रूप में देवी की उत्पत्ति काफ़ी समय पहले की है। देवी का उल्लेख समय के साथ, हमें वैदिक युग के विभिन्न ग्रंथों और रामायण एवं महाभारत में भी मिलता है। इसके बाद भी, 15वीं शताब्दी में कृत्तिवासी द्वारा रचित रामायण के वर्णन के अनुसार रावण संग युद्ध से पहले भगवान राम द्वारा दुर्गा की पूजा 108 नील कमल और 108 पवित्र दीपों से की जाती है। जिस दिन भगवान राम ने रावण को हराया था उस दिन को दशहरे के रूप में मनाया जाता है जो दुर्गा पूजा के दसवें दिन (दशमी) को पड़ता है।

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ठाकुर दलान वाला बैष्णबदास मलिक घराने का गृहमुख

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ठाकुर दलान या दुर्गा दलान (या 18वीं और 19वीं सदी की इमारत के परिसर के केंद्रीय प्रांगण के बहार एक धनुषाकार ड्योढ़ी (पोर्टिको))

लगभग 16वीं शताब्दी के साहित्य में हमें पश्चिम बंगाल में ज़मींदारों (भूमि मालिकों) द्वारा दुर्गा पूजा के भव्य उत्सव के प्रथम उल्लेख मिलते हैं। विभिन्न आलेख अलग-अलग राजाओं और ज़मींदारों की ओर इशारा करते हैं जिन्होंने पूरे गाँव के लिए दुर्गा पूजा मनाई और उनका वित्त पोषण किया। बोइन्दो बारिरी पूजो (ज़मींदारों के घर में पूजा) अभी भी बंगाल में एक प्रथा है। बड़े घराने, लोगों के आगमन और देवी दुर्गा की प्रार्थना के लिए, मूर्ति को अपनी हवेलियों के आँगन में रखते हैं।

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बेलूर मठ में दुर्गा पूजा का अनुष्ठान करता हुआ एक पुजारी।

कोलकाता के सबसे प्रसिद्ध संस्थानों में से एक बेलूर मठ है। रामकृष्ण मठ और मिशन का मुख्यालय, बेलूर मठ, स्वामी विवेकानंद द्वारा स्थापित किया गया था। हुगली नदी के पश्चिमी तट पर स्थापित यह मठ एक बहुत लोकप्रिय दुर्गा पूजा का आयोजन करता है। यहाँ पहली दुर्गा पूजा 1901 में स्वामी विवेकानंद ने खुद आयोजित की थी। प्रारंभ में, एक छोटे से पंडाल के अंदर मनाई जाने वाली बेलूर मठ की दुर्गा पूजा अब हर साल हज़ारों लोगों को आकर्षित करती है।

देवी की मूर्ती का निर्माण

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निर्माणाधीन महिषासुर मर्दिनी की मिट्टी की मूर्ति।

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पूजा के पंडालों में से एक में रखी हुई माँ दुर्गा की एक रंग-बिरंगी मूर्ति।

अनेकों बार देवी के विभिन्न रूपों में कल्पना की गई, फिर भी पुराणों में उन्हें एक निराकार सर्वोच्च शक्ति का रूप बताया गया है। देवी पुराण में, जब महिषासुर और माँ दुर्गा के बीच टकराव होता है, तब वह स्वयं को 'आदि पराशक्ति' या 'निराकार शक्ति' कहतीं हैं। तथापि, हमारे पवित्र ग्रंथों के साथ-साथ चित्रों में देवी की आभा और सुंदरता का वर्णन है। इस प्रकार, पूजा के लिए मूर्ति का निर्माण पूजा से कुछ दिन पहले रेत और मिट्टी के मिश्रण की कला से कहीं अधिक है। यह प्रेम और भक्ति है जो किसी भी बुराई को दूर करने के लिए एक उग्र रूप लेती हुई ऊर्जा के सर्वोच्च रूप को बनाने में सम्मिलि की जाती है। कला का यह रूप कुमारतुलि में साल भर चलता है! कुमारतुली उत्तरी कोलकाता का एक इलाका है जहाँ मूर्ति निर्माण की विरासत है।

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कुमारतुली बस्ती में एक गली

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कुमारतुली की वर्तमान बस्ती

हुगली नदी के तट पर स्थित, कुमारतुली की बसावट 17वीं शताब्दी के पहले की है। अंग्रेज़ी ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा उनके आवासीय क्षेत्रों के अधिग्रहण के बाद कुछ कुम्हार अपनी जीविका के निर्वाह के लिए यहाँ आ गए। धीरे-धीरे, अन्य कुम्हारों की तरह मिट्टी के बर्तन बनाते हुए, यहाँ बसने वाले लोग मूर्ति निर्माण करने लगे; और तब से, पीढ़ी दर पीढ़ी, कुमार (कुम्हार) पूजा के लिए माँ की प्रतिमा बनाते आ रहे हैं। कुमारतुली की गलियों से गुज़रते हुए आप लगभग दोनों ओर क्रम में मूर्तियों का आपको टकटकी लगाकर देखना महसूस कर सकते हैं।

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हाथगाड़ी में रख कर कार्यशाला में ले जाई जा रही।

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अपनी कार्यशाला में कुमारतुली का एक कारीगर

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दरारों को ढँकने के लिए मिट्टी के मिश्रण से मूर्ति पर परतें चढ़ाई जाती हैं।

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एक बच्चा उत्सुकता से मूर्ति को बनते हुए देखता है।

दुर्गा पूजा के लिए मूर्तियाँ बनाने की प्रक्रिया एक अच्छी तरह से अभ्यास किए गए ऑर्केस्ट्रा की तरह है जिसमें कुमार (कुम्हार) प्रमुख कलाकार होते हैं। इसमें सामग्री संग्रहण, ढलाई, चित्रकारी और सजावट सहित विभिन्न चरण होते हैं। देवी को मूर्ति में ढालने के लंबे दिनों में सामग्री का संग्रहण पहला चरण होता है।

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सुधीर पाल का स्टूडियो

दुर्गा की मूर्ति बनाने के लिए जिन मुख्य घटकों का उपयोग किया जाता है, उनमें बाँस, पुआल, भूसी और पुण्य माटी शामिल हैं। पुण्य माटी पवित्र गंगा नदी के किनारे की मिट्टी, गोबर, गोमूत्र और वैश्यालय की मिट्टी, जिसे 'निशिद्धो पल्ली' या निषिद्ध प्रदेश भी कहा जाता है, का मिश्रण होती है। वैश्यालयों की मिट्टी का उपयोग करने के इस सदियों पुराने अनुष्ठान के कई अर्थ हैं। ऐसा कहा जाता है कि जब कोई व्यक्ति पाप करने के लिए निषिद्ध क्षेत्रों में प्रवेश करता है, तो वह अपने गुणों को दरवाज़े पर छोड़ देता है। इसलिए इस मिट्टी को शुद्ध और पुण्य कहा जाता है। वेदों पर आधारित एक अन्य परिप्रेक्ष्य यह है कि महिलाएँ नौ वर्गों के अंतर्गत आती हैं, इन्हें नवकनिया के रूप में जाना जाता है और दुर्गा पूजा के दौरान माँ दुर्गा के साथ इन्हें पूजा जाता है। नटी (नर्तक) के साथ-साथ वैश्या (तवायफ़) भी नवकन्याओं में शामिल हैं। इस प्रकार, उनके दरवाज़े की मिट्टी का उपयोग पूजा के दौरान उन्हें दिए गए सम्मान का प्रतीक है। कारण चाहे जो भी हो, सदियों पुरानी इस रस्म का आज भी बिना किसी सवाल के पालन किया जाता है।

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एक शिल्पकार पूजा की मूर्ति के बाँस के ढाँचे पर काम शुरू करते हुए।

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कलाकार का स्टूडियो

मूर्ति का निर्माण बाँस की छड़ियों के उपयोग से शुरू होता है ताकि मूर्ति को एक निश्चित आकार दिया जा सके।

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जैसे ही मूर्ति आकार लेने लगती है, एक कारीगर बाँस के चारों ओर भूसी बाँधता है।

अगला, पुआल और भूसी को शरीर के गठन के लिए एक मूल आकार देने के लिए बाँस की छड़ियों के चारों ओर भरा जाता है।

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मिट्टी के मिश्रण से मूर्तियों पर लगाया गया लेप।

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दरारों को ढँकने के लिए मिट्टी के मिश्रण से मूर्ति पर परतें चढ़ाई जाती हैं।

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मूर्ती को धूप में सुखाने की प्रक्रिया के कारण मिट्टी की परत फट जाती है।

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मूर्ति को मज़बूत बनाने के लिए कारीगर उस पर कई बार परत चढ़ाते हैं।

इसके बाद मूर्ति पर मिट्टी की परत चढ़ाई जाती है जो अंत में आदिशक्ति के शारीरिक रूप को परिभाषित करती है।

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कारीगर मूर्तियों पर परत चढ़ाने के लिए माटी (मिट्टी) मिलाता हुआ ।

चिकना और मज़बूत रूप देने के लिए, भूसी के साथ मिश्रित चिकनी मिट्टी की एक के ऊपर एक परतें चढ़ाई जाती हैं।

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एक कलाकार माँ दुर्गा की मूर्ति के चेहरे को आकार देता हुआ ।

माँ दुर्गा का चेहरा मूर्ति का सबसे जटिल हिस्सा होता है।

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इसलिए, उनका सर अलग से ढाला जाता है और कारीगर की समग्र दृष्टि के अनुरूप इसे धड़ से जोड़ा जाता है।

पूजा पंडाल में कभी भी दुर्गा के भाव अनदेखे नहीं रह पाते। उग्र मगर शांत, देवी का चेहरा अत्यधिक सावधानी से चित्रित किया जाता है।

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अंतिम परिष्करण से पहले सूखती हुई पूजा की मूर्तियाँ

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माँ दुर्गा की मूर्ति की आँखों को रंगता कलाकार

मूर्ति को धूप में सूखाने के बाद इसे सबसे चटकीले रंगों में रंगा जाता है!

महालया के दिन - जिस दिन देवी को पृथ्वी पर उतरने के लिए आमंत्रित किया जाता है - कारीगर माँ दुर्गा की मूर्ति पर आँखों को चित्रित करते हैं। यह अंतिम स्पर्श चौखू दान नामक रिवाज़ के रूप में देवी को दिया जाता है।

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देवी के पंडालों की ओर प्रस्थान करने से पहले अंतिम चरण में माँ को भव्य साड़ी और जटिल आभूषण और माला पहनाई जाती है।

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आभूषण और माला काग़ज़, चमकी, मनके और चटकीले धागे जैसी सामग्रियों का उपयोग करके बनाए जाते हैं।

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देवी की मूर्ति के मुकुटोर के लिए मूल कटवर्क। देवी दुर्गा के साजोर आभूषण कभी न कभी तत्कालीन समय की महिलाओं के बीच प्रचलित फैशन से प्रभावित होते रहे हैं। इस विशेष मुकुटी के डिज़ाइन के बारे में एक दिलचस्प बात यह है कि किरीट अर्थात ऊपर का हिस्सा इंग्लैंड की रानी के ताज के आकार जैसा दिखता है।

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कागज़ से बना मूल कटवर्क जो देवी दुर्गा के आभूषणों का आधार बनता है। दुर्गा मूर्ति के परिधान पर विभिन्न आभूषण और डिजाइन किए गए तत्वों को बनाने के लिए कागज के इन टुकड़ों से चमकदार कागज, जरी, चुमकी आदि जुड़े होते हैं।

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विभिन्न डिजाइनों के ज़री या सोने और चाँदी के धागों के नमूने जो आजकल दुर्गा की मूर्ति को सजाने के लिए उपयोग किए जाते हैं। ये ज़री के सस्ते धागे हैं जो पुराने दिनों में सोने, चाँदी और तांबे के हुआ करते थे।

जब दुर्गा घर आतीं हैं, तो वह अकेली नहीं आतीं हैं। माना जाता है कि दुर्गा अपने साथ अपने चार बच्चों - गणेश, कार्तिकेय, लक्ष्मी और सरस्वती - के साथ आती हैं, जिन्हें उनके आस-पास रखा जाता है। जबकि कुछ इस पर विश्वास करते हैं, अन्य लोगों के पास इससे असहमत होने के कारण हैं।

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मूर्ति को पूरा करता हुआ कलाकार

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दुर्गापाटा। देश। बंगाली युग - 1376

भारतीय संस्कृति के कुछ शोधकर्ताओं का तर्क है कि उनके बगल में स्थित मूर्तियाँ उनके बच्चे नहीं हैं बल्कि उनके गुण धर्म हैं जिन्हें एक भौतिक रूप दिया गया है। बहरहाल, इन चारों देवी-देवताओं की मूर्तियों को भी दुर्गा की मूर्ति की समान विधि से बनाया जाता है और उन्हें उनके बगल में रखा जाता है। एक और महत्वपूर्ण मूर्ति असुर, महिषासुर की होती है, एक डरावनी अभिव्यक्ति के साथ जब कि देवी हाथों में अस्त्र धारण किये उग्र भाव से नीचे असुर की तरफ देखती है।

आमतौर पर माँ दुर्गा को दस भुजाओं के साथ देखा जाता है, लेकिन महालक्ष्मी (दुर्गा का एक रूप) को देवी भागवतम् पुराण के अनुसार अठारह भुजाओं वाला माना जाता है। माँ दुर्गा की प्रत्येक भुजा उनके निर्माण के समय देवों द्वारा उन्हें दी गई वस्तुओं को धारण करती है। इन सभी वस्तुओं की पूजा आरती के दौरान की जाती है।

पंडाल

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माँ दुर्गा की मूर्ती अन्य मूर्तियों के साथ एक चमकीले और रंग-बिरंगे पूजा के पंडाल में विराजमान हैं।

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पूजा के पंडाल के निर्माण की शुरुआत

पंडाल उन दिनों के लिए देवी के निवास स्थान होते हैं जिन्हें वह अपने परिवार और भक्तों के साथ बिताती है। पूजा के प्रत्येक दिन देवी की आराधना के लिए आने वाले ज़बरदस्त संख्या में लोगों को एकत्रित करने के लिए अस्थायी मंडप के रूप में निर्मित पंडालों को शहर के चारों ओर बनाया जाता है। पंडालों का निर्माण बाँस के विशाल खंभों को बाँधकर किया जाता है और फिर उन पर कपड़ा लपेटा जाता है।

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एस बी पार्क बेहला का पूजा मंडप बाँस और रस्सियों के जाल से बनकर उभरता है।

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एस बी पार्क सर्बोजनिन क्लब प्लाज़ा के लिए पूजा का मंडप बनाने में कारीगर बेहद व्यस्त हैं।

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पंडाल के एक छोर पर मंच होता जहाँ माँ दुर्गा के साथ अन्य मूर्तियाँ रखी जाती हैं, जबकि बाक़ी जगह उनके भक्तों से भरी होती है।

पहले के समय में, कुलीन परिवार अपनी हवेलियों में पूजा मनाया करते थे। केंद्रीय प्रांगण को साफ किया जाता था और देवी की मूर्ति को रखने के लिए सजाया जाता था। देवी की प्रार्थना करने के लिए चारों ओर से लोग घर में इकट्ठा होते थे। धीरे-धीरे, समय के साथ, पंडाल बढ़ने लगे और अब वे त्यौहारों के मौसम के दौरान कॉलोनियों, उद्यानों या सड़कों पर भी स्थापित किए जाते हैं। पंडाल भ्रमण (एक के बाद एक पंडाल जाना) अब एक प्रतिमान है। सुंदर कपड़े पहने लोग एक पंडाल से दूसरे पंडाल में जाते हैं और प्रत्येक पंडाल में रखी देवी की प्रतिमा को निहारते हुए दोस्तों और परिवार से मिलतें हैं। जैसे-जैसे साल बीतते गए, पंडालों की महिमा बढ़ती गई। एकल रंग के मंडप से लेकर विषयवस्तु वाले बाहरी और आंतरिक प्रतिरूप तक, पंडाल अपने आप में एक देखने लायक स्थान बन गए हैं। जैसे-जैसे रात होती है और अस्तव्यस्तता बढ़ती है, तब चमकते हुए पंडाल सिर्फ एक स्थान बन कर नहीं रह जाते हैं - यह परिवार और दोस्तों से मिलने और जश्न मनाने की जगह बन जाते हैं!

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पथुरीघाट में जोडुअल मलिक का आवासीय भवन

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पूजा पंडाल का निर्माण (पहले)

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पूजा पंडाल का निर्माण (बाद में)

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आरती करते हुए भक्त

रीति-रिवाज़

हवा में ऊर्जा की गूँज के साथ, कोलकाता शहर दुर्गा पूजा के दस दिनों तक जगमगाता रहता है। हवा में ताज़े पके हुए भोग की महक, ढाक और शंख की ध्वनि के साथ इसे हर घर में हर दिन असीम ऊर्जा के साथ मनाया जाता है। हर साल, पंचांग (पूजा की तिथि और समय के साथ एक कैलेण्डर) का आगमन अपने साथ आने वाले त्यौहार का आनंदमय विचार लाता है।

महालया पितृ पक्ष श्राद्ध (हमारे पूर्वजों को श्रद्धांजलि देने की 16 दिन की अवधि) और शुभ दुर्गा पूजा की शुरुआत का प्रतीक है। इस दिन को देवी का अपनी माँ के घर की ओर यात्रा की शुरुआत माना जाता है। सुबह आप बंगाली कॉलोनियों में रेडियो या टेलीविज़न से आने वाली चंडी पाठ की एकीकृत ध्वनि सुन सकते हैं।

छठा दिन या षष्टी देवी माँ के अपने निवास में प्रवेश को चिंहित करता है। माँ दुर्गा अपने पंडाल में भगवान गणेश, भगवान कार्तिकेय, देवी लक्ष्मी और देवी सरस्वती के जुलूस का नेतृत्व संपूर्ण शोभा से करतीं हैं। चमकीले आभूषण, चमकीली साड़ी और सिंदूर से सुशोभित, देवी ढाकियों के साथ होतीं हैं (ढाक वादक - ढाक दो लकड़ी की छड़ियों का उपयोग करके बजाया जाने वाला ढोल जैसा वाद्य होता है)। ढाक की आवाज़ दिल की धड़कन बढ़ा देती है और जुलूस में एक उन्माद जोड़ती है। शाम को बोधोन होता है। बोधोन पूजा के सातवें, आठवें और नौवें दिन देवी दुर्गा के जागरण को कहते हैं। देवी के चेहरे का अनावरण एक औपचारिक पूजा के साथ बोधोन के दौरान होता है।

सातवें दिन या सप्तमी के समारोह भोर से पहले शुरू होते हैं। दिन के लिए अनुष्ठान ‘कोला बाऊ’ (केले की दुल्हन) या 'नाबापत्रिका स्नान’ नामक भोर से पूर्व स्नान के साथ शुरू होते हैं। कोला बाऊ, जिन्हें गणेश की पत्नी माना जाता है, की व्याख्या स्वयं देवी दुर्गा के रूप में की जाती है। जैसा कि दुर्गा को कृषि की देवी के रूप में जाना जाता है, कोला बाऊ को देवी दुर्गा के नौ प्राकृतिक पौधों के रूपों द्वारा दर्शाया जाता है। जब सभी एक साथ बँधे होते हैं, तो केले का पत्ता एक नवविवाहित दुल्हन के घूँघट की तरह दिखता है जिससे वह अपना चेहरा शर्म से छिपा लेतीं हैं। जैसे-जैसे पुजारी मंत्रोउच्चारण करते हैं, कोला बाऊ को तब नदी में स्नान कराया जाता है। एक नई साड़ी उनके चारों ओर लपेटी जाती है और उन्हें गणेश के दाईं ओर रखा जाता है।

आठवाँ दिन - अष्टमी या महा दुर्गाष्टमी रंग, कार्यक्रम और भव्यता का दिन है। नए खरीदे गए कुर्तों, साड़ियों और मेल खाते हुए आभूषण पहने लोग पंडाल की ओर जाते हैं और दिन भर पूजा अर्चना करते हैं। जैसे-जैसे दिन सोंधी आरती के निकट आता है, सड़क पर भीड़ और सघन होती जाती है। इस दिन, अलग-अलग रंगों के झंडों के साथ नौ छोटे बर्तन, प्रत्येक अलग-अलग शक्तियों (ऊर्जा) के लिए, स्थापित किए जाते हैं और नौ शक्तियों का आह्वान और उनकी पूजा की जाती है। पंडालों में लोग अंजोली देने के लिए दुर्गा की मूर्ति के पास जाते हैं। यहाँ बेल पाता (बेल के पत्तों) के साथ फूल की पंखुड़ियों को भक्तों के बीच वितरित किया जाता है, जिसे वे पुजारी द्वारा मंत्र पढ़ते समय पकड़े रहते हैं। फिर फूलों को एकत्र किया जाता है और देवी के चरणों में चढ़ाया जाता है। अंजोली सप्तमी, अष्टमी के साथ-साथ नवमी के अनुष्ठानों का एक हिस्सा है।

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बेलूर मठ में माँ दुर्गा की पूजा करता हुआ एक पुजारी

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बेलूर मठ में कुमारी पूजा को ध्यान से देखती हुई एक युवा कुमारी

इसके बाद कुमारी पूजा होती है जहाँ युवा, अविवाहित लड़कियाँ, जो अभी तक तरुणावस्था में नहीं पहुँची हैं, देवी के रूप में पूजी जाती हैं। लड़कियों की उम्र (एक से सोलह तक) के आधार पर उन्हें दुर्गा के विभिन्न रूपों में पूजा जाता है। एक जीवंत देवी की तरह दिखने वाली युवा कुमारी को प्रसाद के रूप में फूल, मिठाई और दक्षिणा (उपहार) भेंट की जाती है।

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वैधिक आरती करते हुए एक पुजारी

महा अष्टमी पर सांधी आरती के लिए भारी भीड़ जुटती है। अष्टमी के अंतिम 24 मिनट और नवमी (नौवें दिन) के पहले 24 मिनट को सोंधी (संधिया) या पवित्र अंतराल माना जाता है। इस पूजा में देवी की उनके चंडी अवतार में आराधना की जाती है। पूजा के दौरान सुनाई जाने वाली मार्कण्डेय पुराण की कथा के अनुसार महिषासुर के साथ युद्ध के दौरान दुर्गा ने दो असुरों – चंड (चंडो) और मुंड (मुंडो) - को मारने के लिए चंडी का रूप लिया था। सोंधी आरती में 108 दीपों को प्रथा के रूप में प्रज्जवलित किया जाता है, जबकि ढाकी ढाक बजाते हैं और लोग आरती की ध्वनि पर खुशी से नाचते हैं। इन क्षणों में आप खुद को पूरी तरह से परिवेश में सराबोर महसूस कर सकते हैं। जैसे-जैसे आरती और ढाकी की ताल स्वरोत्कर्ष तक पहुँचती है लोग ताली बजाते हैं और नाचते हैं और फिर आरती पूरी होने के साथ सन्नाटा छा जाता है। पूजा का समापन भोग के वितरण के साथ होता है।

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दुर्गा पूजा के पंडाल में धुनुची-नाच करता हुआ एक आदमी

नौवाँ दिन - नवमी, पूजा की श्रृंखलाओं के साथ आगे बढ़ता है। इनमें मुख्य अनुष्ठानों में बलि (बोलि) और होम हैं। देवी को प्रसन्न करने के लिए, बोलि, बलिदान की परंपरा है। अब यह ज्यादातर कद्दू या गन्ने के साथ की जाती है। होम एक अग्नि यज्ञ है जो वैदिक तथा तांत्रिक परंपराओं के समायोजन से होता है। दिन का समापन आरती के साथ-साथ धुनुची-नाच (धुनुची एक बंगाली धूप जलाने वाला बर्तन होता है जिसका उपयोग अनुष्ठानिक पूजा नृत्य के लिए किया जाता है) के साथ होता है।

दसवाँ दिन - दशमी को बिजोय दशमी (दसवें दिन विजय) के रूप में जाना जाता है। इस दिन देवी घर वापस आने के लिए अपनी यात्रा शुरू करती हैं। दिन के सबसे दिलचस्प हिस्सों में से एक सिंदूर खेला (सिंदूर का खेल) है। इसमें विवाहित महिलाएँ देवी को सुपारी, मिठाई और सिंदूर के रूप में बरन (विदाई) देती हैं। इसके बाद महिलाएँ एक-दूसरे की मांग में सिंदूर भरतीं हैं और बाक़ी के सिंदूर को एक-दूसरे के चेहरों पर लगातीं हैं। चूँकि सिंदूर एक विवाहित महिला की निशानी है, इस अनुष्ठान को अपने परिवार के साथ-साथ अपने पतियों के स्वास्थ्य और शांति के लिए देवी की प्रार्थना के समान माना जाता है। लाल-पार-सादा-साड़ी (गहरे लाल किनारी वाली सफेद साड़ी) पहनें और लाल सिंदूर से ढके महिलाओं के चेहरों से उनकी खुशी प्रत्यक्ष दिखाई देती है।

सिंदूर खेला के बाद, देवी की मूर्ति का बिसोर्जन (विसर्जन) दुर्गा पूजा का समापन समारोह होता है। कुछ के लिए माँ को जाते हुए देखना एक भावनात्मक क्षण होता है। माँ दुर्गा की मूर्ति के साथ-साथ नाबापत्रिका को नदी में डूबते हुए अंतिम विदाई देने के लिए भक्तों की भारी भीड़ उपस्थित होती है। विसर्जन स्थल से इकट्ठा किया गया जल (शांति जल) भक्तों पर छिड़का जाता है, जो माँ द्वारा पीछे छोड़ी गई शांति को सम्मिलित करता है। आँखों में आँसू लिए लोग अपने दिलों में बसी देवी के साथ घर लौटते हैं

पूजो को जीना

दुर्गा पूजा के अनुभव को शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता है। यह एक ऐसी भावना है जिसे लोग जीते हैं। इस उत्सव का वे साल भर इंतज़ार करते हैं। रंगमंच, नृत्य और कला प्रतियोगिता जैसे कई सांस्कृतिक तत्व पूजा पंडाल में एक आकर्षक आंनदायक दृश्य प्रदान करते हैं। विषयगत रूप से सजाए गए पंडाल विभिन्न सामग्रियों में उत्कृष्ट शिल्प कौशल का प्रदर्शन करते हैं। इस प्रकार, पूजा न केवल माँ के भक्तों, बल्कि सांस्कृतिक कला शैलियों के प्रशंसकों को भी आकर्षित करती है।

आप किसी भी पंडाल की ओर जाने वाली गलियों में कदम रखते ही अपनी सारी इंद्रियों को जागृत महसूस कर सकते हैं और इससे पहले कि आप कुछ समझ पाएँ, आप अपने चारों ओर चटक लाल रंगों को एक टक देखते हुए ढाक की आवाज़ पर झूम रहे होते हैं, धुनुची के साथ नाच रहे होते हैं और ताज़ा पके हुए भोग की खुशबू से आनंदित होते हैं! दुर्गा पूजा का सार इन नौ दिनों के दौरान शुद्ध आनंद की भावनाओं में निहित है। परिवार फिर से मिलते हैं, दीदा (दादी) अपने पोते-पोतियों से मिलती हैं, दोस्त गप्पे मारते हैं और अनेक प्रकार के भोजन का आनंद लेते हैं। यह सब शहरों में फैले हुए असंख्य पंडालों में देवी की चौकस निगरानी के तहत होता है।