श्री. जगदीश्वर निगम, आईसीएस
जगदीश्वर निगम का नाम लेते ही हमें एक ऐसे ब्रिटिश भारतीय लोक सेवा के अफ़सर के असाधारण साहस की रोचक कहानी याद आती है, जिन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन और गांधी जी की अहिंसावादी विचारधारा का खुलकर समर्थन किया था। निगम अंग्रेज़ सरकार के ‘स्टील फ़्रेम’ के सदस्य थे, लेकिन उन्होंने अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुनी और भारतवासियों की स्वतंत्रता के लिए कदम उठाए। उनके ये महान शब्द ‘मैं खून से सनी रोटी नहीं खाऊँगा’ उनके सिद्धांतों और विचारों के बारे में बहुत कुछ कहते हैं।
श्री. निगम का जन्म 7 अप्रैल, 1902 को झाँसी के मऊरानीपुर में हुआ था। वे माधव प्रसाद निगम और उनकी दूसरी पत्नी, सुंदरी निगम, के बेटे थे। उनके पिता झाँसी के न्यायालय में पेशकार थे। परिवार में सबसे छोटे होने के कारण उन्हें सभी का लाड़-प्यार मिला। जब जगदीश्वर निगम छोटे थे, तब वे अपने पिताजी के साथ न्यायालय जाया करते थे और वहाँ कार्यवाहियों को बड़े ध्यान से सुनकर, भारतीयों द्वारा बड़े पैमाने पर सहे जा रहे भेदभाव को कुछ हद तक समझने लगे थे। जब भारतीयों को जेल की सज़ा सुनाई जाती थी, तब वे उदास हो जाते थे। इसके अतिरिक्त, झाँसी बुंदेलखंड क्षेत्र का भाग था, जहाँ झाँसी की रानी के विद्रोह की स्मृतियाँ जन मानस में रची-बसी थीं। युवा जगदीश्वर के वैचारिक दृष्टिकोण पर इस तथ्य का भी प्रभाव पड़ा। 7 वर्ष की आयु में उन्होंने अपने पिताजी से कहा, “एक दिन मैं न्यायाधीश बनूँगा और उस कुर्सी पर बैठकर अपने लोगों को न्याय दिलाऊँगा।”
जगदीश्वर को एहसास हुआ कि भारत के लोगों को न्याय दिलाने का बेहतरीन तरीका है ब्रिटिश प्रशासन का अंग बनना और व्यवस्था के भीतर से काम करना। उनका लक्ष्य था ब्रिटिश भारतीय लोक सेवा (आईसीएस) का अधिकारी बनना, जिसके पास महत्वपूर्ण शक्तियाँ होती थीं। उन्होंने यह लक्ष्य प्राप्त करने के लिए रात-रातभर जागकर पूरी निष्ठा से पढ़ाई की। उन्होंने फ़ैज़ाबाद के सरकारी माध्यमिक विद्यालय में प्रथम स्थान प्राप्त किया और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ाई-लिखाई की। उन दिनों इलाहाबाद राजनैतिक गतिविधियों का केंद्र था और विश्वविद्यालय में राष्ट्रीय नेताओं का आना-जाना लगा रहता था, जो भारतीय युवाओं को स्वतंत्रता आंदोलन में सम्मिलित होने के लिए प्रेरित करते थे।
बुंदेलखंड का नक्शा जिसपर जगदीश्वर निगम के जन्मस्थान, मऊरानीपुर. को दर्शाया गया है।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, जहाँ जगदीश्वर निगम ने 1921 में बी.एससी. डिग्री डिस्टिंक्शन के साथ उत्तीर्ण की थी। चित्र सौजन्य : विकिमीडिया कॉमन्स
1923 में एक बहुत ही कठिन परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद जगदीश्वर निगम का आईसीएस में चयन हो गया। इस परीक्षा में उनका मुकाबला उन अंग्रेज़ प्रतियोगियों से था, जिनकी शिक्षा बेहतरीन ब्रिटिश विद्यालयों और महाविद्यालयों में पूरी हुई थी। वे उन चार भारतीयों में से एक थे, जिन्हें उस वर्ष सफलता मिली थी। उन्हें प्रशिक्षण के लिए इंग्लैंड भेजा गया, जिसके कारण उन्हें अपनी युवा पत्नी, सरस्वती को पीछे छोड़ना पड़ा, जिनसे उनका विवाह उनके चयन से पहले हुआ था। इंग्लैंड में उन्होंने कैंब्रिज के क्वीन्स कॉलेज में दो वर्ष पढ़ाई-लिखाई की।
जगदीश्वर 1925 में भारत लौटे और उन्हें 24 अक्टूबर, 1925 को मिर्ज़ापुर के सहायक मजिस्ट्रेट और सहायक कलेक्टर के रूप में नियुक्त किया गया। इसके बाद उन्होंने अलग-अलग स्थानों पर कार्यभार सँभाला और उन्हें कई बार पदोन्नति मिली और अंंत में 7 अप्रैल, 1939 को उन्हें बलिया ज़िले के ज़िला मजिस्ट्रेट और कलेक्टर के रूप में नियुक्त किया गया। संयुक्त प्रांत के राज्यपाल, मॉरिस हैलेट ने इस नियुक्ति का निर्णय श्री. निगम की दक्ष प्रशासन क्षमता और बलिया ज़िले तथा वहाँ के लोगों के साथ उनके परिचय को देखते हुए लिया था। श्री. निगम को पहले 1932 में बलिया में नियुक्त किया गया था और इस कार्यकाल में उनकी कई लोगों से जान-पहचान हो गई थी, जिनमें ज़िला कांग्रेस समिति के प्रमुख, चित्तू पांडेय भी शामिल थे। इसके अतिरिक्त, बलिया राजनैतिक उथल-पुथल के लिए भी जाना जाने लगा था, क्योंकि वहाँ के लोगों ने असहयोग आंदोलन और सविनय अवज्ञा आंदोलन में भाग लिया था तथा कांग्रेस के महत्त्वपूर्ण नेताओं का इस ज़िले में आना-जाना लगा रहता था। साथ ही, दो अधिकारियों के बीच सांप्रदायिकता के मुद्दे का लाभ उठाने की आशा में, राज्यपाल ने श्री. रियाज़ अहमद खान नामक एक और विश्वसनीय व्यक्ति को पुलिस अधीक्षक के रूप में नियुक्त किया।
क्वीन्ज़ कॉलेज, कैंब्रिज, यूके, जहाँ जगदीश्वर निगम ने आईसीएस में उनका चयन हो जाने के बाद पढ़ाई-लिखाई की थी
जगदीश्वर निगम अपनी पत्नी, सरस्वती निगम, के साथ
इस दौरान एक बार जब महात्मा गांधी ट्रेन से कलकत्ता जा रहे थे, तब उन्हें आधी रात को कानपुर में रुकना पड़ा था। श्री. निगम को संदेश मिला कि वे गांधी जी से मिलें और उनकी ज़रूरतों का ध्यान रखें। उनकी यह अनौपचारिक मुलाकात एक घंटे तक चली। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि इसके कुछ ही वर्षों बाद श्री. निगम ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में ऐसी भूमिका निभाई, जिसकी इतिहास में कोई और मिसाल नहीं है।
जब गांधी जी ने भारत छोड़ो आंदोलन शुरू किया, तब श्री. निगम को अपने मन में दबी हुई स्वतंत्रता संग्राम में योगदान देने की वर्षों पुरानी इच्छा को मूर्त रूप देने का अवसर मिला। गांधी जी के ‘करो या मरो’ नारे की प्रतिक्रिया स्वरूप औपनिवेशिक सरकार ने 9 अगस्त, 1942 को गांधी जी और कांग्रेस के प्रमुख नेताओं को गिरफ़्तार कर लिया। जब यह खबर बलिया पहुँची, तो दुकानें और विद्यालय बंद कर दिए गए और लोग नारे लगाते हुए सड़कों पर उतर आए। इस परिस्थिति को देखते हुए बनारस के आयुक्त और बलिया के प्रभारी, एम.एच.बी. नेदरसोल 10 अगस्त को बलिया में तैनात हो गए। श्री. निगम ने अपने वरिष्ठ ब्रिटिश अधिकारियों के आदेश का पालन करते हुए चित्तू पांडेय और राधे मोहन सिंह नामक बलिया के दो प्रमुख स्थानीय नेताओं को गिरफ़्तार कर लिया। इस बात से आश्वस्त होकर कि बलिया अब शांत रहेगा, नेदरसोल ज़िले से चले गए।
बलिया ज़िले का नक्शा
एक डाक टिकट जिसपर गांधी जी को उनके मंत्र ‘करो या मरो’ के साथ दिखाया गया है। चित्र सौजन्य : विकिमीडिया कॉमन्स
19 अगस्त को श्री. निगम ने श्री. रियाज़ अहमद खान के साथ मिलकर अंग्रेज़ों के विरुद्ध खुलकर विद्रोह किया। श्री. निगम ने ज़िला मजिस्ट्रेट के रूप में अपने अधिकारों का उपयोग करते हुए चित्तू पांडेय तथा अन्य नेताओं को बिना किसी शर्त के रिहा करने के लिए कानूनी व्यवस्था की। उन्होंने अपना हैट नीचे फेंक दिया, उसपर अपना पैर पटका और बोले, “यह गया ब्रिटिश राज।” उन्होंने पूरे सम्मान के साथ अंग्रेज़ी ध्वज को नीचे उतारा, और उसे तहाकर एक सुरक्षित स्थान पर रख दिया। गांधी जी के चरखे से युक्त भारतीय ध्वज को कलेक्टर के कार्यालय और निवास-स्थान पर फहराया गया। फिर उन्होंने चित्तू पांडेय को टाउन हॉल मैदान तक सुरक्षित पहुँचा दिया।
टाउन हॉल में लखनऊ, बनारस और आसपास के ज़िलों से आए हुए लगभग 40,000 लोगों के जनसमूह के सामने भारतीय ध्वज को फहराया गया। एक समानांतर सरकार की घोषणा की गई, जिसके प्रमुख चित्तू पांडेय बने। इस तरह श्री. जगदीश्वर निगम ने भारतीयों को रक्तपात के बिना शांति से सत्ता का अधिकार सौंप दिया। बलिया अल्पावधि के लिए गणतंत्र बन गया। उन्होंने इस बात का ख्याल रखा कि कोई हिंसा न हो। उन्होंने चित्तू पांडेय से कहा कि वे जनसमूह को शांति बनाए रखने के लिए कहें। श्री. निगम ने पुलिसकर्मियों को आदेश दिया कि वे गोलियों की बौछार या लाठी चार्ज न करें। जब डिप्टी मजिस्ट्रेट श्री. कक्कड़ ने आदेशों का उल्लंघन करते हुए 25 लोगों को गोली से मार गिराया, तब श्री. निगम ने आगे का रक्तपात रोकने के लिए सभी बंदूकों को ज़ब्त करने का आदेश जारी किया। अंग्रेज़ सिपाहियों की बंदूकों को भी ज़ब्त कर लिया गया। इससे पहले जब जनसमूह ने राजकोष को घेर लिया था, तब श्री. निगम ने उसकी छत से लोगों को संबोधित करते हुए उन्हें धैर्य रखने के लिए कहा था। उन्होंने अपने अफ़सरों को करेंसी नोटों की क्रम संख्या लिख लेने का आदेश दिया था। लोगों ने पूरे मन से सहयोग दिया। समानांतर सरकार की घोषणा हो जाने के बाद पुलिसकर्मी पुलिस लाइन लौट गए और सरकारी संपत्ति की रक्षा करने में जुट गए।
बलिया के शेर (शेर-ए-बलिया), चित्तू पांडेय
बलिया जेल का चित्र
बलिया का राजकोष जिसे 40,000 लोगों के जनसमूह ने घेर लिया था।
संचार माध्यम के बाधित हो जाने से इस खबर को बलिया से बाहर जाने में समय लगा। परंतु अंग्रेज़ सरकार को यह बात अंततः स्पष्ट हो गई कि उनके सबसे अधिक विश्वस्त अधिकारियों में से एक ने विद्रोह कर दिया है। बलिया पर फिर से कब्ज़ा करने के उद्देश्य से 21-22 अगस्त, 1942, की बीच की रात को नेदरसोल अंग्रेज़ी फ़ौज के साथ बलिया में घुस गए। उन्होंने आतंक का वातावरण फैला दिया और लोगों पर एकाएक मशीन गनें चलवा दीं। श्री. निगम और श्री. खान ने पदत्याग करने से इनकार किया और लोगों के बचाव में खड़े हो गए। उन्होंने अंग्रेज़ी फ़ौज के किसी भी गैरकानूनी आदेश को लागू करने से भी इनकार किया। श्री. निगम भारतीय नेताओं को सचेत करने में सफल हुए और चित्तू पांडेय भाग निकले।
ज़िला मजिस्ट्रेट का कार्यालय, बलिया।
बलिया में स्थित ज़िला मजिस्ट्रेट के कार्यालय का एक और दृश्य
अंग्रेज़ी फ़ौज के ज़िले पर कब्ज़ा कर लेने के बाद नेदरसोल ने श्री. निगम को काम से छुट्टी लेने का निर्देश दिया। श्री. निगम ने ऐसा करने से ना केवल इनकार किया, बल्कि गृह सचिव और मुख्य सचिव को पत्र लिखा कि वे नेदरसोल के अमानवीय कृत्यों पर रोक लगाएँ। उनके पत्रों ने लंदन के राजनैतिक समुदाय में हलचल मचा दी और भारत में हो रहे क्रूर दमन को लेकर हाउस ऑफ़ कॉमन्स में वाद-विवाद हुए।
नेदरसोल चाहते थे कि श्री. निगम और श्री. खान के विरुद्ध कठोर कार्यवाही की जाए। लेकिन अंग्रेज़ सरकार ने 13 नवंबर, 1942, को दोनों को मात्र ‘काम में लापरवाही’ के आधार पर निलंबित करने का आदेश जारी किया। श्री. एच.डी. लेन को बलिया के नए ज़िला मजिस्ट्रेट के रूप में नियुक्त किया गया जबकि श्री. पियर्स ने नए पुलीस अधीक्षक के रूप में कार्यभार ग्रहण किया। इससे यह बात तो स्पष्ट थी कि सरकार, महामहिम (इंग्लैंड के सम्राट) की भारतीय लोक सेवा के अफ़सरों को राजद्रोह के लिए फाँसी की सज़ा नहीं सुनाना चाहती थी क्योंकि इससे सरकार को राजनैतिक शर्मिंदगी और आगे अन्य परेशानियों का सामना करना पड़ सकता था।
संयुक्त प्रांत सरकार और संघ लोक सेवा आयोग द्वारा श्री. निगम और श्री. खान के विरुद्ध जाँच-पड़ताल शुरू की गई। वाइसरॉय और उनकी परिषद ने उनकी अनुशंसाओं को स्वीकार किया और भारत के लिए राज्य सचिव को एक पत्र लिखा कि उन दो अफ़सरों को “न्याय में गंभीर त्रुटियों और कमज़ोर तथा भ्रष्ट नीति” के लिए पद से हटाया जाए। चूँकि यह मामला कुछ समय से चल रहा था, इसलिए राज्य सचिव से यह अनुरोध किया गया कि वे सीधे टेलीग्राम से अपना निर्णय सुना दें।
वाइसरॉय वेवेल और उनकी परिषद का पत्र जिसमें श्री. निगम और श्री. खान को अपने-अपने पदों से हटाया जाने का प्रस्ताव है।
राज्य सचिव ने प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जिसके परिणामस्वरूप श्री. निगम तथा श्री. खान. दोनों को उनकी सेवाओं से मुक्त कर दिया गया। उन्हें अपनी अपनी पेंशनों का केवल दो-तिहाई हिस्सा ही दिया गया और इसलिए उन्हें आर्थिक नुकसान का भी सामना करना पड़ा।
इस बात से भी श्री. निगम विचलित नहीं हुए और उन्होंने लखनऊ के सिविल न्यायाधीश के न्यायालय में भारत के लिए राज्य सचिव पर मुकदमा दायर कर दिया। अंतरिम भारत सरकार के गृह सदस्य और संयुक्त प्रांत सरकार के मुख्य सचिव द्वारा प्रतिवादियों को समन जारी किए गए। श्री. निगम ने अपनी पदच्युति के बदले में मुआवज़े के तौर पर 3 लाख रुपयों की माँग की।.
तेज बहादुर सप्रू जैसे कई अग्रणी वकील थे, जिन्होंने श्री. निगम का मुकदमा लड़ने का प्रस्ताव रखा था, लेकिन इसके बावजूद श्री. निगम ने अपने मामले की पैरवी खुद करने का निर्णय लिया। श्री. निगम को मनाया गया कि वे अपना मुकदमा वापस ले लें, लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया। उनके मुकदमे की चर्चा आधिकारिक समुदाय में हुई और उन्हें उनका समर्थन करने वालों के संदेश भी मिले। दूसरी ओर वाइसरॉय वेवेल की सरकार ने श्री. निगम के मामले को और पेचीदा बनाने के लिए उन्हें अलग-थलग कर देने की कूटनीतियाँ अपनाईं। 1942 के विद्रोह के दौरान बलिया में जो महत्त्वपूर्ण अफ़सर मौजूद थे, उनमें से प्रत्येक अफ़सर को सरकार द्वारा साक्षी के रूप में प्रस्तुत किया गया। यहाँ तक कि श्री. निगम के कुछ गहरे विश्वासपात्रों ने भी उनके विरुद्ध सबूत पेश किए।
परंतु सभी कठिनाइयों के बावजूद मुकदमे का निर्णय श्री. निगम के पक्ष में हुआ, और 1948 में, भारत को अंग्रेज़ों से स्वतंत्रता मिलने के बाद, उन्हें पुनर्नियुक्त किया गया। उनके सामने संयुक्त प्रांत (1950 में इसका नाम उत्तर प्रदेश हुआ) राज्य के मुख्य सचिव का पद देने की बात रखी गई, लेकिन भूमि सुधार में अधिक रुचि होने के कारण उन्होंने इसे अस्वीकार कर दिया। उन्होंने राज्य सरकार के राजस्व सचिव और राजस्व बोर्ड के अध्यक्ष के रूप में स्वतंत्र प्रभार ग्रहण किया। उन्हें श्रम विभाग का अतिरिक्त प्रभार भी दिया गया। उनके कार्यकाल में कृषि व्यवस्था में जो सुधार योजनाएँ लागू की गई, वे समय बीतने के बाद भी प्रभावशाली हैं। उन्होंने उत्तर प्रदेश में ज़मींदारों, संपत्ति धारकों, और जागीरदारों के सशक्त दलों का सामना किया और ज़मींदारी के उन्मूलन के लिए कार्य किया। ज़मींदारी व्यवस्था को मिटाने के कार्य में उन्हें अपने खुद के परिवार के रोष का भी सामना करना पड़ा। इस सफलता के बाद उन्होंने पश्चिम बंगाल, बिहार, और उड़ीसा जैसे राज्यों में भी ये सुधार योजनाएँ लागू कीं।
मुख्य सचिव,भारत सरकार, के अनुसचिव का संयुक्त प्रांत की सरकार के मुख्य सचिव को एक पत्र, जिसमें यह सूचना दी गई है कि भारत के लिए राज्य सचिव ने श्री. निगम और श्री. खान को उनकी सेवाओं से मुक्त कर दिया है।
भारत के लिए राज्य सचिव को भेजे गए तार का संदेश जिसमें श्री. जगदीश्वर निगम द्वारा दर्ज किए गए मुकदमे की सूचना है
श्री. जगदीश्वर निगम को उनके बेहतरीन जीवन और साहसिक गतिविधियों के लिए ‘राष्ट्रवादी निगम’ की उपाधि प्राप्त हुई। लोगों का उनके प्रति असीम स्नेह था और उनको ‘कलेक्टर बाबू’ और ‘बलिया के देवता’ कहकर पुकारा जाता था। उनमें एक कार्यकुशल और सक्षम अधिकारी तथा देशभक्त, दोनों के ही गुण विद्यमान थे। सच्चे गांधीवादी होने के नाते उन्होंने अहिंसा का मार्ग कभी नहीं छोड़ा। उन्होंने यह दिखा दिया कि व्यवस्था का अंग होते हुए भी देश की स्वतंत्रता के लिए लड़ना संभव है। अंग्रेज़ सरकार के विरुद्ध उनके अनोखे विद्रोह ने औपनिवेशिक शासकों की आँखें खोल दीं, और उन्हें पता चला कि कैसे उन्हीं की व्यवस्था में प्रशिक्षित, उनके सर्वश्रेष्ठ अफ़सरों में से एक, बिना एक भी गोली चलाए उन्हें खुली चुनौती दे सकता है। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन की घटनाओं के बाद केवल 5 सालों में ही ब्रिटिश राज का अंत हो गया।
(यह कहानी और विकिमीडिया कॉमन्स से प्राप्त छवियों के अतिरिक्त सभी छवियाँ श्रीमती. शीला दरबारी, डॉ. जेनिस दरबारी, और डॉ. राज दरबारी की पुस्तक, “द रियल स्टोरी : द ऐडमिनिस्ट्रेटर जगदीश्वर निगम (आई.सी.एस.) वर्सज़ द ब्रिटिश राज 19 ऑगस्ट 1942” से ली गई हैं।)
19 अगस्त को बलिया में निकला जुलूस