शिवसागर भारत के असम राज्य का एक ज़िला है, जो गुवाहाटी से 369 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। ज़िला ऊपरी ब्रह्मपुत्र घाटी में स्थित है। यह अहोम राजवंश के शासनकाल के दौरान बनाए गए अपने ऐतिहासिक स्मारकों और मंदिरों के लिए जाना जाता है।
अहोमों ने असम के राजनीतिक और सांस्कृतिक जीवन को प्रभावित किया और 13वीं शताब्दी से 19वीं शताब्दी के शुरुआती दिनों तक शासन किया। चाराइदेव अहोम साम्राज्य की शुरुआती राजधानियों में से एक थी। बाद में, विभिन्न शासकों के शासनकाल में, सरगुआ, गारगाँव, रंगपुर और जोरहाट अलग-अलग समय में अहोम वंश की राजधानियाँ बनीं। अहोम चीनी मूल के शान/ ताई जनजाति के वंशज थे जो ऊपरी बर्मा के क्षेत्र में बस गए थे। तत्पश्चात, शिवसागर की स्थापना राजा चोलुंग सुकाफ़ा द्वारा की गई, जिसे उसी जनजाति के सिउ-का-फ़ा के नाम से भी जाना जाता है। यह कहा जाता है कि 13वीं शताब्दी में पटकई पहाड़ियों को पार कर ब्रह्मपुत्र घाटी में प्रवेश करते समय सिउ-का-फ़ा के साथ उनके सैनिक, हाथी, मंत्री और अधिकारी भी साथ आए थे। 1817 और 1825 के बीच असम पर बर्मी आक्रमण और फिर 1825 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा राज्य-हरण के बाद अहोम राजवंश का शासन समाप्त हो गया।
अहोम वंश रुद्र सिंह (1696-1714) के शासनकाल में अपने चरम पर पहुँच गया। उनके शासन के दौरान राजधानी को वर्तमान शिवसागर के पास मेटेका में स्थानांतरित कर दिया गया। उन्होंने घनश्याम नामक मुख्य वास्तुकार की मदद से रंगपुर शहर का निर्माण किया। ऐसा माना जाता है कि घनश्याम बंगाल का मुसलमान था जो कि बाद में हिंदू धर्म में परिवर्तित हो गया था। घनश्याम के प्रभाव के परिणामस्वरूप हमें यहाँ की इमारतों में इस्लामी वस्तुशिल्पीय तत्वों, जैसे गुंबदों और मेहराबों का, शिखरों जैसे हिंदू तत्वों के साथ संयोजन दिखाई देता है।
अहोमों के शासनकाल में निर्मित इमारतों की वास्तुकला को दो तरह से समझा जा सकता है - लौकिक और धार्मिक। लौकिक वास्तुकला में किले, मंडप और महल शामिल हैं, जबकि धार्मिक वास्तुकला में भगवान शिव, भगवान विष्णु और देवी दुर्गा को समर्पित कई सारे मंदिर हैं। लगभग छः सौ वर्षों तक राज्य करने वाले राजवंश ने अपने राज्य की सुरक्षा पर बहुत ध्यान दिया। उन्होंने विभिन्न बिंदुओं पर प्राचीरों का निर्माण किया, जिन्हें स्थानीय रूप से गढ़ के रूप में जाना जाता है। ये पानी से भरी गढ़खावोई नामक गहरी और चौड़ी खाइयों से घिरे होते थे। वास्तव में, आज प्राचीरों की उपस्थिति उन स्थानों से निर्धारित की जा सकती है जिनके नाम में 'गढ़' प्रत्यय होता है।
शिवसागर शहर का नाम प्रसिद्ध शिवसागर तालाब के नाम पर पड़ा, जिसे स्थानीय रूप से बोरपुखुरी कहा जाता है। इस शहर में मिशिंग, नागा, मणिपुरी, गारो और देवरी जैसे कई जातीय समूह रहते हैं। इन जातीय समूहों के शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के कारण शिवसागर क्षेत्र में विविध संस्कृतियों का विकास हुआ।
इन समूहों की कला, लोकगीत, वेशभूषा, नृत्य, और व्यंजन अद्वितीय हैं और सामूहिक रूप से असम की समृद्ध परंपरा को प्रदर्शित करते हैं। दूसरी ओर स्मारक, अहोम शासकों की सत्ता और शक्ति के प्रतीक के रूप में खड़े हैं। शिवसागर के स्थानीय लोगों ने हिंदू संस्कारों, मान्यताओं और रीति-रिवाजों को अपनाया है। शिवसागर महापुरुष श्रीमंत शंकरदेव और श्री श्री माधबदेव नामक वैष्णव परंपरा के दो लोकप्रिय संतों का घर भी है।
असम के अमगुरी में स्थित सत्र इन संतों द्वारा दी गई शिक्षा को फैला रहा है। सत्र वैष्णववाद की एकहरण परंपरा से जुड़े सामाजिक केंद्र होते हैं। ‘सत्र’ शब्द का उल्लेख भागवत पुराण में संस्कृत शब्द ‘सत्त्र’ के रूप में किया गया है, जिसका अर्थ है ‘भक्तों का जनसमूह’।
ऐसा कहा जाता है कि अहोम तीन बीहू मनाते थे जो कृषि से संबंधित त्योहार होते हैं। बीहू शब्द की उत्पत्ति ताई शब्द ‘पी-हू’ या ‘पोई-हू’ से हुई है। शिवसागर के लोग विभिन्न पारंपरिक त्योहारों और अनुष्ठानों का पालन करते हैं जिनके बीच बीहू का बहुत महत्व है। पोई-चेंकेन या बोहाग बीहू (अप्रैल में मनाया जाता है) मुख्य त्योहार है और वसंत के मौसम की शुरुआत में मनाया जाता है। यह धान की खेती से ठीक पहले मनाया जाता है। इस त्योहार में, लोग अच्छी फसल की कामना करते हैं क्योंकि यही वह समय होता है जब किसान बुवाई शुरू करते हैं। चिप-सोंग-का या काटी बीहू (अक्टूबर में मनाया जाता है) को अनाज की कटाई और बंधाई का समय होता है, और मेजी जोलुवा उत्सव या माघ बीहू (जनवरी-फरवरी में मनाया जाता है) जो फसलों की कटाई के मौसम को दर्शाता है। इन तीन उत्सवों का मुख्य पहलू पूर्वज पूजा है जिसे मे-डाम-मे-फी कहा जाता है, जिसमें मे का अर्थ है पूजा, डाम का अर्थ है मृत और फी का अर्थ है ईश्वर, अर्थात्, मृतकों को भगवान के रूप में पूजना। एक और बहुत लोकप्रिय त्योहार जिसे नए साल के डिंसिंग या आघूण महीने में मनाया जाता है, उसे किन-ऑन-मेऊ या ना-खूवा कहा जाता है। इन त्योहारों में, मौसम की पहली उपज पूर्वजों को अर्पित की जाती है। इन त्योहारों के दौरान किए जाने वाले कुछ पारंपरिक अनुष्ठानों में पुजारियों द्वारा भजन गाया जाना, पारंपरिक भोजन जैसे अमरोली-तुप और सूअर का मांस खाना और लाओ या चावल की बीयर पीना शामिल होता है।
बीहू नृत्य और बीहू गीत शिवसागर की सबसे लोकप्रिय कला शैलियाँ हैं। ये ढोल और महार-सिंगार पेपा नामक वाद्य यंत्र के साथ प्रदर्शित की जाती हैं। बीहू गीत शुरू में ताई भाषा में गाए जाते थे, लेकिन समय के साथ ये असमिया भाषा में गाए जाने लगे। हुसारी नर्तकों और गायकों के समूह राजा और रईसों के सामने बीहू नृत्य करके उन्हें समृद्धि, अच्छे स्वास्थ्य और सौभाग्य का आशीर्वाद देते थे।
अहोम राजाओं के शासन के दौरान कई जलाशयों, मंदिरों और ऐतिहासिक स्मारकों का निर्माण किया गया था। इनमें शिवसागर, जॉयसागर और गौरीसागर नामक जलाशय सबसे शानदार हैं। महान ऐतिहासिक महत्व के विभिन्न मंदिरों का निर्माण भी किया गया था जैसे कि शिवडोल मंदिर समूह। ये शिवसागर जलाशय के तट पर स्थित हैं जिसे बोरपुखुरी जलाशय के नाम से भी जाना जाता है। शिवडोल परिसर में शिवडोल, विष्णुडोल और देवीडोल नामक तीन मंदिर हैं जो क्रमशः भगवान शिव, भगवान विष्णु और देवी दुर्गा को समर्पित हैं।
शिवसागर ज़िले का सबसे अनूठा मंदिर घनश्याम डोल है, जो टेराकोटा ईंटों से बना मंदिर है और जॉयसागर जलाशय के पास स्थित है। प्रचलित मान्यता के अनुसार, इसका निर्माण राजा राजेश्वर सिंघ (1751-1769) ने अपने नाती के लिए करवाया था जो परबतिया गोसाईं वंश से संबंधित था। इसलिए, मंदिर को नाती गोसाईं डोल भी कहा जाता है। घनश्याम डोल की उत्पत्ति का एक अलग आख्यान यह है कि इसे घनश्याम खनिकार द्वारा राजा रुद्र सिंह के संरक्षण में बनाया गया था, जो रंगपुर शहर के निर्माण के लिए मुख्य वास्तुकार के रूप में रुद्र सिंहा द्वारा यहाँ लाए गए थे।
शिवसागर में जॉयसागर जलाशय के करीब “रंग घर” नाम की शाही इमारत है, जो एक लोकप्रिय रंगभूमि है। यह अहोम राजा प्रमत्त सिंह (1744-1751) द्वारा निर्मित 18वीं शताब्दी की संरचना है। अक्सर पूर्व के कोलोसियम के रूप में प्रसिद्ध इस इमारत में बैठकर शाही परिवार और अन्य गणमान्य व्यक्ति विभिन्न खेल प्रदर्शन देखते थे।
अहोम शासकों का तलातल घर नामक सैन्य केंद्र आज भी अच्छी तरह से संरक्षित है। सबसे बड़े ताई स्मारक के रूप में, इस इमारत में गुप्त सुरंगें हैं जिनका उपयोग अहोम युद्धों के दौरान भागने के मार्गों के रूप में किया जाता था। दो मुख्य सुरंगों की लंबाई 16 किलोमीटर और 3 किलोमीटर बताई जाती है। हालाँकि, सुरक्षा कारणों से अब इन्हें बंद कर दिया गया है।
अहोम राजाओं और रानियों के मकबरों को 'मैदान' के रूप में जाना जाता है। वे मिस्र के पिरामिडों के समान पिरामिडनुमा संरचनाओं के रूप में निर्मित हैं।
लोकप्रिय संरचनाओं में से एक ' नामदोंग स्टोन ब्रिज' है, जो एक एकल ठोस चट्टान से बनाया गया पुल है। शिवसागर में प्रसिद्ध अजान पीर दरगाह शरीफ़ हिंदू-मुसलमान एकता के प्रतीक के रूप में खड़ी है। यह सारागुरी चापोरी में स्थित है।
यह पवित्र मकबरा अजान फ़कीर नाम के एक सुधारक और संत की याद में बनाया गया था, जो मूल रूप से बगदाद के थे और 17वीं शताब्दी में उत्तर पूर्व भारत आए थे। उन्होंने ब्रह्मपुत्र घाटी के लोगों को एकजुट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। बड़ी संख्या में भक्त दुनिया भर से इस दरगाह पर आते हैं।
निर्मित विरासत के अलावा, शिवसागर में पुरातात्विक स्थल, चिड़ियाघर और अभयारण्य भी हैं। ऐसी ही एक जगह है ‘ना-पुखुरी पुरातत्व स्थल’ जिसे रुद्रसागर के नाम से भी जाना जाता है। यह रुद्रसागर जलाशय के किनारे स्थित है, जो प्रवासी पक्षियों के लिए एक अति उत्तम स्थल है। इस स्थल पर स्थित शिवडोल एक विशिष्ठ वास्तुशिल्पीय संरचना है। यह 1773 में राजा स्वरदेव लक्ष्मी सिंह के शासन के दौरान बनाया गया था। यह स्मारक अष्टकोणीय आधार पर निर्मित एक विशिष्ट अहोम संरचना है।
अहोम राजा स्वर्गदेव रुद्र सिंह के शासन के दौरान, पोहुगढ़ शिवसागर में पहले चिड़ियाघर के रूप में अस्तित्व में आया। 140 एकड़ में फैले हुए इस क्षेत्र को इस तरह से बनाया गया था कि, वन्यजीव और पक्षियों के लिए एक प्राकृतिक आवास उपलब्ध कराने हेतु, इसमें पूरे वर्ष पानी की व्यवस्था बनी रहे।
पानी दिहिंग वन्यजीव अभयारण्य असम सरकार द्वारा अगस्त 1999 में एक पक्षी अभयारण्य के रूप में स्थापित किया गया था। यह अभयारण्य ब्रह्मपुत्र नदी और देसांग नदी के बीच 33.93 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला हुआ है। यह इलाका एक घास का मैदान है जहाँ, 70 प्रवासी प्रजातियों सहित, पक्षियों की 267 से अधिक प्रजातियों की पहचान की गई है।
इस प्रकार, शिवसागर ज़िला हमारे सामने विविध संस्कृतियों का एकीकृत दृश्य प्रस्तुत करता है। कई वर्षों से यह राजनीतिक गतिविधियों, कला, संस्कृति और साहित्य का केंद्र बना हुआ है।