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लूट, पुनर्प्राप्ति और प्रतीक्षा : भारत की चुराई गईं पुरावस्तुओं की कहानियाँ

बीते वर्षों में भारत की पुरावस्तुएँ और मूल्यवान हस्तकृतियाँ बड़ी मात्रा में चुराई गईं और भारत से बाहर उनकी तस्करी की गई। भारतीय पुरावस्तुओं की चोरी और लूटमार शुरुआती आक्रमणकारियों के समय से चली आ रही है। यह सूची परिपूर्ण नहीं है, फिर भी हम यहाँ चोरी की जा चुकीं कुछ प्रसिद्ध भारतीय पुरावस्तुओं के कुछ रोचक तथ्यों को प्रस्तुत करने जा रहे हैं, - कैसे ये वस्तुएँ देश से बाहर चली गईं और बाद में वे कहाँ दिखाई दीं। ये तथ्य स्वतंत्रता-पूर्व और स्वातंत्र्योत्तर भारत, दोनों कालों से संबंधित हैं। अतीत में लूटी गई ऐसी हस्तकृतियों की भारत में वापसी और पुनर्प्राप्ति कई वर्षों से जारी है। हम इन वस्तुओं की पुनर्प्राप्ति की यात्रा और इनमें से कई पुरावस्तुओं को भारत में वापस लाने में जो समस्याएँ उपस्थित हुईं, उनपर चर्चा करेंगे। अभी तक कई सफलताएँ मिली हैं और कई अभी मिलनी बाकी हैं।

लूटमार हो या परिरक्षण - सभी संकेत पश्चिम की ओर

विदेशी आक्रमणकारी भारत की जिन हस्तकृतियों को ले गए थे, उन्हें दो विशिष्ट कालखंडों में बाँटा जा सकता है। पहले कालखंड में ऐसी धरोहर शामिल है, जिसे भारत की स्वतंत्रता से पूर्व ले जाया गया था और दूसरे कालखंड में 1947 के बाद हुई अवैध तस्करी के परिणामस्वरूप ले जाई गईं कलात्मक और पारंपरिक पुरावस्तुओं का समावेश है। स्वतंत्रता पूर्व बाहर ले जाई गईं भारत की सांस्कृतिक संपत्ति की वापसी की माँग किसी भी पुरातत्व कानून का उल्लंघन बताकर नहीं की जा सकती है और उसकी देश-वापसी के लिए हमें दूसरे देशों की सद्बावना पर ही निर्भर रहना पड़ता है, जबकि वर्तमान में लागू अधिनियमों का उल्लंघन करके ले जाई गईं पुरावस्तुओं की पुनर्प्राप्ति की जा सकती है।

विभिन्न आक्रमणकारियों की लूटमार की कहानियाँ भारत के इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण भाग रही हैं। पूर्व-औपनिवेशिक भारत में भी पराजित प्रदेशों से बहुमूल्य वस्तुओं को बलपूर्वक ले जाने की प्रथा कोई नई बात नहीं थी। सशक्त राजतंत्रों की स्थापना से पहले कबीले और सरदार हुआ करते थे, जो अक्सर मवेशियों और ज़मीन को लेकर एक दूसरे से लड़ते थे। विजेता सरदार और राजा आक्रमण से प्राप्त हुई लूट का एक बड़ा हिस्सा अपने लिए रखने के बाद बची हुई लूट को सैनिकों में बाँट देते थे। धीरे-धीरे सरदारों के स्थान पर पहले से बड़े और जटिल साम्राज्य खड़े हो गए। इसके परिणामस्वरूप शक्तिशाली राजाओं में युद्ध हुए, जिनके पास बड़ी और अनुशासनबद्ध सेनाएँ हुआ करती थीं। अक्सर ऐसी वस्तुएँ लूटी जाती थीं, जो किसी समय पराजित राजाओं की शक्ति का प्रतीक हुआ करती थीं। विजयी राजा नए अधिगृहीत प्रदेश और जनता पर अपने शासन को आधिकारिक रूप देने के लिए आम तौैर पर उन वस्तुओं को पुनर्स्थापित कर देते थे।

परंतु ईस्ट इंडिया कंपनी की लूटमार का संदर्भ थोड़ा अलग है। इस व्यापार करने वाली कंपनी के कर्मचारी पराजित प्रदेशों को अनियंत्रित तरीके से लूटते थे। वे कीमती वस्तुओं को अपने देशों में ले गए, उन्हें बेच दिया या उनसे अपने बगीचों और बैठकखानों को सजाया। बाद में जब अंग्रेज़ी सरकार ने भारत पर कब्ज़ा कर लिया, तब भारत की कई कीमती वस्तुओं को बेहतर परिरक्षण के नाम पर इंग्लैंड ले जाया गया। उपनिवेशवादियों की धारणा के अनुसार भारतीय अपनी धरोहर का संरक्षण करने में तुच्छ और अक्षम थे। इसलिए, कभी चोरी के ज़रिए तो कभी परिरक्षण के नाम पर, भारत की हस्तकृतियों का बड़े पैमाने पर यूरोप में स्थानांतरण औपनिवेशिक काल की एक प्रमुख विशेषता रही।

वर्तमान में ऐसी कई हस्तकृतियाँ उन देशों के संग्रहालयों और चित्रशालाओं में प्रदर्शित हैं, जिन्होंने पुराने उपनिवेशों पर शासन के दौरान उनसे अनुचित तरीके से ये हस्तकृतियाँ प्राप्त की थीं। अपने मूल परिवेश से बाहर इन हस्तकृतियों ने अपना संदर्भ और मूल तत्व खो दिया है। इसके अतिरिक्त, जिन देशों से ये हस्तकृतियाँ मूल रूप से संबंधित हैं, वे अपने ही इतिहास और धरोहर के प्रमाण पर नियंत्रण खो देते हैं। वर्तमान में कई देशों में इस बात पर चर्चा आरंभ हुई है कि पहले उपनिवेश रह चुके देशों का उनकी हस्तकृतियों पर कितना अधिकार है। ऐसी कई वस्तुएँ पहले ही नीदरलैंड, फ़्रांस, और जर्मनी जैसे देशों द्वारा लौटाई जा चुकी हैं।

धरोहर संरक्षण कानून

इस राष्ट्र की महान सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा और संरक्षण के लिए भारत के संविधान में स्पष्ट रूप से दो प्रावधान हैं। पहला प्रावधान अनुच्छेद 49 (राष्ट्रीय महत्त्व के स्मारकों और स्थानों और वस्तुओं का संरक्षण) के रूप में भाग-IV यानी राज्य की नीति के निदेशक तत्व में उल्लिखित है, जो राज्य को सांस्कृतिक संपत्तियों की सुरक्षा के लिए कानूनों और अधिनियमों को प्रतिपादित करने, और उन्हें नुकसान, विरूपता, विनाश, हटाए जाने, निपटान, या निर्यात से बचाने के निर्देश देता है। दूसरा प्रावधान अनुच्छेद 51 ए (एफ़) (हमारी सामासिक संस्कृति की गौरवशाली परंपरा का महत्त्व समझना और उसका परिरक्षण करना) के रूप में भाग IV ए, यानी मूल कर्तव्य, में उल्लिखित है, जो लोगों को पारंपरिक धरोहर और उसके उपोत्पादों के परिरक्षण की ज़िम्मेदारी का बोध कराता है।

अन्य कानूनों में प्राचीन स्मारक तथा पुरातत्वीय स्थल और अवशेष (संशोधन और प्रमाणीकरण) अधिनियम, 2010, शामिल है, जो स्मारकों और पुरातत्वीय स्थलों की निगरानी से संबंधित है, जबकि पुरावशेष तथा बहुमूल्य कलाकृति अधिनयम (एएटीए), 1972, चलायमान सांस्कृतिक संपत्तियों की निगरानी से संबंधित है, जिसके अंतर्गत पुरावशेष और बहुमूल्य कलाकृतियाँ आती हैं। दूसरे अधिनियम के प्रावधानों के तहत किसी भी व्यक्ति को किसी भी पुरावस्तु को निर्यात करने की अनुमति नहीं है। भारतीय निखात निधि अधिनियम, 1878, के अंतर्गत निखात निधि की निगरानी की जाती है। सीमा शुल्क अधिनियम, 1962, भी पुरावशेषों के निर्यात पर रोक लगाता है। इसके अतिरिक्त, राज्यों ओर केंद्र-शासित प्रदेशों के भी अपने-अपने कानून हैं।

अवैध आयात, निर्यात और सांस्कृतिक संपत्ति के स्वामित्व के हस्तांतरण पर रोक एवं निषेध करने के उपाय, 1970 का यूनेस्को समझौता भी सांस्कृतिक संपत्ति के अवैध निर्यात या आयात पर रोक लगाने में सहायता प्रदान करता है।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा विदेशों में अवैध तरीके से निर्यात की गईं पुरावस्तुओं को वापस पाने के लिए लगातार प्रयास किया जा रहा है। बीते कुछ वर्षों में ऐसी वस्तुओं की वापसी में तेज़ी आई है।

2006 में संयुक्त राज्य अमरीका के अप्रवासन और सीमा शुल्क प्रवर्तन (आईसीई) के न्यूयॉर्क के अधिकारीयों ने 9वीं शताब्दी की 250-पाउंड की पाषाण-मूर्ति लौटा दी, जो 2000 में मध्य प्रदेश के मंदसौर में स्थित एक मंदिर से चुराई गई थी। 2004 में संयुक्त राज्य अमरीका के आईसीई के होमलैंड सिक्योरिटी इन्वेस्टिगेशन्स (एचएसआई) ने उन्हें प्राप्त हुईं तीन मूर्तियाँ लौटा दी थीं। इनमें 11वीं या 12वीं शताब्दी की 350-पाउंड की “विष्णु और लक्ष्मी” की बलुआ पत्थर से बनी हुई मूर्ति शामिल है, जो 2009 में एक भारतीय मंदिर से चुराई गई थी। साथ ही, इनमें राजस्थान के अटरू में स्थित गड़गच मंदिर से चुराई गई बलुआ पत्थर से बनी हुई विष्णु और पार्वती की मूर्ति और 11वीं या 12वीं शताब्दी के आरंभ की बोधिसत्व की काले बलुआ पत्थर से बनी हुई मूर्ति शामिल है, जो भारत के बिहार राज्य या बंगाल राज्य से है।

तस्करी की गई धरोहर

उपनिवेशवाद के अंत के बाद भी ऐतिहासिक रूप से मूल्यवान वस्तुओं की चोरी बंद नहीं हुई। हस्तकृतियों की चोरी वर्तमान में भी एक बड़ा चिंता का विषय है। तस्करों के लिए चुराई हुई पुरावस्तुओं का अवैध व्यापार एक लाभदायक गतिविधि है। यह वर्तमान में एक वैश्विक समस्या बन गई है। स्वतंत्रता के बाद के दशकों में भारत की कई पुरावस्तुएँ चुराकर ले जाई गई हैं। ये अक्सर बाद में दूसरे देशों में दिखाई देती हैं। कपटपूर्ण तरीके से प्राप्त की गईं इन वस्तुओं को महँगे दामों में बेचा जाता है। इस समस्या से लड़ने के लिए भारत ने अतीत की मूल्यवान वस्तुओं के संरक्षण और परिरक्षण के लिए 1972 में पुरावशेष तथा बहुमूल्य कलाकृति अधिनयम को पारित किया। अपनी पुरावस्तुओं के संरक्षण और उन्हें वापस पाने के देश के संघर्षों ने अब तक इस दिशा में काफ़ी सफलता पाई है। इसके बावजूद भी आगे की यात्रा अभी काफी लंबी है।

चुराकर ले जाई गई वृषानन योगिनी की देश-वापसी महत्त्वपूर्ण है। योगिनियों को योग या तंत्र का कुशलता से अभ्यास करने वाली नारियों के रूप में देखा जाता है और उन्हें अक्सर देवी का दर्जा दिया जाता है। भारत में 9वीं से 12वीं शताब्दी तक के योगिनी मंदिर बड़ी संख्या में पाए जाते हैं। ये आम तौर पर खुले स्थान होते हैं, जहाँ योगिनियों की कई (अक्सर चौसठ) मूर्तियों के लिए ताक बने होते हैं। 10वीं शताब्दी का एक रोचक मंदिर उत्तर प्रदेश के बांदा ज़िले में लोखरी में स्थित है। यह मंदिर पशु के शीश वाली योगिनी की मूर्तियों के लिए प्रसिद्ध है। लोखरी मंदिर में मौजूद ताकों में से एक ताक में वृषानन योगिनी की पत्थर से तराशी गई मूर्ति थी, जो भैंस के शीश वाली देवी है। यह 400 किलो की मूर्ति फ़्रांस में पाई गई, जो चुराकर ले जाई गई थी और वहाँ एक कला संग्राहक को बेची गई थी। उनकी मृत्यु के बाद उनकी पत्नी ने 2008 में वह मूर्ति पेरिस के भारतीय राजदूतावास को सौंप दी और 2013 में उसे राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली, लाया गया। यह मूर्ति वृषानन योगिनी को उनके वाहन (हंस) पर ध्यान मुद्रा में बैठे हुए प्रदर्शित करती है, जिनके बाएँ हाथ में गदा है। इसी तरह 1980 में उत्तर प्रदेश के उसी मंदिर से चुराकर ले जाई गई बकरी के शीश वाली योगिनी की मूर्ती को भी पुनर्प्राप्त किया गया है। इसे 2021 में इंग्लैंड के एक निजी मकान में पाया गया था और इसे भारत को लौटा दिया गया है।

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राष्ट्रीय संग्रहालय, दिल्ली, में प्रदर्शित वृषानन योगिनी मूर्ती

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चोल राज्य के दौरान गढ़ी हुई नटराज की पीतल की मूर्ति।
इसे राष्ट्रीय संग्रहालय, दिल्ली, में प्रदर्शित किया गया है।

ऑस्ट्रेलियाई सरकार ने दो भारतीय पुरावस्तुओं को 2014 में लौटा दिया। इन्हें भारत से चुरा कर ऑस्ट्रेलिया की कला दीर्घाओं को बेच दिया गया था। इनमें से एक नटराज के रूप में शिव की पीतल की मूर्ति है और दूसरी अर्धनारीश्वर की है, जो शिव और पार्वती के मेल का प्रतिपादन है। इन दोनों के बारे में ऐसा मानना है कि ये चोल शासनकाल के समय की हैं। चोल संभवतः दुनिया के सबसे लंबे समय तक शासन करने वाले राजवंशों में से एक थे। उनका सबसे पहला उल्लेख तीसरी शताब्दी ईसा-पूर्व में पाया जाता है। चोल राजाओं ने तुंगभद्रा नदी के दक्षिण की ओर के क्षेत्र में 13वीं शताब्दी तक शासन किया। उन्हें कई और बातों के अलावा, उनकी असाधारण वास्तुकला और कांस्य मूर्तियों के लिए जाना जाता है। इनमें से कई कांस्य मूर्तियों में शिव और पार्वती को अलग-अलग रूपों में प्रतिपादित किया गया है। नटराज मूर्तियों में शिव एक विराट नर्तक के रूप में दिखाई देते हैं। उनके इस रूप को एक वृत्ताकार ढाँचे में रखा गया है, जो प्रभामंडल का प्रतीक है। अर्धनारीश्वर, नर और नारी के रूप के मिलन का प्रतिबिंब है, जिसके बारे में ऐसी मान्यता है कि इससे ब्रह्मांड का निर्माण हुआ है। ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री द्वारा अर्धनारीश्वर मूर्ति भारत को सौंपे जाने से पहले यह न्यू साउथ वेल्स की कला दीर्घा द्वारा खरीदी गई थी।

परंतु चोल शासनकाल के समय की एक और नटराज की मूर्ति है, जिसे भारत में वापस लाने के लिए कई समस्याओं का सामना करना पड़ा। यह कहानी है प्रसिद्ध शिवपुरम नटराज की। धातु की छह पुरावस्तुओं को तमिलनाडु के तंजावूर ज़िले में स्थित शिवपुरम गाँव के एक किसान के खेत से खोद निकाला था। नटराज की मूर्ति, इन्हीं पुरावस्तुओं में से एक शानदार वस्तु थी। यह 1951 की बात थी और ये मूर्तियाँ लगभग 10वीं शताब्दी की थीं। ज़िलाधिकारी द्वारा इन मूर्तियों को शिवपुरम में स्थित शिवगुरुनाथस्वामी मंदिर के अधिकारियों को सौंपा गया था। फिर मंदिर के अधिकारियों ने इन पुरावस्तुओं की मरम्मत के लिए उन्हें एक मूर्तिकार के पास भेज दिया। इस मूर्तिकार ने दूसरे दो मूर्तिकारों के प्रभाव में आकर इनमें से पाँच पुरावस्तुओं (जिनमें नटराज की मूर्ति भी शामिल थी) को नकली पुरावस्तुओं से बदल दिया और मूल पुरावस्तुओं को मुंबई के एक कला संग्राहक को बेच दिया। ये पुरावस्तुएँ अंततः देश से बाहर चली गईं। 1960 के दशक में जाकर इस बेईमानी का पता लगा। 1965 में पहली बार प्रकाशित डगलस ई. बैरेट की चोल राजवंश की आरंभिक कांस्य पुरावस्तुओं पर आधारित पुस्तक में यह दावा किया गया कि शिवपुरम मूर्तियाँ नकली हैं। बैरेट भारतीय कला के विशेष जानकार थे और ब्रिटिश संग्रहालय में भारत की पुरावस्तुओं की देखभाल करते थे। इसलिए तमिलनाडु सरकार का ध्यान इस विषय की ओर तुरंत आकर्षित हुआ और अपराध शाखा के अंतर्गत जाँच-पड़ताल शुरू हुई। काफ़ी परिश्रम के बाद नटराज की मूर्ति का पता लग गया था, जो कैलिफ़ोर्निया के नॉर्टन साइमन फ़ाउंडेशन के अधिकार में थी। फ़ाउंडेशन ने जब 1973 में इस मूर्ति की खरीदारी की थी, तब उसे मूर्ति की चोरी के बारे में कोई जानकारी नहीं थी और उसने मूर्ति को मरम्मत के लिए ब्रिटिश संग्रहालय भेजा था। यहाँ मूर्ति की पहचान की गई, जिसके बाद इसकी जानकारी भारतीय अधिकारियों को मिली। मूर्ति को वापस पाने के लिए भारतीय अधिकारियों द्वारा फ़ाउंडेशन के विरुद्ध संयुक्त राज्य अमरीकाऔर इंग्लैंड, दोनों जगह मुकदमा दायर किया गया। एक लंबी कानूनी जंग के बाद यह समस्या सुलझ गई और शिवपुरम नटराज की मूर्ति 1986 में भारत में वापस लाई गई।

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शिवपुरम नटराज

इसी तरह 1961 मेंं बिहार के नालंदा में स्थित एक संग्रहालय से चौदह मूर्तियाँ चुराई गई थीं। ये सभी संंभवतः पाल साम्राज्य की बुद्ध की कांस्य मूर्तियाँ थीं, जिसके राजाओं ने 8वीं से 12वीं शताब्दी तक वर्तमान के पूर्वी भारत और बांगलादेश पर शासन किया था। 2018 में लंदन महानगरीय पुलिस सेवा (लंदन मेट्रोपॉलिटन पुलिस सर्विस) ने इनमें से एक मूर्ति लौटा दी। यह सद्बावनापूर्ण गतिविधि 15 अगस्त को भारत के स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष्य पर की गई। रोचक बात यह है कि यह बुद्ध की मूर्ति सबसे पहले इसी वर्ष में लंदन के एक व्यापार मेले में देखी गई थी। इसका मालिक इस पुरावस्तु की उत्पत्ति के बारे में अनजान था और जानकारी मिलने पर इसे लौटाने के लिए सहमत हो गया।

इसी वर्ष में मेट्रोपॉलिटन म्युज़ियम ऑफ़ आर्ट ने भी दो चुराई हुईं पुरावस्तुओं को भारत को लौटा दिया। 2015 में महिषासुरमर्दिनी रूप में देवी दुर्गा की मूर्ति संग्रहालय को दान दी गई थी। यहाँ के कर्मचारियों ने पहचान लिया कि यह हिमाचल प्रदेश के बैजनाथ में स्थित चक्रवर्तेश्वर मंदिर से चुराई गई मूर्ति है। महिषासुरमर्दिनी, जैसा कि इस नाम से ही पता चलता है, देवी का वह रूप है जिसमें उन्होंनें महिषासुर नामक एक शक्तिशाली असुर का वध किया था। भारत की किंवदंतियाँ और मिथक देवताओं और असुरों के बीच हुए युद्ध के किस्सों से भरे पड़े हैं। एक किंवदंती के अनुसार ऐसे ही एक युद्ध में जब देवता महिषासुर को परास्त करने में असफल हुए, तब उन्होंने ऊर्जा या शक्ति के नारी रूप का सृजन किया, जो अदम्य शक्ति और सामर्थ्य से परिपूर्ण थी। इस देवी को दुर्गा कहा जाता है और जिस रूप में उन्होंने महिषासुर का संहार किया, उस रूप को महिषासुरमर्दिनी कहा जाता है। संग्रहालय द्वारा महिषासुरमर्दिनी की जिस पाषाण मूर्ति को लौटाया गया, वह 8वीं शताब्दी की है। इस मूर्ति के साथ संग्रहालय द्वारा चूने के पत्थर की मूर्ति भी लौटाई गई, जो एक नर देवता के शीश के समान दिखाई देती है। यह मूर्ति संग्रहालय को 1986 में दान में मिली थी, जिसकी पहचान बाद में आंध्र प्रदेश के नागार्जुनकोंडा स्थल पर हुए उत्खनन-कार्य से प्राप्त हुई सामग्री के भाग के रूप में की गई थी।

ऐसी अनगिनत चुराई गईं पुरावस्तुएँ हैं, जिन्हें हाल के वर्षों में ब्रिटेन, जर्मनी, और संयुक्त राज्य अमरीका जैसे देशों से भारत में वापस लाया गया है। 2016 में संयुक्त राज्य अमरीका ने 200 सांस्कृतिक पुरावस्तुओं को लौटा दिया, जिनमें चोल शासनकाल के समय की चेन्नई के शिवन मंदिर से चुराई गई संत माणिक्कवाचकर की मूर्ति, अन्य धार्मिक मूर्तियाँ, और कांस्य और टेराकोटा की वस्तुएँ शामिल हैं। 2018 में यूनाइटेड किंगडम ने गौतम बुद्ध की 12वीं शताब्दी की कांस्य मूर्ति को लौटा दिया था और संयुक्त राज्य ने लिंगोद्भवमूर्ति की ग्रेनाइट की मूर्ति तथा मंजुश्री नामक बोधिसत्व की मूर्ति को लौटा दिया था। 2019 में यूनाइटेड किंगडम ने नवनीत कृष्ण की 17वीं शताब्दी की कांस्य मूर्ति और चूने के पत्थर से बने हुए और तराशे हुए दूसरी शताब्दी के स्तंभ के रूपांकन को लौटा दिया। 2020 में यूनाइटेड किंगडम ने प्रभु राम, लक्ष्मण और सीता की 15वीं शताब्दी की तीन मूर्तियों को लौटा दिया, जिन्हें विजयनगर शासनकाल के समय में तमिलनाडु में बनवाए गए एक मंदिर से चुराया गया था। साथ ही, राजस्थान के बाड़ौली में स्थित घटेश्वर मंदिर से 1998 में चुराई गई नटेश शिव की मूर्ति को लौटा दिया। ऑस्ट्रेलिया ने तमिलनाडु की 15वीं शताब्दी की दो द्वारपालों की मूर्तियों तथा छठी से आठवीं शताब्दी के बीच बनाई गई राजस्थान या मध्य प्रदेश की सर्पराज की मूर्ति को लौटा दिया।

2021 में भारत के प्रधानमंत्री जब अमरीका के दौरे पर थे, तब संयुक्त राज्य अमरीका ने 157 हस्तकृतियों और पुरावस्तुओं को उन्हें सौंप दिया था। ये वस्तुएँ मुख्य रूप से 11वीं शताब्दी ईसवी से लेकर 14वीं शताब्दी ईसवी तक की हैं। इनमें से आधी हस्तकृतियाँ (71) संस्कृति से संबंधित हैं, जबकि बाकी बची हुईं हस्तकृतियों में लघु मूर्तियाँ शामिल हैं, जो हिंदू (60), बौद्ध (16) और जैन (9) धर्म से संबंधित हैं। लगभग 45 पुरावस्तुएँ ईसा पूर्व की हैं। वर्ष 2021 में ही ऑस्ट्रेलिया की राष्ट्रीय दीर्घा 14 पुरावस्तुओं को लौटाने के लिए सहमत हो गई थी, जिनमें छह कांस्य या पाषाण मूर्तियाँ, पीतल का एक आनुष्ठानिक ध्वज, एक चित्रकारी युक्त पट्टचित्र और छह तस्वीरें शामिल हैं।

एक अविरत प्रक्रिया

चुराई गईं हस्तकृतियों का पता लगाने और उन्हें वापस पाने की प्रक्रिया अत्यंत समयसाध्य है और इसे बातचीत के कई चरणों के बाद शुरू किया जाता है। परंतु इस दिशा में लगातार प्रयास किया जा रहा है और इसके परिणामस्वरूप कई और हस्तकृतियाँ भारत में वापस आने की कतार में हैं। अगस्त 2022 में ग्लासगो के संग्रहालय सात चुराई गईं हस्तकृतियों को भारत को लौटाने के लिए सहमत हुए हैं, जो उन्हें उपहार स्वरूप मिली थीं। इसके अनुसार भारतीय उच्च आयोग ने केल्विनग्रोव कला दीर्घा और संग्रहालय में एक अनुबंध पर हस्ताक्षर किए। सात में से छह हस्तकृतियों को 19वीं शताब्दी में तीर्थस्थलों और मंदिरों से चुराया गया था। इनमें 14वीं शताब्दी की नक्काशियाँ और 11वीं शताब्दी के पत्थर से बने हुए दरवाज़ो के चौखट भी शामिल हैं। सातवीं वस्तु एक आनुष्ठानिक तलवार और उसकी म्यान है, जिसे 1905 में हैदराबाद के निज़ाम के संग्रह से चुराया गया था। फिर उसे सर आर्चीबाल्ड हंटर नामक एक ब्रिटिश जनरल को बेच दिया गया था। ऐसा माना गया है कि ये सभी वस्तुएँ कानपुर, कोलकाता, ग्वालियर, बिहार, और हैदराबाद जैसी जगहों से हैं, जिनमें से कुछ वस्तुएँ लगभग 1,000 वर्ष पुरानी हैं।

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ग्लासगो संग्रहालय द्वारा बलुआ पत्थर पर नक्काशी करके उकेरी हुई एक पुरुष और कुत्ते की आकृति को लौटाया जाएगा

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ग्लासगो संग्रहालय द्वारा भारतीय-फ़ारसी शैली की एक सर्पनुमा आनुष्ठानिक तलवार और उसकी म्यान को लौटाया जाएगा

अक्टूबर 2022 में संयुक्त राज्य अमरीका ने 15-वर्ष की लंबी जाँच-पड़ताल के बाद 307 पुरावस्तुओं को भारत को लौटा दिया, जिसके लिए न्यूयॉर्क के भारतीय वाणिज्य दूतावास में एक प्रत्यावर्तन समारोह आयोजित किया गया था, जिसमें भारत के वाणिज्य दूत जनरल रणधीर जायसवाल उपस्थित थे। लगभग चालीस लाख डॉलर के मूल्य की इन वस्तुओं को चुराया गया था और अवैध तरीके से भारत के बाहर भेज दिया गया था। मैनहटन ज़िला अटॉर्नी के कार्यालय द्वारा कला व्यापारी, सुभाष कपूर और उनके सहयोगियों की जाँच-पड़ताल की जाने के बाद इनमें से अधिकतर वस्तुओं (235) को ज़ब्त कर लिया गया था। कपूर ने लूटी और तस्करी की गई पुरावस्तुओं को संयुक्त राज्य अमरीका के मैनहटन में अपनी मैडिसन ऐवेन्यू स्थित “आर्ट ऑफ़ पास्ट” नामक कला दीर्घा द्वारा बेच दिया था। ये वस्तुएँ अफ़गानिस्तान, कंबोडिया, भारत, इंडोनेशिया, म्याँमार, नेपाल, पाकिस्तान, श्रीलंका, थाईलैंड, आदि, देशों से थीं। अन्य पाँच पुरावस्तुओं को दूसरी कला व्यापारी, नैंसी वीनर से ज़ब्त कर लिया गया था।

लौटाई गईं वस्तुओं में 12वीं-13वीं शताब्दी ईसवी की एक मेहराब है, जो संगमरमर से बनी हुई है। इसे भारत में अवैध वस्तुओं के व्यापारी ने चुराया था और मई 2002 में देश से बाहर, न्यूयॉर्क में बेच दिया था। कपूर ने उसे नेथन रुबिन – इडा लैड फ़ैमिली फ़ाउंडेशन को बेच दिया था, जिसने 2007 में येल विश्वविद्यालय को यह मेहराब दान में दे दिया था। 11वीं शताब्दी ईसवी की विष्णु-लक्ष्मी और गरुड़ की मूर्ति वीनर से प्राप्त हुईं पुरावस्तुओं में से एक है, जिसे मध्य भारत के एक मंदिर से चुराया गया था और फिर न्यूयॉर्क काउंटी में तस्करी करके ले जाया गया था।

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संगमरमर की मेहराब जिसे संयुक्त राज्य अमरीका द्वारा लौटाया जाएगा

अक्टूबर 2022 में तमिलनाडु पुलिस मूर्ति खंड अपराध अन्वेषण विभाग ने वॉशिंगटन डीसी के फ़्रीअर सैक्लर संग्रहालय और Christies.com नामक नीलामी साइट को पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने 50 वर्ष पहले तिरुवरुर ज़िले के मन्नरगुडी में अलथुर में स्थित अरुलमिगू विश्वनाथ स्वामी मंदिर से चुराई गई दो पुरातन मूर्तियों के स्वामित्व का दावा किया। ये दो मूर्तियाँ ‘सोमस्कंदर’ और ‘नृत्य करते संबंदर’ की थीं। इन संस्थानों की वेबसाइट पर इन मूर्तियों की छवियाँ पाई गई थीं। मूर्ति खंड ने इन मूर्तियों की देश-वापसी की माँग करते हुए दस्तावेज़ तैयार किए और उन्हें संयुक्त राज्य अमरीका को सौंप दिया। अब संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक तथा सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) के समझौते के तहत उन मूर्तियों को वापस पाने की आशा की जा रही है। चूँकि राज्य के रिकॉर्ड में छवियाँ मौजूद नहीं थीं, इसलिए मूर्ति खंड के अन्वेषकों ने उनके दावों के प्रमाण के रूप में फ़्रेंच इंस्टिट्यूट ऑफ़ पॉन्डिचेरी (एफ़आईपी) द्वारा साझा की गईं छवियों को प्रस्तुत किया।

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सोमस्कंदर मूर्ति

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नृत्य करते हुए संबंदर की मूर्ति

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सुल्तानगंज बुद्ध के साथ ई.बी. हैरिस

अपने अतीत पर हमारा अधिकार

बात जब उन हस्तकृतियों को वापस पाने की आती है, जिन्हें औपनिवेशिक काल में भारत से ले जाया गया था, संघर्ष थोड़ा और जटिल हो जाता है। 1978 में यूनेस्को ने ऐसी संपत्तियों के प्रत्यास्थापन के लिए देशों के बीच चर्चाओं और अनुबंधों को बढ़ावा देने के उद्देश्य से इंटरगवर्नमेंटल कमिटी फ़ॉर प्रमोटिंग द रिटर्न ऑफ़ कल्चरल प्रॉपर्टी (आईसीपीआरसीपी) का गठन किया। परंतु ब्रिटेन जैसे कई देशों में सख्त कानून हैं, जो ऐसी पुरावस्तुओं और हस्तकृतियों के हटाए जाने पर रोक लगाते हैं जो सार्वजनिक संग्रहों के भाग हैं। इसके अतिरिक्त, ब्रिटिश अधिकारियों को एक विशेष चिंता है कि यदि वे हस्तकृतियों को उनके मूल देशों को लौटाने लगे, तो इससे उनके संग्रहालय खाली हो जाएँगे। इसके लिए अक्सर एक तर्कसंगत कारण दिया जाता है, जो यह है कि भारत की जो वस्तुएँ औपनिवेशिक काल में भारत से ब्रिटेन ले जाई गई थीं, उन्हें चुराई गईं या अवैध तरीके से निर्यात की गईं वस्तुओं के रूप में नहीं देखा जा सकता है। चूँकि भारत तब ब्रिटिश साम्राज्य का भाग था, इसलिए हस्तकृतियों के इंग्लैंड ले जाने को केवल स्थानांतरण के रूप में देखा जा सकता है।

ऐसी ही एक पुरावस्तु शानदार सुल्तानगंज बुद्ध (जिसे बाद में बर्मिंगहम बुद्ध नाम दिया गया) है। 1860 के आरंभिक दशक में बिहार के सुल्तानगंज में एक रेलवे लाइन का निर्माण-कार्य चल रहा था। ई.बी. हैरिस के पर्यवेक्षण में काम कर रहे श्रमिकों ने कांस्य की एक संपूर्ण बुद्ध मूर्ति खोद निकाली थी। इसकी लंबाई 2.3 मीटर थी और इसका वज़न लगभग 500 किलो था। यह बुद्ध मूर्ति एकदम पुरानी मिट्टी की ईंटों के ढेर के नीचे पाई गई थी, जो संभवतः बौद्ध विहारों के खंडहर थे। यह मूर्ति मोटे तौर पर 6वीं-8वीं शताब्दी के बीच की है और हैरिस के मतानुसार इसे सुरक्षित रखने के लिए इसे जानबूझकर दफ़नाया गया था। बुद्ध की यह कांस्य मूर्ति बड़ी लंबी है, जिसमें उनका एक हाथ अभयमुद्रा में है जबकि दूसरे हाथ की हथेली ऊपर की ओर है जो वरदमुद्रा को दर्शा रही है। इस मूर्ति को बर्मिंगहम के भूतपूर्व महापौर, सैम्युएल थॉर्नटन के कहने पर 1864 में बर्मिंगहम संग्रहालय में ले जाया गया था। वर्तमान में यह मूर्ति वहीं पर, एक विस्मयकारी और विशाल वस्तु के रूप में, जनता के दर्शन के लिए खड़ी है। संग्रहालय का कहना है कि यह मूर्ति संग्रहालय के संग्रह में दाखिल होने वाली पहली कुछ वस्तुओं में से एक है और यहाँ की महत्त्वपूर्ण प्रदर्शित वस्तुओं में से एक है।

लंदन के विक्टोरिया और अल्बर्ट (वी एंड ए) संग्रहालय में हमें मुगल बादशाह शाहजहाँ का सफ़ेद जेड से बना मदिरा का प्याला दिखाई देता है। इस प्याले को 1657 में बनाया गया था और यह अलग-अलग संस्कृतियों के तत्वों के समन्वय को दर्शाता है। ऐसा माना जाता है कि चीनी कारीगरी से ली गई प्रेरणा के परिणामस्वरूप इसके शरीर का आकार लौकी जैसा है, जबकि पशु के आकार की मूठ और तल पर कमल की नक्काशियाँ ‘हिंदू कला’ से ली हुईं मालूम होती हैं। इसे संभवतः 19वीं शताब्दी में अंग्रेज़ों द्वारा ज़ब्त कर लिया गया था और 1960 के दशक में वी एंड ए संग्रहालय के अधिकार में आने से पहले एक के बाद एक कइयों का इस पर अधिकार रहा।

1620 के दशक में मुगल बादशाह शाहजहाँ ने ही तख्त-ए-ताऊस (मयूर सिंहासन) नामक एक शाही सिंहासन बनवाया था। ठीक तख्त की चोटी पर मोर का सिर बना है, जिस पर प्रसिद्ध कोह-ए-नूर हीरा मौजूद था। 18वीं शताब्दी में नादिर शाह के आक्रमण के बाद इस कीमती हीरे ने कई मीलों की यात्रा की और अंततः उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के शासक, रणजीत सिंह के हाथ आ गया। 1840 के दशक में रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद अंग्रेज़ों ने बाल शासक दलीप सिंह को पराजित कर पंजाब को अपने कब्ज़े में ले लिया और इस हीरे पर अधिकार पा लिया। इस प्रकार यह हीरा ब्रिटिश राजपरिवार की संपत्ति का भाग बन गया। मुगल बादशाहों के सिंहासन का हिस्सा, यह कोह-ए-नूर हीरा आज ब्रिटिश ताज की शान बन गया है।

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इंग्लैंड की रानी मेरी के ताज में जड़ा कोह-ए-नूर हीरा

ब्रिटेन के संग्रहालयों में ऐसी जो वस्तुएँ प्रदर्शित हैं, उनकी सूची लंबी-चौड़ी है। परंतु भारत की अपनी पुरावस्तुओं की वापसी की माँग को, विशेषतः अधिक कीमती और दुर्लभ वस्तुओं की माँग, को लगातार अस्वीकार किया जा रहा है। हमारे अतीत की वस्तुओं को वापस पाने की हमारी लड़ाई जारी है, और इसमें कई बाधाएँ सामने आती रहती हैं। भले ही आगे का मार्ग कठिन है, लेकिन हमारी खुद की भौतिक धरोहर पर अधिकार पाने की उम्मीदें टूटनी नहीं चाहिए। कला तस्कर, सुभाष कपूर की गिरफ़्तारी और अभ्यारोपण इस दिशा में सकारात्मक कदम हैं। इससे न केवल अन्य चुराई गई और अवैध तरीके से बेची गई हस्तकृतियों को पहचानने और वापस पाने में सहायता मिलेगी, बल्कि ऐसी गतिविधियों में शामिल होने वालों पर रोक भी लगेगी। आज की दुनिया में भूतपूर्व उपनिवेशों के मज़बूत होते दावों को देखते हुए यह आशा भी जागी है कि वह दिन अब दूर नहीं जब भूतपूर्व उपनिवेशवादी देश कीमती धरोहरों को मूल देशों को लौटाने के लिए सहमत हो जाएँगे।