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माजुली : ब्रह्मपुत्र के मध्य बहुरंगी संस्कृति

असम की महान नदी ब्रह्मपुत्र में स्थित माजुली, दुनिया के सबसे बड़े बसे हुए नदी द्वीपों में से एक माना जाता है। माजुली एक जीवंत सांस्कृतिक परिदृश्य का परिचारक है और विशेष रूप से नव-वैष्णव संस्कृति का केंद्र होने के लिए प्रसिद्ध है। नव-वैष्णववाद का उद्गमस्थल होने के अतिरिक्त, माजुली आदिवासी जीवन शैली की विविध विशेषताओं को भी दर्शाता है। 2016 में, माजुली को आधिकारिक तौर पर एक जिले के रूप में मान्यता दी गई, और परिणामस्वरूप यह भारत का पहला द्वीप जिला बन गया। माजुली अपनी भौगोलिक विशिष्टता के साथ-साथ अपनी समृद्ध जैव-विविधता के लिए भी जाना जाता है।.

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माजुली में डोरिया नदी। छवि स्रोत : विकिमीडिया कॉमन्स

इतिहास


प्राप्त जानकारी के अनुसार, माजुली, का निर्माण भूकंप, कटाव,और नदियों की धारा के दिशा परिवर्तन जैसी प्राकृतिक घटनाओं की एक श्रृंखला के बाद हुआ था। असम के शाही इतिहास (बुरंजी) में उल्लेख है कि माजुली को इसका नाम 16वीं शताब्दी ईस्वी में मिला। एक समय में यह सुतिया साम्राज्य की राजधानी हुआ करता था, और माना जाता था कि तब इसे रत्नापुर कहा जाता था। प्राचीनतम इतिहास में से एक, असम बुरंजी में कहा गया है कि मुगल सेना ने 1634 ईस्वी में माजुलीर बाली या द्वीप के रेतीले-किनारे पर अहोमों के साथ युद्ध किया था। उस समय यह भूमि का एक संकीर्ण, लंबा टुकड़ा था, जिसके किनारे, लोहित नदी, और प्राचीन देहिंग नदी की वर्तमान धारा में ब्रह्मपुत्र नदी बहा करती थी। यह 18वीं शताब्दी में था कि माजुली का, ब्रह्मपुत्र नदी के शीर्षाभिमुख कटाव, और धारा के दिशा परिवर्तन के कारण, वर्तमान भौगोलिक स्वरूप बना।

भूमि और लोग


माजुली असम की राजधानी गुवाहाटी के पूर्व में लगभग 500 किमी की दूरी पर स्थित है। माजुली पहुँचने के लिए जोरहाट जिले के निमातीघाट से ब्रह्मपुत्र के माध्यम से जाने वाले मार्ग का सबसे अधिक प्रयोग किया जाता हैl 20वीं शताब्दी के शुरुआती दौर में, माजुली का कुल क्षेत्रफल 1255 वर्ग किलोमीटर था। हालाँकि, लगातार होने वाले कटाव के कारण, आज यह केवल 352 वर्ग किलोमीटर ही रह गया है। वर्तमान में माजुली शानदार वनस्पति और जीव-जंतुओं से घिरी हरड़ के आकार की समतल भूमि है। यहाँ पक्षियों की लगभग 260 प्रजातियाँ पाई जाती हैं, जिनमें छोटी ग्रीबे, चित्तीदार चोंच वाले या धूसर हवासील (ग्रे पेलिकन), बड़े जलकाग, बैंगनी बगुले, तालाबी बगुले, बड़ा सफ़ेद बगुला, खुली चोंच वाला सारस, सफ़ेद गर्दन वाला सारस, बैगनी जलमुर्गी, सफ़ेद जोरा, शमा, आदि द्वीप में या उसके चारों ओर के जल निकायों में पाए जाते हैं। इस द्वीप में कई स्थिर जल निकाय या बीलें, खेती योग्य और गैर-खेती योग्य क्षेत्र, आर्द्रभूमि, और रेत के किनारे हैं।

माजुली की आबादी में मिशिंग, देवरी, और सोनोवाल कचारी नामक आदिवासी समुदायों के साथ-साथ कोच, नाथ, कलिता, अहोम, कैवर्त, आदि गैर-आदिवासी समुदाय शामिल हैं। इस द्वीप जिले में लगभग 144 गाँव हैं जिनकी आबादी 150000 से अधिक है, और घनत्व 300 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर हैl

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माजुली में झोपड़ियाँl छवि स्रोत : विकिमीडिया कॉमन्स


माजुली कई समृद्ध सांस्कृतिक परंपराओं के लिए जाना जाता है जो नव-वैष्णव मठों या सत्रों से संबंधित हैं। श्रीमंत शंकरदेव, 15वीं-16वीं शताब्दी के असम के वैष्णव संत, भारत के विभिन्न भागों में उभरते भक्ति आंदोलन से अवगत थे। ब्रह्मपुत्र घाटी में, उन्होंने ‘एकशरण नामधर्म’ नामक वैष्णववाद का एक अनूठा रूप प्रस्तुत किया, जिसका अर्थ एक-धर्म-में-आश्रय है। इसमें कर्मकांड को कम करके सामूहिक तौर पर सुनने या श्रवण के माध्यम से कृष्ण के प्रति समर्पण या भक्ति और कीर्तन के रूप में उनके नाम और कर्मों के गायन पर जोर दिया गया। ‘सत्र’, नव-वैष्णववाद से जुड़ा मठ है, जो मूल रूप से, भागवत को पढ़ने या समझाने के उद्देश्य से एक धार्मिक बैठक या संघ के रूप में शुरू हुआ था। समय के साथ, सत्र एक पूर्ण सामाजिक-धार्मिक और सांस्कृतिक संस्था में बदल गया, जिसके तहत साहित्य, संगीत, रंगमंच, नृत्य, पांडुलिपि-लेखन, चित्रकला, और शिल्प को संरक्षण मिला।

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माजुली के सत्र का एक दृश्य। छवि स्रोत : फ़्लिकर

माजुली द्वीप में सबसे अधिक संख्या में सत्र पाए जाते हैं। 16वीं शताब्दी के आरंभ में, श्रीमंत शंकरदेव ने नव-वैष्णववाद के प्रसार को बढ़ावा देने के लिए माजुली में कई सत्र स्थापित किए। ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने बेल का पेड़ लगाकर यहाँ पहले सत्र की स्थापना की और इसलिए इस जगह का नाम बेलगुरी रखा। वर्तमान में, इस द्वीप में 22 सत्र हैं। कमलबाड़ी सत्र, गरमूढ़ सत्र, औनियती सत्र, दक्षिणपाट सत्र,बेंगेनाती सत्र, समागुरी सत्र, आदि, माजुली के कुछ प्रतिष्ठित सत्र हैं।

माजुली का एक आदर्श सत्र परिसर, बटकोरा, हाटी, नामघर या कीर्तन-घर, और मणिकूट नामक चार वास्तु इकाइयों से बना होता है। बटकोरा एक छोटे से खुले घर के रूप में होता है और इससे सत्र परिसर में प्रवेश किया जाता है। हाटी श्रद्धालुओं या भक्तों के निवास स्थान होते हैं। नामघर, जिसे कीर्तन-घर या प्रार्थना कक्ष भी कहा जाता है, सत्र परिसर के केंद्र में स्थित होता है। इसके चारों ओर हाटियों की चार कतारें बनी होती हैं। नामघर में मुख्य रूप से भक्त सामूहिक भजन गायन के लिए इकट्ठा होते हैं। इसका उपयोग बैठकों और नाट्य और संगीत प्रदर्शन आयोजित करने के लिए भी किया जाता है। एक मणिकुट या भजघर, जिसका शाब्दिक अर्थ 'रत्न घर' है, सत्र संस्था का गर्भगृह होता है। एक सत्र परिसर में आमतौर पर फसल उगाने के लिए खेत और तालाब भी होते हैं। सत्र के संस्थागत प्रमुख को सत्राधिकार या अधिकार कहा जाता है। आवासीय भक्तों को कुछ विशेष पद दिए जाते है, जैसे कि डेका-सत्राधिकार (उप-सत्राधिकारी), भागवती (वह व्यक्ति जो निर्धारित समय पर भागवत का पाठ और व्याख्या करता है), पाठक (जो भागवत के छंदों और असमिया काव्य रचनाओं का पाठ करता है), श्रवणी (जो शास्त्रों के पाठ और व्याख्या को सुनता है), गायन (गायक), बायन (वाद्य यंत्र वादक), देउरी (मणिकूट में पूजा का प्रभारी), नामलागोवा (सामूहिक प्रार्थना का नेता), धन-भरली (कोषाध्यक्ष), लिखक (पांडुलिपियों को लिखने और उनकी प्रति बनाने वाला), एवं खनिकर (चित्रकला या मूर्तिकला के काम से जुड़ा कलाकार)l एक भक्त आमतौर पर सफ़ेद धोती, चादर, और एक गमछा (गमोसा) पहनता है। माजुली के सत्र आम तौर पर दो प्रमुख श्रेणियों के अंतर्गत आते हैं - उदासीन सत्र और गृहस्थी सत्र। जिन सत्रों में भक्त और सत्राधिकार ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, उन्हें उदासीन सत्र कहा जाता है। गृहस्थी सत्र में, भक्तों और सत्राधिकार को विवाह करने और परिवार का पालन-पोषण करने की अनुमति होती है। माजुली में उत्तर कमलबाड़ी सत्र, औनियती सत्र उदासीन सत्र हैं, जबकि गरमूढ़ सत्र द्वीप के गृहस्थी सत्रों में से एक है।

17वीं शताब्दी के दौरान अहोम और कोच राजाओं के शाही संरक्षण में माजुली में कई प्रमुख सत्र स्थापित हुए थे। अहोमों ने सत्र की गतिविधियों और संगठनात्मक प्रबंधन की देखभाल के लिए सत्रिय बरुआ नामक एक अधिकारी नियुक्त किया था। सत्र परिसर, अनुष्ठानों और परंपराओं सहित, शांतिपूर्ण, और भक्तिपूर्ण जीवन को दर्शाता है।

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माजुली के सत्र में गायन-बायन। छवि स्रोत : विकिमीडिया कॉमन्स

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श्री श्री उत्तर कमलबाड़ी सत्र। छवि स्रोत : विकिमीडिया कॉमन्स

माजुली के सत्र वैष्णव गुरुओं और पूर्व सत्राधिकारों की पुण्यतिथियों, और कृष्ण जन्माष्टमी, रास-लीला, आदि, वार्षिक अवसरों से जुड़े कुछ म हत्वपूर्ण समारोह मनाते हैं। जबकि ये समारोह अन्य सत्रों में भी मनाए जाते हैं, परंतु माजुली में ये बहुत भव्य रूप से मनाए जाते हैं। कृष्ण जन्माष्टमी या भगवान कृष्ण की जयंती भादों मास के कृष्ण पक्ष के 8वें दिन, यानी जुलाई-अगस्त में मनाई जाती है। रास-लीला अक्टूबर-नवंबर के महीने में पूर्णिमा के दिन मनाई जाती है। यह भगवान कृष्ण के मथुरा की गोपिकाओं के साथ हास-परहास के विषय पर आधारित है। यह त्योहार हर साल बड़ी संख्या में पर्यटकों को माजुली की ओर आकर्षित करता है। पल-नाम एक महत्वपूर्ण पारंपरिक सत्रिय अनुष्ठान है जो विशेष रूप से माजुली के सत्रों से जुड़ा है। यह जुलाई-अगस्त और अक्टूबर-नवंबर के महीनों के दौरान सार्वजनिक प्रार्थना और सामूहिक गायन के साथ मनाया जाता है।

सत्र असम में नव-वैष्णववाद की कई बहुमूल्य परंपराओं को बनाए रखने और बढ़ावा देने में सहायक हैं। शंकरदेव ने नव-वैष्णव दर्शन को नृत्य, नाटक, और संगीत के माध्यम से जनता तक पहुँचाने के साधन के रूप में अंकिय नट या भावना (पारंपरिक असमिया एकाँकी नाटक) के नाट्य प्रदर्शन की शुरुआत की। अंकिय नट या भावना एक ऐसी प्रदर्शन कला है जिसमें बीच-बीच में नृत्य, नाटक, और गीत प्रस्तुत किए जाते हैं। सत्रीय नृत्य, भारत के महत्वपूर्ण शास्त्रीय नृत्य शैलियों में से एक है, जिसे शंकरदेव द्वारा अंकिय नट की संगत के रूप में प्रस्तुत किया गया था। यह नृत्य-नाटक की एक विधा है जो हाथ और चेहरे के भावों के माध्यम से पौराणिक और धार्मिक कहानियों का वर्णन करती है। सत्रीय नृत्य के साथ श्रीमंत शंकरदेव और माधवदेव (शंकरदेव के प्रमुख शिष्य और उत्तराधिकारी) द्वारा रचित बोरगीत नामक भक्ति संगीत रचनाओं का गायन भी होता है। खोल (लंबे आकार का ढोल), मृदंग (दो सिरों वाला ढोल), ताल (झांझ), डोबा, जैसे वाद्य यंत्रों के साथ संगीतात्मक प्रदर्शन, भावना नाट्य कला का एक अभिन्न अंग है।

माना जाता है कि 1468 में, शंकरदेव ने अपने प्रारंभिक नाटक का मंचन किया था जिसका शीर्षक ‘चिह्न यात्रा’ था, जिसमें उन्होंने पौराणिक चरित्रों की विभिन्न अभिव्यक्तियों को चित्रित करने के लिए भावना में ‘मुख’ या मुखौटे के उपयोग की शुरुआत की थी। माना जाता है कि महान संत ने स्वयं ‘चिह्न यात्रा’ के लिए ब्रह्मा, गरुड़, और हर के मुखौटे तैयार किए थे। मुखौटा बनाने की यह परंपरा माजुली की सत्रिय संस्कृति का एक अभिन्न अंग है। शंकरदेव के पौत्र श्री श्री चक्रपाणि द्वारा 1663 में स्थापित सामागुरी सत्र अपनी सदियों पुरानी मुखौटा बनाने की परंपरा के लिए विश्व स्तर पर प्रसिद्ध है।

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मुखौटा बनाने के विभिन्न चरण। फ़ोटो साभार : अख्याई ज्योति महंत

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सामागुरी सत्र में एक मुखौटा बनाने वाला कलाकार। छवि स्रोत : फ़्लिकर

पांडुलिपि-चित्रांकन की कला नव-वैष्णव आंदोलन से जुड़ी एक और महत्वपूर्ण कलात्मक परंपरा थी जो अहोम राजा, स्वर्गदेव शिव सिंह (1714 ईस्वी - 1744 ईस्वी) के संरक्षण में माजुली में विकसित हुई थी। सभी पांडुलिपियों का विषय भगवान कृष्ण के जीवन और उनसे जुड़े प्रसंगों पर केंद्रित है। पांडुलिपियों के चित्रांकन के पीछे मुख्य उद्देश्य लिखित पाठ को पाठकों के लिए आकर्षक और रोचक बनाना था। पांडुलिपियों के लिए सांची या तुला वृक्ष की छाल का उपयोग किया जाता था। एक ‘लिखक’ आमतौर पर मूल ग्रंथ की नकल उतारता था, जबकि ‘खानिकर’ नामक विशेषज्ञ को रंग तैयार करने और पाठ को चित्रित करने की जिम्मेदारी सौंपी जाती थी। ज़िलिखा (टर्मिनलिया सिट्रीना) और गोमूत्र से घरेलू स्याही को तैयार किया जाता था और लेखन का कार्य नारियल के रेशों, पतले बाँस, और मोर के पंखों से बनी कूँची या कलम से किया जाता था। सांची के पेड़ हटियों के पास रोपित और पोषित किए जाते हैं, और ज़िलिखा के पेड़ भी द्वीप के विभिन्न स्थानों में पाए जाते हैं। सत्र के अंदर एक विशेष क्षेत्र, जिसे गांधिया भराल कहा जाता है, पारंपरिक रूप से पांडुलिपियों के भंडारण के लिए बनाया जाता था। वर्तमान में, यह बताया जाता है कि माजुली के विभिन्न कोनों में लगभग 3000 पांडुलिपियाँ संरक्षित हैं।

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भावना का एक दृश्य। छवि स्रोत : विकिमीडिया कॉमन्स

अन्य जीवंत परंपराएँ


माजुली, नव-वैष्णववाद का केंद्र होने के अतिरिक्त, विभिन्न समुदायों द्वारा विकसित की गई बहुमूल्य सांस्कृतिक परंपराओं का संचय कोश भी है। बुनाई पूरे द्वीप में देखी जाने वाली प्रमुख परंपराओं में से एक है। माजुली की मिसिंग महिलाएँ रंगीन कपड़े बनाने में माहिर हैं। उनके द्वारा उत्पादित वस्त्र विपरीत रंगों, आकृतियों, और पैटर्नों के साथ अत्यधिक आकर्षक होते हैं।

सलमारा का टेराकोटा गाँव एक अनमोल जीवंत परंपरा सँजोने वाला माजुली का एक और महत्वपूर्ण केंद्र है। सलमारा गाँव उन कुम्हारों द्वारा चलाए जा रहे सदियों पुराने टेराकोटा उद्योग के लिए जाना जाता है, जो आम तौर पर कलिता और कोच समुदायों के हैं। टेराकोटा शिल्प की ऐसी परंपरा धुबरी के कुछ हिस्सों में भी व्यापक रूप से प्रचलित है जिसमें अशारीकंडी गाँव, गोलपारा, और कामरूप शामिल हैं। ऐसा माना जाता है कि कुम्हारों के परिवारों को अहोम राजाओं द्वारा सलमारा में बसाया गया था ताकि शाही संरक्षण प्राप्त सत्रों को मिट्टी के उत्पादों की आवश्यक आपूर्ति सुनिश्चित की जा सके।

टेराकोटा शिल्प उत्पादन की श्रमसाध्य प्रक्रिया में मिट्टी (कुम्हार माटी) को इकट्ठा करने से लेकर अंतिम उत्पादों को पकाने तक के विभिन्न चरण शामिल होते हैं। मिट्टी इकट्ठा करने के पहले चरण को आम तौर पर खानी-दिया कहा जाता है। इसके बाद माटी-सिजुवा नामक अगला चरण होता है जिसमें मिट्टी को रेत के साथ मिलाया जाता है। खोलानी दिया तीसरा चरण है जिसमें मिट्टी और रेत के मिश्रण को अलग-अलग आकार दिए जाते हैं। पेघाली दिया, उत्पादन प्रक्रिया का अंतिम चरण है जिसमें उत्पादों को आग में पकाया जाता है। पकने की प्रक्रिया को पूरा होने में करीब आठ घंटे का समय लगता है। महिलाएँ आमतौर पर टेराकोटा के सामान को आकार देने में भाग लेती हैं, जबकि पुरुष मिट्टी को खोदने, आग में पकाने, और उत्पादों को बेचने का काम करते हैं। वे अपने उत्पादों को बेचने के लिए नावों पर ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे विभिन्न स्थानों पर ले जाते हैं। सलमारा गाँव के कुम्हार नाव बनाने में भी दक्ष होते हैं। वे निजी उपयोग के लिए नाव बनाने के अलावा नाव बनाने का व्यवसाय भी करते हैं।

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माजुली के सलमारा गाँव का टेराकोटा शिल्प। छवि स्रोत : फ़्लिकर

माजुली, एक अद्वितीय भू-सांस्कृतिक स्थल है जो असम में आने वाले पर्यटकों के लिए पसंदीदा स्थान है। हालाँकि, वर्षों से यह अतुल्य परिदृश्य, जीवन और संसाधनों को प्रभावित करने वाले विनाशकारी क्षरण से भी ग्रस्त रहा है। ब्रह्मपुत्र घाटी में पर्यटन को बढ़ावा देने की इसकी क्षमता के कारण, यह आशा की जाती है कि द्वीप पर प्राकृतिक शक्तियों के प्रभाव का मुकाबला करने के लिए प्रभावी कदम उठाए जाएंगे। सत्रिय संगीत की धुनों की गूँज और लोक जीवन की अभिव्यक्ति को दर्शाता माजुली, आज भी असम के गौरव के रूप में खड़ा है।