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नागा लोगों के लकड़ी के ढोल और उनसे जुड़ी कहानियाँ

Gingee hill

लकड़ी के ढोल का शीर्ष भाग

संगीत किसी भी जनजातीय समुदाय का एक अटूट हिस्सा होता है और उनके समाज का सार होता है। उपदेशक प्रदर्शनों और लोक संगीत की सामाजिक भूमिका केवल मधुर ध्वनियों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह उस समाज के लोगों के लिए अपने पूर्वजों और परिवेश से संवाद करने और भावी पीढ़ियों तक अपना ज्ञान संचारित करने का एक माध्यम हैं। अपने भौतिक स्वरूप के अतिरिक्त, संगीत वाद्ययंत्रों से जुड़ी हर चीज़ इन्हें हमारी मूर्त और अमूर्त सांस्कृतिक विरासत का एक अनिवार्य हिस्सा बनाती हैं। नागा लीगों का लकड़ी का ढोल (लॉग-ड्रम) एक ऐसा ही वाद्ययंत्र है।

इस ढोल को एक कंपनस्वरी (इडियोफ़ोन) वाद्ययंत्र शैली में वर्गीकृत किया जा सकता है। ऐसे वाद्ययंत्र कंपन के माध्यम से ध्वनि उत्पन्न करते हैं। इन्हें जनजातीय और क्षेत्रीय आधार पर अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है। वैसे तो यह प्राथमिक तौर पर एक ढोल है, परंतु इसे एक प्रतिमा के रूप में भी पूजा जाता है। इसे बनाने की परंपरा नागालैंड की कोन्याक, आओ, यिमचुंगर, सांग्ताम, फोम, खिमनिंगन, और चांग एवं अरुणाचल प्रदेश की वांचो जैसी जनजातियों के बीच प्रचलित है। परंपरागत रूप से, ऐसे ढोल को मोरुंग (युवा छात्रावास) या किसी अन्य सुविधाजनक स्थान पर स्थापित किया जाता है। इन जनजातियों द्वारा बसाए गए गाँवों में एक या दो ढोल होते हैं और हर ढोल के आकार में उसके गाँव का आकार झलकता है। जितना बड़ा गाँव, उतने बड़े ढोल।

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हॉर्नबिल महोत्सव के दौरान प्रस्तुति देती एक कोन्याक महिला

संबंधित मिथक और मान्यताएँ

प्रत्येक जनजाति में ढोल को बनाने और बजाने से जुड़ी कुछ मान्यताएँ और मिथक प्रचलित हैं। कोन्याक जनजाति का ढोल, ‘खाम’, इस जनजाति की उत्पत्ति के एक मिथक से जुड़ा है। नागालैंड के कोन्याक अपने बुज़ुर्गों की सेवा और पूर्वजों की स्मृति को जीवित रखना, अपना प्रमुख कर्तव्य मानते हैं। उनका मानना है कि उनके पूर्वजों ने एक ही पेड़ के तने से बनी डोंगियों (छोटी नौका) का इस्तेमाल करके एक रहस्यमय नदी को पार किया था, जिसके बाद वे अपनी वर्तमान बस्ती तक पहुँचे थे। इस यात्रा की स्मृति में, ये ढोल उनके पूर्वजों के जीवन की निर्णायक डोंगी के आकार में बनाए जाते हैं। कोन्याक जनजाति के गाँवों में, ज़रूरत के आधार पर हर कुछ दशकों में एक नया ढोल तैयार किया जाता है।

ढोल व्यक्तिगत उद्देश्यों के लिए नहीं, बल्कि समुदाय के लिए और समुदाय के द्वारा ही बनाया जाता है। ढोल बनाने की इस प्रथा के कारण नागा जनजाति के बीच लकड़ी के कारीगरों और लोहारों की आवश्यकताएँ उत्पन्न हुईं, जिससे उनकी विरासत के संरक्षण और विकास को और भी सहायता मिली।

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एक मुखौटे को रंगता हुआ एक सिक्किमी लड़का

ढोल को एक महिला का स्वरूप माना जाता है और इसका नामकरण गाँव के एक बुज़ुर्ग द्वारा किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि यह नाम उन्हें सपने में दिखाई देता है। ढोल बनाने और स्थापित करने की पूरी प्रक्रिया में तीन सप्ताह से एक महीने तक का समय लगता है। इस प्रक्रिया के साथ ही अनुष्ठान, प्रार्थनाएँ, और दावतें भी चलती रहती हैं। यह सामुदायिक दावत मुख्य रूप से महिलाओं द्वारा तैयार की जाती है और यह इस प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यदि समुदाय का कोई भी सदस्य इस दावत को ग्रहण नहीं कर पाता, तो इसे एक अपशकुन माना जाता है, क्योंकि ऐसी मान्यता है कि वह इस आशीर्वाद को नहीं पा सका है।

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नागा मोरुंग का आंतरिक भाग

ढोल का निर्माण और उसकी नक्काशी

ढोल बनाने के लिए असाधारण कौशल की आवश्यकता होती है। एक सामान्य ढोल में शीश, छाती, पंख, गर्दन, मुख्य भाग, पूँछ, और ढोल बजने वाली डंडियाँ बनाई जाती हैं। कुछ ढोलों के किनारों पर सीढ़ियाँ भी खोदी जाती हैं, जो इनपर चढ़ने में मदद करती हैं। ढोल बनाने की प्रक्रिया शुरू करने से पहले, समुदाय के सदस्यों के बीच सभी विवादों को हल किया जाता है, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि समुदाय में सद्भाव और एकता की भावना मज़बूत है। इस प्रक्रिया में, समझौते और बातचीत के साथ-साथ ऋण और ब्याज का भुगतान भी किया जाता है।

नागालैंड और अरुणाचल प्रदेश के घने वर्षावन इन्हें ढोल बनाने के लिए आवश्यक कच्चे माल की आपूर्ति के लिए आदर्श बनाते हैं। पेड़ का चयन करने के बाद, उसके तने के गिरने की दिशा को ध्यान में रखते हुए उसपर सूक्ष्मता से प्रहार किया जाता है। इसे ऊँचे स्वरों के बीच गिराया जाता है, जिसके बाद यहाँ प्रार्थना की जाती है। ढोल अनुष्ठानिक है और इसे हर कीमत पर संरक्षित किया जाना चाहिए। आदिवासी इसे टहनियों, शाखाओं, और पत्तियों से ढक देते हैं, ताकि कोई जंगली जानवर इसे तोड़ न दे या इसपर शौच न कर दे। यदि ऐसी कोई दुर्भाग्यपूर्ण घटना घटती है, तो उस लकड़ी के कुंदे को वहीं त्याग दिया जाता है। इसकी लगातार निगरानी और सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए, मोरुंग के सदस्य हर रात ढोल के पास एक शिविर स्थापित करते हैं।

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ढोल को खींचने में उपयोग की जाने वाली लताओं की रस्सी, नागालैंड

तने का मुख और सिरा तय हो जाने के बाद, लकड़ी पर सटीक माप और निशान बनाकर, ढोल बनाने की प्रक्रिया शुरू की जाती है। ढोल पर की गई नक्काशियाँ प्रत्येक जनजाति और प्रत्येक गाँव के अनुसार भिन्न हो सकती हैं।

पूरी नक्काशी पारंपरिक तलवारों, चाकुओं और अन्य स्वदेशी उपकरणों का उपयोग करके जंगल में ही की जाती है। ढोल के निर्माण में केवल पुरुषों को ही भाग लेने की अनुमति है। यदि कोई पुरुष नक्काशी में मदद करने के लिए बहुत छोटा होता है, तो उसे शिविर स्थापित करने और भोजन तथा पानी लाने में योगदान देना पड़ता है। युवा लड़के यह पूरी प्रक्रिया देखते और सीखते हैं, क्योंकि एक दिन उनसे अपने बड़ों की भूमिका निभाने की उम्मीद की जाती है।

ढोल को खींचने के लिए लताओं से मज़बूत रस्सियाँ बनाई जाती हैं, और परिवहन को आसान बनाने के लिए नीचे लकड़ी की गिट्टियाँ लगाई जाती हैं। यह कार्य आमतौर पर कनिष्ठ पुरुषों को सौंपा जाता है जो ढोल को बजाने हेतु उपयोग की जाने वाली डंडियों के लिए लकड़ियाँ इकट्ठी करते हैं। कोन्याक भाषा में इन डंडियों को ‘लाफू’ या ‘लाम्फू’ कहा जाता है।

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ढोल को बजने के लिए उपयोग की जाने वाली डंडियाँ

आमतौर पर 8वें-10वें दिन, ढोल को आकार देना शुरू किया जाता है। ढोल पर लंबाई में एक चीरा लगाया जाता है, जिसके माध्यम से इसे खोखला बनाया जाता है। कोन्याक यह मानते हैं कि यदि ढोल का दाहिना भाग थोड़ा ऊपर उठा हुआ हो, तो गाँव पर पुरुषों का प्रभाव अधिक होता है, और यदि बायाँ भाग ऊपर उठा हुआ हो तो महिलाओं का प्रभाव अधिक होता है| ढोल का शीर्ष सामान्य और खाली होता है, या उसपर मिथुन या बाघ जैसे शुभ जानवरों की नक्कशियाँ उत्कीर्णित की जाती हैं और उनकी आकृतियों को काले, सफ़ेद, और लाल रंगों से रंगा जाता है।

जिस दिन इन्हें अंतिम आकार दिया जाता है, उस दिन पेड़ के तने को औपचारिक रूप से ‘खाम’/’खुम’ या ढोल की मान्यता मिलती है। पुरुष गीत गाते हुए मोरुंग की ओर लौटते हैं और उस शक्तिशाली पेड़ की आत्मा का आह्वान करते हैं, जिससे यह ढोल बनाया गया था। इसके बाद, ढोल को एक महिला का नाम दिया जाता है और ढोल को गाँव में खींचा जाता है, जिस दौरान हर समय इसका नाम लिया जाता है।

गाँव की ओर यात्रा

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जंगल से गाँव तक खींचा जा रहा ढोल, नागालैंड

कोन्याक यह मानते हैं कि ढोल एक महिला का स्वरूप है, जिसकी अपनी इच्छाएँ और अभिलाषाएँ हैं। यह महिला ही तय करती है कि उसे गाँव कितने दिन में पहुँचना है और न चाहने पर वह एक इंच भी आगे नहीं बढ़ती। वह अचल बना देने वाली बाधाओं से लेकर गाँव तक पहुँचते सुगम रास्तों तक, अपनी इच्छानुसार कुछ भी उत्पन्न कर सकती है। ढोल के संचलन में पेड़ के मालिक की सहमति भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। मोरुंग के सदस्य एक निर्बाध मार्ग बनाते हैं, और जो व्यक्ति उस मार्ग की संपत्ति का मालिक होता है, उसे पके हुए चावल, मांस, और आशीर्वाद के साथ उचित हर्जाना दिया जाता है। इसे रस्सियों, रोलरों, और गिट्टियों की सहायता से समुदाय के सदस्यों की संयुक्त शक्ति और ताकत का उपयोग करके खींचा जाता है। इस दौरान, उत्साह को बढ़ाए रखने के लिए ज़ोर से आवाज़ें लगाई जाती हैं।

ढोल बनाने के लिए गिराए गए पेड़ पर चढ़ने वाला पहला व्यक्ति होने का सम्मान केवल एक अनुभवी योद्धा को ही दिया जाता है, जो आमतौर पर सबसे अधिक सिर काटने वाला व्यक्ति होता है। यह एक ईमानदार व्यक्ति होता है, जो उन कुछ चुनिंदा लोगों में से एक है, जिन्हें ढोल को गाँव में लाने की अनुमति दी जाती है। गाँव का कोई भी निवासी इस व्यक्ति के ससुराल पक्ष से नहीं होना चाहिए क्योंकि यह एक अपशकुन माना जाता था। आज, यहाँ ईसाई धर्म की शुरुआत के बाद, इस व्यक्ति की भूमिका एक पादरी या गिरजाघर के बुज़ुर्ग द्वारा निभाई जाती है।

परंपरागत रूप से, महिलाएँ ढोल को खींचने में पुरुषों के साथ शामिल नहीं होतीं, लेकिन दावतों की तैयारी तथा निवासी आत्माओं और पूर्वजों के लिए गीत गाने में उनका योगदान उल्लेखनीय है। ऐसा ही एक कोन्याक गीत है,

“ओ, शक्तिशाली पेड़ उदास मत हो
ओ, शक्तिशाली पेड़ उदास मत हो
सभी पुरुषों और महिलाओं की किसी भी नुकसान से रक्षा करो
ओ, शक्तिशाली वृक्ष आओ
ओ, शक्तिशाली वृक्ष आओ।”

यह गीत उस पेड़ की पूजा करने के लिए गाया जाता है, जिससे ढोल बनाया गया है। यह गाँव पर आशीर्वाद बनाए रखने में पेड़ की भूमिका के प्रति सम्मान और कृतज्ञता दर्शाता है। इस तरह की प्रथाएँ आदिवासी बस्तियों में आम हैं, क्योंकि जंगल और उसके आसपास की सभी चीज़ें पवित्र और अनुष्ठानिक मानी जाती हैं।

ढोल अपने गंतव्य स्थान तक पहुँचते हुए

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एक कोन्याक महिला ढोल के आगमन का स्वागत करते हुए, पेसाओ, नागालैंड

अंततः, ढोल के रूप की इस महिला द्वारा एक पूर्व-निर्धारित शुभ दिन पर, ढोल को गाँव में लाया जाता है। इस महिला की ओर से एक शानदार दावत का आयोजन किया जाता है, जिसमें पूरे गाँव का योगदान होता है। प्रत्येक परिवार का योगदान उसकी संपत्ति और समृद्धि के आधार पर तय किया जाता है। इसकी तैयारी में, लोगों की सटीक गणना करने के लिए छोटी लकड़ियों का उपयोग किया जाता है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि कोई भी छूट न जाए।

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लोगों की गणना करने के लिए छोटी-छोटी लकड़ियों का प्रयोग किया जाता है

ढोल के गाँव में पहुँचने के बाद, उसपर अंतिम नक्काशी की जाती है, और आनंदमयी गीतों और नृत्यों के साथ उसका स्वागत किया जाता है। इसके बाद इसे औपचारिक रूप से मोरुंग में स्थापित किया जाता है, जहाँ पुरुष हाथ में ढोल बजने वाली डंडियाँ लेकर लयबद्ध तरीके से ढोल बजाते हैं। पुराने दिनों में, ढोल के सम्मान में बलिदान भी दिए जाते थे। ढोल के आगमन के साथ ही दुश्मनों के कटे हुए शीशों को एक ध्वज स्तंभ पर फहराया जाता था। इसपर दुश्मनों का खून भी लगाया जाता था और आओ जनजाति के गाँवों में ढोल को तब तक नहीं बजाया जाता था जब तक कि वह दुश्मन के खून से रंगा न जाए।

ढोल के उद्देश्य और उपयोग

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ढोल बजाते हुए चांग पुरुष

एक ढोल कई उद्देश्यों को पूरा करता है। इसका उपयोग एक सफल धावे के बाद योद्धाओं की वापसी की घोषणा करने के लिए, एक सार्वजनिक बैठक बुलाने के लिए, समुदाय के किसी सदस्य की मृत्यु पर शोक मनाने के लिए, हमला होने पर या आग लगने पर पर चेतावनी देने के लिए, किसी जंगली जानवर के मारे जाने पर, और एक अच्छी फसल के गुणगान करने के लिए किया जाता था। ढोल की आवाज़ अनेक वरदानों या किसी अपशकुन का संकेत देती है। प्रत्येक अवसर पर ढोल पीटने का एक अनोखा तरीका होता है, जो समुदाय के सदस्यों को ज्ञात होता है। यह संवाद का एक त्वरित और कुशल माध्यम था, क्योंकि ढोल की थाप से यहाँ की पहाड़ियाँ भी गूँज उठती थीं। पुराने दिनों में, यह संदेशवाहन का काम करता था, क्योंकि किसी हमले के दौरान तात्कालिकता और खतरे का संकेत देने के लिए ढोल को तेज़ गति से पीटा जाता था। सभी ग्रामीणों को इकट्ठा करने के लिए एक लंबी-धीमी ताल का उपयोग होता था, जिससे यह स्पष्ट हो जाए कि अन्य लोग बैठक शुरू होने का इंतज़ार कर रहे हैं। त्योहारों के दौरान, आमतौर पर एक धीमी और सतत गति की ताल दी जाती है, जिसके साथ नृत्य भी हो सकता है।

अतीत में, ढोल के मुख की दिशा से यह भी तय किया जाता था कि दुश्मनों के सिर काटने के लिए किस दिशा में जाना है। सफल होने पर, दुश्मन के शिकार किए गए शीश को ढोल की गर्दन पर रखा जाता था। एक आओ गीत के बोल हैं, "दादाजी आपकी गर्दन पर हार डालेंगे...", क्योंकि ‘सोंगकोंग’ (आओ भाषा में ढोल) के लिए सजावट का मतलब गाँव के लिए सजावट है। सूर्य और चंद्र ग्रहण के दौरान भी इसे बजाया जाता था |

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अरुणाचल प्रदेश में ओरिया महोत्सव के दौरान खाम (ढोल) बजाते वांचो पुरुष

हालाँकि नागा समाज तेज़ी से आधुनिकता और उससे जुड़े बदलावों की ओर बढ़ रहा है, फिर भी यहाँ के आंतरिक गाँवों में रहने वाले आदिवासी आज भी स्वदेशी परंपराओं का पालन करते हैं। अपनी विरासत को सुरक्षित रखने में उनकी भूमिका सचमुच सराहनीय है। ढोल का उपयोग आज भी प्रत्येक जनजाति द्वारा किया जाता है, जिसमें प्रसिद्ध वार्षिक हॉर्नबिल महोत्सव के दौरान किए जाने वाले प्रदर्शनों में इसका उपयोग विशेष रूप से उल्लेखनीय है। नागा ढोल सदियों पुराने नागा आदिवासियों की मान्यताओं को दर्शाने वाला प्रतीक है। यह अतीत को जीवित रखता है और उसे वर्तमान जीवन से जोड़ता है।