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पुरी रथ यात्रा

जगन्नाथ मंदिर में संपूर्ण वर्ष में कई त्यौहार मनाये जाते हैं । सम्भवतः सबसे भव्य समारोह नोबो कोलीबोरो के लिए होता है। नोबो कोलीबोरो में भगवान जगन्नाथ के पुनर्जन्म का उत्सव मनाया जाता है, जिसमें उनके शरीर का दूसरे शरीर में स्थानांतरगमन होता है। यह अनुष्ठान हर १५-१९ वर्ष में होता है। अधिमास वर्ष का, दो पूर्णिमाओं सहित, ज्येष्ठ (जून-जुलाई) माह इस अनुष्ठान के लिए शुभ माना जाता है ।

बन यग यात्रा वर्ष का पहला त्यौहार होता है। यात्रा के सहभागी पुरी में भगवान जगन्नाथ के आगमन का पुनः अभिनय करते हैं। गजपति राजा विभिन्न भूमिकाएँ अभिनेताओं को आवंटित करते हैं। विश्ववासु, नीलमाधव के आदिवासी भक्त, बिद्यापति, भगवान जगन्नाथ को पहली बार देखने वाले ब्राह्मण, लेनका सेवक, मंदिर के कार्यवाहक लेखन प्रभारी और विश्वकर्मा, संपूर्ण जगत के वास्तुकार और दिव्य अभियंता की भूमिकाएँ पुरुषों द्वारा ग्रहण की जाती हैं।

मुख्य कलाकार अपने माथे पर एक विशेष खंडुआ (रंगे हुए धागे का उपयोग करके बुना हुआ एक रेशमी कपड़ा) बाँधते हैं। इस खंडुआ कपड़े पर गीत-गोविंद के पद हाथ से बुने हुए होते है। वे दसफला की ओर एक पेड़ की तलाश में जाते हैं जिससे ईश्वर को उत्कीर्ण किया जा सके और जो प्रभु के ब्रह्म (आत्मा) को रखने के लिए उपयुक्त हो।

मार्ग में, वे काकटपुर में मंगला देवी मंदिर में रुकते हैं और प्रभु की ओर से उन्हें उपहार भेंट करते हैं। बदले में वे पेड़ को खोजने के लिए उनका आशीर्वाद माँगते हैं। विश्वकर्मा सेवक, देवी मठ में अपने विश्राम के दौरान पेड़ के स्थान के विषय में स्वप्न देखते हैं। वे अगली सुबह दारू (पेड़) को खोजते हैं। वृक्ष का पता लगने पर लेनका उसे पुष्पहार पहनाते हैं और उसके नीचे सुदर्शन (भगवान विष्णु का अस्त्र) स्थापित करते हैं।

बन यग यात्रा के लिए चुना गया पेड़।

बन यग यात्रा के लिए चुना गया पेड़।

'नवकलेवर के लिए निंब का देखा गया पेड़ । १९७१ में प्रकाशित के.सी. मिश्रा द्वारा ‘द कल्ट ऑफ जगन्नाथ’ से पट्ट संख्या ४९।

'नवकलेवर के लिए निंब का देखा गया पेड़ । १९७१ में प्रकाशित के.सी. मिश्रा द्वारा ‘द कल्ट ऑफ जगन्नाथ’ से पट्ट संख्या ४९।

इसके पश्चात् पेड़ को स्नान कराया जाता है और उसकी पूजा की जाती है। विश्वकर्मा सेवकों द्वारा इसे चौपटा नामक कुंदों में काटे जाने से पहले, एक सोने और चांदी की कुल्हाड़ी से छुआ जाता है। इन पवित्र कुंदों को मंदिर में ले जाने के लिए इमली की लकड़ी से बनी एक गाड़ी लाई जाती है। गाड़ी में ले जाने से पहले चौपटों को रेशम में कसकर लपेटा जाता है और खंडुआ कपड़े से बांध दिया जाता है।

ार पहिया गाड़ी पर पवित्र दारू

'चार पहिया गाड़ी पर पवित्र दारू'। १९७१ में प्रकाशित के.सी. मिश्रा द्वारा ‘द कल्ट ऑफ जगन्नाथ’ से पट्ट संख्या ५२।

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हस्तिद्वार, उत्तरी द्वार से प्रवेश करता हुआ, बलभद्र की मूर्ति के लिए चुना गया दारू ।

कुंदों को पुरी मंदिर के निर्माण गृह ("सृजन का घर") में लाया जाता है और सेनापति के अनुसार एक महीने के लिए सार्वजनिक दृष्टि से छिपाकर रखा जाता है। केवल वरिष्ठ पुजारियों को प्रभु के नए शरीर को गढ़ने में सम्मिलित होने की अनुमति होती है। घट परिवर्तन ("ब्रह्म का स्थानांतरण") करना सबसे बड़े पुजारी का विशेषाधिकार होता है। पुरानी मूर्ति और पिछले वर्ष के रथ के हिस्सों को एक सुद्धिक्रिया (शुद्धिकरण अनुष्ठान) के बाद भूमि में गाड़ दिया जाता है।

चंदन यात्रा का एक चित्र । भगवान मदनमोहन जी के रूप में नरेंद्र सरोवर में नौका विहार करते हुए ।

चंदन यात्रा का एक चित्र । भगवान मदनमोहन जी के रूप में नरेंद्र सरोवर में नौका विहार करते हुए ।

ज्येष्ठ के इस महीने में भगवान के जन्मदिन को स्नान यात्रा के रूप में मनाया जाता है। प्रभु और उनके भाई-बहनों को बिगुल की उच्च ध्वनि, संगीत और समारोहों के बीच बाहर लाया जाता है। परंपरा के अनुसार उन्हें फूलों के मुकुट से सजाया जाता है, सार्वजनिक दृष्टि से छिपाया जाता है और मंदिर परिसर के भीतर के एक कुएँ, सुना कुआँ (स्वर्ण कुआँ) के एक सौ आठ घड़े पानी से स्नान कराया जाता है।

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लोगों द्वारा खींचा जा रहा रथ। के.सी. मिश्रा द्वारा १९७१ में प्रकाशित ‘द कल्ट ऑफ जगन्नाथ’ से पट्ट संख्या ४२ ।

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'तीन रथ एक पंक्ति में खड़े हैं'। के.सी. मिश्रा द्वारा १९७१ में प्रकाशित ‘द कल्ट ऑफ जगन्नाथ’ से पट्ट संख्या ३९ ।

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कटक जिले में धनमंडल रेलवे स्टेशन के पास एक पुराने मंदिर की धानी में रथ यात्रा का दृश्य’। के.सी. मिश्रा द्वारा १९७१ में प्रकाशित ‘द कल्ट ऑफ जगन्नाथ’ से पट्ट संख्या ३९अ ।

रथयात्रा से पहले बाड़ाडांडा में खड़े सुभद्रा, बलभद्र और भगवान (आगे से पीछे) के तीनों रथों का एक चित्र।

रथयात्रा से पहले बाड़ाडांडा में खड़े सुभद्रा, बलभद्र और भगवान (आगे से पीछे) के तीनों रथों का एक चित्र।

देवताओं को स्नान के बाद हस्तिबेष (एक हाथी का परिधान) पहनाकर दर्शन के लिए तैयार किया जाता है। यह अनुष्ठान लौकिक चेतना में समाहित है। ऐसा माना जाता है कि एक बार एक प्रसिद्ध हिंदू विद्वान को गजपति शासक ने अपने दरबार में आमंत्रित किया। राजा ने विद्वान को अपने साथ श्रीमंदिर के दर्शन के लिए आमंत्रित किया लेकिन विद्वान ने यह कहते हुए मना कर दिया कि वह केवल भगवान गणेश की पूजा करते हैं। परंतु, अनिच्छुक विद्वान तब आश्चर्यचकित हुआ जब भगवान जगन्नाथ उसके प्रिय हाथी भगवान, गणेश के रूप में प्रकट हुए। हस्तिबेष, प्रभु का अपने प्रत्येक अनुयायी के प्रति प्रेम का प्रतीक है।

ऐसा माना जाता है कि इस विस्तृत स्नान के बाद देवताओं को ठंड लग जाती है। वे ठीक होने के लिए १५ दिनों के लिए सार्वजनिक दर्शन से अवकाश ले लेते हैं । इस काल को अनवसरा कहा जाता है। भगवान के नहाए हुए शरीर पर आँखों की रंगसाजी करके नेत्रोत्सव मनाया जाता है। अगले दिन रथ यात्रा की शुरुआत होती है।

“जब अलौकिक प्रतिमाएँ आगे लायी जाती है और उनके रथों पर रखी जाती हैं तो हज़ारों लोग घुटनों के बल झुकते हैं और अपने माथे को धूल में मिलाते हैं। यह विशाल भीड़ एक स्वर में स्वर नाद करती है और पीछे और आगे की ओर धक्का लगाकर पहियों वाले भवन को चौड़ी सड़कों पर खींचकर भगवान जगन्नाथ के ग्राम्य आवास की ओर ले जाती है। ”- शाही ज़िला गज़ेटियर, पुरी १८८६।

भगवान जगन्नाथ, देवी सुभद्रा और भगवान बलभद्र के लिए अलग अलग रथ बनाए जाते हैं । प्रत्येक में मुख्य देवता सहित नौ अन्य देवता होते हैं। ये ब्रह्मांड के नौ ग्रहों को इंगित करते हैं। एक रथ को उसके विशिष्ट नाम, उसके रंगों, उसके सारथी, उसके घोड़ों और उसका नियंत्रण करने वाली बागडोर द्वारा भी पहचाना जाता है।

रथयात्रा से पहले बाड़ाडांडा में खड़े सुभद्रा, बलभद्र और भगवान (आगे से पीछे) के तीनों रथों का एक चित्र।

रथयात्रा से पहले बाड़ाडांडा में खड़े सुभद्रा, बलभद्र और भगवान (आगे से पीछे) के तीनों रथों का एक चित्र।

पैंतालीस फीट ऊंचा, भगवान जगन्नाथ का लाल और पीला रथ सबसे बड़ा होता है। इसे नंदीघोष कहा जाता है और अकेले इसी के ही निर्माण में दो महीनों का समय लग जाता है। शंख, श्वेत, बलहक और हरिदास्व नामक घोड़ों को भगवान के रथ को खींचने का सम्मान प्राप्त होता है। भगवान के सारथी, मारुति, घोड़ों की बागडोर संभालते हैं ।

भगवान

भगवान जगन्नाथ के आद्यसेवक, गजपति महाराजा दिब्यसिंह देब, रथ की अनुष्ठानिक झाड़ू लगाकर, यात्रा से पहले ‘चेरा पंहारा’ करते हुए ।

उत्सव का उद्घाटन चेरा पंहारा द्वारा किया जाता है। इसमें, भगवान के 'सेवक' के रूप में, गजपति शासक, रथों के आगे बढ़ने से पहले प्रत्येक रथ के मंच पर झाड़ू लगाते हैं । भक्त इन बड़े रथों को मुख्य मार्ग पर तीन किलोमीटर, देवताओं के ‘वाटिका गृह,' उनकी मौसी, गुंडीचा के घर तक खींचते हैं। देवता एक सप्ताह तक उनके साथ रहते हैं। इस समय के दौरान, यह माना जाता है कि देवी लक्ष्मी अपने आप को पीछे छोड़ दिए जाने के कारण अपने पति से क्रोधित हो जाती हैं, और क्रोध में भगवान जगन्नाथ के रथ को नष्ट कर देती हैं। इस अनुष्ठान को आज हेरा पंचमी के रूप में मनाया जाता है, जिसमें 'हेरा,’ का तात्पर्य ढूँढना या खोजना है ।

भगवान

भगवान जगन्नाथ के आद्यसेवक, गजपति महाराजा दिब्यसिंह देब, यात्रा के दिन जगन्नाथ मंदिर पहुँचते हुए ।

तीनों भाई-बहन अपनी मौसी के घर से बाहर निकलते हैं और 'बाहुदा यात्रा' (वापसी यात्रा) पर निकल पड़ते हैं। उनके आगमन की प्रतीक्षा में उनसे अत्यधिक स्नेह करने वाले भक्त उनका श्रीमंदिर में स्वागत करते हैं। देवता अपने भक्तों द्वारा लाए सभी चढ़ावे ग्रहण करने के बाद सुनबेष, अथवा ‘सोने से लदा हुआ रूप,' धारण करते हैं। यह लघु दर्शन उनके घर वापसी का प्रतीक होता है।

हालाँकि, भगवान जगन्नाथ को अभी भी अपने गृह में प्रवेश करने की अनुमति नहीं होती है। ऐसा माना जाता है कि देवी लक्ष्मी अभी भी अपने भगवान से क्रोधित हैं। उद्विग्न होकर वे द्वार बंद कर देती हैं और उन्हें अंदर नहीं आने देती हैं । भगवन जगन्नाथ उन्हें अपनी मंशाएँ समझाने का प्रयास करते हैं और उनसे क्षमा माँगते हैं । निरंतर आग्रह करने के बाद देवी उन्हें अपने गृह में प्रवेश करने की अनुमति दे देती हैं ।

यात्रा का समापन नीलाद्रि बीज के साथ होता है जो देवताओं के गर्भगृह में लौटने का प्रतीक है। १८२५ में, २.२५ लाख तीर्थयात्री पुरी मंदिर में एकत्रित हुए, १९० साल बाद (२०१५) नोबो कोलीबोरो उत्सव में, पुरी में १७.५ लाख भक्तों के सम्मिलित होने का कीर्तिमान स्थापित हुआ।

गुंडीचा

'गुंडीचा मंदिर का प्रवेश द्वार'। के.सी. मिश्रा द्वारा १९७१ में प्रकाशित ‘द कल्ट ऑफ जगन्नाथ’ से पट्ट संख्या ४३।