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शेर-ए-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह

19वीं शताब्दी की शुरुआत में, पाँच नदियों की धरती के रूप में प्रसिद्ध, पंजाब पर एक ऐसे व्यक्ति का शासन था, जिसके आदर्शों में धर्मनिरपेक्षता प्रधान थी। महाराजा रणजीत सिंह, जो कि 'शेर-ए-पंजाब' (पंजाब का शेर) के नाम से प्रसिद्द हैं, एक ऐसे प्रचंड राजा के रूप में जाने जाते थे, जिन्होंने विविधता और समानता, दोनों के आधार पर अपना शासन स्थापित किया था। उनका जन्म 1776 की सर्दियों में गुजरांवाला (अब पाकिस्तान में) में हुआ था। उनके माता-पिता सरदार महान सिंह सुकरचकिया और माई राज कौर थे। उनके बचपन के बारे में हम ज़्यादा नहीं जानते, सिवाय प्रसिद्ध 'चेचक' घटना के, जिसमें चेचक से पीड़ित लोगों की देखभाल करते हुए उन्होंने अपनी बाईं आँख की दृष्टि खो दी थी। आज तक, महाराजा रणजीत सिंह का केवल एक ही ऐसा चित्र (एमिली ईडन द्वारा निर्मित) है, जो उनके असली रूप के सबसे करीब बताया जाता है। अन्य चित्रकारियाँ जनश्रुति पर आधारित हैं।

Maharaja Ranjit Singh, Maharaja of Sikh Empire(1792-1801)

महाराजा रंजित सिंह, सिख साम्राज्य के महाराजा

Maharani Jind Kaur,  1817-1863
        (last wife of Maharaja Ranjit Singh and mother of Duleep Singh)

महारानी जिंद कौर, 1817-1863 (महाराजा रणजीत सिंह की आखिरी पत्नी और दलीप सिंह की माँ)

18वीं शताब्दी के दौरान 12 मिस्ल (एक सिख संप्रभु निर्वाचन क्षेत्र) थे और रणजीत सिंह के सत्ता में आने से पहले, उनके बुज़ुर्गों ने अपना स्वयं का एक मिस्ल, स्थापित किया था, जिसका नाम 'सुकरचकिया' था। मिस्ल का गठन बहादुर योद्धाओं और प्रशासकों ने किया था, जिन्होंने आधुनिक पंजाब और आसपास के राज्यों में भूमि के बड़े हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया था। रणजीत सिंह के पिता, सरदार महान सिंह उस समय सुकरचकिया मिस्ल के मुखिया थे। 1790 में अपने पिता की मृत्यु के बाद, रणजीत सिंह मिस्ल के नेता बने और 1795-96 में मेहताब कौर से शादी की। इस विवाह गठबंधन के परिणामस्वरूप, रानी सदा कौर, रणजीत सिंह की सास उनके परिवार का हिस्सा बन गईं। वह रणजीत सिंह की सलाहकार बनीं। इस समय के दौरान, सिंह और उनका मिस्ल समृद्ध हुआ। इसी समय के आसपास, पंजाब विभिन्न स्वतंत्र मिस्लों में विभाजित हो गया, जिसके कारण सत्ता में बड़े पैमाने पर गुटबाज़ी शुरू हुई। शांति और एकता लाने के लिए, रणजीत सिंह ने एकजुट शासन स्थापित करने का फ़ैसला लिया और इसकी ओर काम शुरू किया।

हालाँकि रणजीत सिंह ने कई शादियाँ की थी, लेकिन अपने आठ बेटों में से वे केवल दो को ही अपने सिंहासन का अधिकारपूर्ण उत्तराधिकारी मानते थे। पहले थे वारिस खड़क सिंह जो महारानी राज कौर के साथ उनकी दूसरी शादी से हुए थे। और सिंहासन के दूसरे और अंतिम वारिस थे, उनकी आखिरी पत्नी महारानी जिंद कौर से हुए उनके पुत्र, दलीप सिंह।

महाराजा दलीप सिंह

हमारी कहानी की शुरुआत, लाहौर और अमृतसर से होती है।

अहमद शाह दुर्रानी, जिसे अहमद शाह अब्दाली के नाम से भी जाना जाता है, दुर्रानी साम्राज्य के संस्थापक थे। ​​उन्होंने 1747-1772 तक अफ़गानिस्तान पर शासन किया और भारत पर आठ बार आक्रमण करने का प्रयास भी किया। 1762 में अपने छठे आक्रमण के दौरान, उन्होंने लाहौर और अमृतसर के हज़ारों लोगों को बेरहमी से मारा और कई पवित्र स्थलों और मंदिरों को नष्ट कर दिया। ऐसी ही एक जगह थी हरमंदर साहिब। दुर्रानी के हमलों को आज तक एक पुरानी पंजाबी कहावत के रूप में याद किया जाता है:

खात्ता-पित्ता लाहे दा, रेहंदा अहमद शाहे दा (आपने जो कुछ भी खाया वह आपका है, बाकी अहमद शाह ले जाएगा)।अहमद शाह दुर्रानी का पोता, शाह ज़मान 1783 में काबुल का राजा बना। उसने 1793, 1795 और 1796 में भारत पर आक्रमण करने का प्रयास किया। तीनों हमलों में विफल होने के बाद, उसने 1798 में चौथी बार भारत पर आक्रमण किया और लाहौर पर कब्ज़ा कर लिया। शाह ज़मान को अंततः हार का सामना करना पड़ा और वह अपने देश, अफ़ग़ानिस्तान वापस चला गया। शाह ज़मान के जाने के बाद, लाहौर शहर पर भंगी मिस्लके सरदारों ने फिर से कब्ज़ा कर लिया। आंतरिक संघर्षों ने प्रशासनिक स्तर पर कई विफलताओं को जन्म दिया जिसके परिणामस्वरूप, शहर और उसकी आबादी की सुरक्षा खस्ताहाल हो गयी। स्थिति का आकलन करते हुए, लाहौर के लोगों ने रणजीत सिंह को एक याचिका लिखी क्योंकि उन्होंने उनकी शान और उनके शासन के बारे में सुना था। पत्र पढ़ने के बाद, सिंह ने गुरमत्ता(एक सभा) को बुलाया और अपनी सास से एक संयुक्त हमले के लिए परामर्श किया क्योंकि वह कन्हैया मिस्लसे थी। इस प्रकार उन्होंने 16 जुलाई 1799 को लाहौर पर कब्ज़ाकर लिया। उन्होंने भंगियों के किले पर कब्ज़ा करके दसवें सिख गुरु, गुरु गोबिंद सिंह जी के नाम पर इसे 'गोबिंदगढ़' नाम दिया। उन्होंने ज़मज़मा तोप भी अपने कब्ज़े में ले ली, जो उस समय की एक अद्वितीय तोप थी। यह अब लाहौर, पाकिस्तान में है।

Ahmad Shah Durrani

अहमद शाह दुर्रानी

Zamzama Cannon (now in Lahore, Pakistan)

ज़मज़मा तोप (अब लाहौर, पाकिस्तान में)

साम्राज्य के सफल विस्तार के बाद, महाराजा रणजीत सिंह ने आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए हरमंदर साहिब का दौरा किया और अपनी भक्ति के प्रतीक के रूप में,उन्होंने गुरुद्वारा साहिब को सोने में आच्छादित करने की कसम खाई और यही कारण है कि आज परम पूजनीय हरमंदर साहिब गुरुद्वारा, 'स्वर्ण मंदिर' के नाम से भी जाना जाता है। दिलचस्प बात यह है कि गुरुद्वारा के पुनर्निर्माण के बारे में पता चलने पर, हैदराबाद के निज़ाम, आसफ़ जाह VII मीर उस्मान अली खान ने इसके लिए दान भी भेजा।

Maharaja Ranjit Singh at Golden Temple, Amritsar, India; listening to hymns from Guru Granth Sahib.

स्वर्ण मंदिर, अमृतसर, भारत में महाराजा रणजीत सिंह गुरु ग्रंथ साहिब के शबद सुनते हुए

शासन के दौरान एक महत्वपूर्ण मोड़ 1809 में अमृतसर की संधि के रूप में आया। इसे 'मिंटो-मेटकाफ़' संधि के रूप में भी जाना जाता है, जिसमें महाराजा रणजीत सिंह और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के चार्ल्स थियोफ़िलस मेटकाफ़ ने मित्रता का एक समझौता किया था। रणजीत सिंह सतलुज के समपक्ष राज्यों को अपने अधीन लाना चाहते थे और इस संधि से उन्हें फ़ायदा हुआ, क्योंकि इससे उन्हें कश्मीर और पेशावर जैसी जगहों को जीतने में सहायता मिली। दूसरी ओर अंग्रेज़ चाहते थे कि उनकी उत्तरी सीमा सुरक्षित हो, जिसे महाराजा रणजीत सिंह ने सुनिश्चित किया।

भव्य लाहौर दरबार

1801 में, रणजीत सिंह को बैसाखी के दिन महाराजा की उपाधि से सम्मानित किया गया था, जो उत्तर भारत में फ़सल कटने पर मनाया जाने वाला एक वार्षिक त्यौहार है। उन्होंने लाहौर से अपने साम्राज्य का विस्तार करने का फ़ैसला लिया, जो 1799 में उनकी राजधानी बना। रणजीत सिंह ने 1809 तक कांगड़ा, 1813 तक अटॉक और 1818 तक मुल्तान पर कब्ज़ा कर लिया था।उनके शासनकाल के दौरान, 'नानकशाही' सिक्कों को सोने और चांदी में ढाला गया था। महाराजा रणजीत सिंह ने इन सिक्कों पर विभिन्न सिख गुरुओं के नाम भी उकेरवाये थे। वे एक चतुर और कूटनीतिक नेता थे और उनका दरबार विभिन्न धर्मों के माननीयों से भरा हुआ था। महाराजा रणजीत सिंह अपने राज्य के भीतर और बाहर मौजूद विविधता से अवगत थे और उन्होंने महसूस किया था कि केवल विजय और विस्तार ही उन्हें एक संपूर्ण नेता नहीं बना पाएँगे; उन्हें लोगों को भी साथ लेकर चलने की आवश्यकता होगी।

Maharaja Ranjit Singh’s Throne

महाराजा रणजीत सिंह का सिंहासन

Court of Lahore

लाहौर का दरबार

युद्धों और लड़ाइयों के बीच, वे प्रसिद्ध कोहिनूर हीरे और तैमूर रूबी को हासिल करने में भी सफल हुए। अपनी युद्ध तकनीकों को अद्यतन रखने के लिए, महाराजा रणजीत सिंह ने जीन फ़्रांसुआ एलार्ड नामक एक फ़्रांसिसी को अपना सेना प्रमुख नियुक्त किया। अलार्ड को रणजीत सिंह की सेना के आधुनिकीकरण और फ़ौज-ए-खास नामक सिंह की एक विशेष रेजिमेंट की कमान सौंपी गई, जो अपनी निडरता के लिए प्रसिद्ध थी। एलार्ड ने इसे अपने सहयोगी जनरल वेंचुरा के साथ मिलकर पूरा किया, जो एक इतालवी थे।

Left: General Jean-François Allard

जनरल जीन फ़्रांसुआ एलार्ड

Right: General Jean-Baptiste Ventura

जनरल जीन-बैप्टिस्ट वेंचुरा

इतिहास रचने वाली विजय

महाराजा रणजीत सिंह को अपनी विरासत का एक बड़ा हिस्सा कश्मीर, हज़ारा, पेशावर और खैबर पख्तून्ख्वा पर विजय और उत्तर-पश्चिमी सीमा के सुदृढ़ीकरण से हासिल हुआ। उन्होंने 1819 में कश्मीर, 1820 में हज़ारा और 1834 में पेशावर और खैबर पख्तून्ख्वा पर विजय प्राप्त की।

कश्मीर उस समय जब्बार खान के शासन में था। कहा जाता है कि जब्बार खान के शासन में हो रही क्रूरता और पड़ोस में पठानों के खतरों के बारे में जानने के बाद, महाराजा ने कश्मीर पर विजय प्राप्त करने की तैयारी शुरू की।

Maharaja Ranjit Singh by Alfred de Dreux

महाराजा रणजीत सिंह अल्फ़्रेड डी ड्रेक्स द्वारा

Hari Singh Nalwa, Commander of Maharaja Ranjit Singh’s Army

महाराजा रणजीत सिंह की सेना के कमांडर हरि सिंह नलवा

शोपियाँ के मैदानी इलाकों में जब्बार खान के नेतृत्व में खालसा सेना का सामना पठान सेना से हुआ। महाराजा रणजीत सिंह विजयी हुए और उन्होंने जुलाई 1819 में श्रीनगर में प्रवेश किया। उन्हें कश्मीर की समृद्धि पर विशेष ध्यान देने के लिए जाना जाता है। प्रशासन में व्यवस्था की बहाली सुनिश्चित करने और लोगों की सहूलियतों और ज़रूरतों का ध्यान रखने के लिए, दीवान मोती राम को कश्मीर के शासक के रूप में नियुक्त किया गया था। दीवान की विफलताओं और प्रभावहीनता का आभास होने पर, उन्हें हटा दिया गया और उनके स्थान पर हरि सिंह नलवा को नियुक्त किया गया।

बाद में पेशावर के गवर्नर बने अपने कमांडर, जनरल हरि सिंह नलवा के साथ मिलकर रणजीत सिंह ने 1823 में पेशावर और खैबर पख्तून्ख्वा क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लिया। यह लड़ाई सिख साम्राज्य और ब्रिटिश भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इस कब्ज़े ने भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमाओं से दुश्मन के प्रवेश को रोका और सिख साम्राज्य को सिंधु के पश्चिम की ओर फैलाया। इस उपलब्धि के कारण कश्मीर से सिंधु-पार के ये सभी क्षेत्र द्वितीय आंग्ल-सिख युद्ध के बाद ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा बन गए। इसलिए महाराजा रणजीत सिंह के शानदार साम्राज्य और उनकी उपलब्धियों का अंतरराष्ट्रीय महत्व है।

एक युग का अंत

Samadhi of Maharaja Ranjit Singh (now in Lahore, Pakistan)

महाराजा रणजीत सिंह की समाधि (अब लाहौर, पाकिस्तान में)

महाराजा रणजीत सिंह का 27 जून 1839 को लाहौर के किले में निधन हो गया। उनकी राख को लाहौर, पाकिस्तान के प्रसिद्ध बादशाही मस्जिद के पास 'महाराजा रणजीत सिंह की समाधि' नामक स्मारक में रखा गया है। उनकी मृत्यु के बाद, सिख साम्राज्य और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी, प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध (1845-46) में व्यस्त हो गए, जिसके फलस्वरूप सिख साम्राज्य की हार हुई। युद्ध के प्रमुख परिणामों में से एक यह था कि सिख साम्राज्य ने अंग्रेजों के पक्ष में कश्मीर को खो दिया , जिन्होंने उसे एक अलग रियासत बना दिया। एक सिख कमांडर तेजा सिंह और कुछ अन्य लोगों को देशद्रोह के लिए जाना जाता है, जिसके कारण अंततः सिख साम्राज्य की हार हुई।महाराजा के साम्राज्य में विश्वासघात और गुटबाज़ी के प्रवेश और सरकार में ब्रिटिश हस्तक्षेप के कारण, सिख साम्राज्य द्वितीय आंग्ल-सिख युद्ध (1848-49) में फँस गया । 1849 में अंग्रेज़ों द्वारा पंजाब का विलय किया गया और लाहौर ब्रिटिश शासन के अधीन आ गया। रणजीत सिंह की सेना के एक कर्नल, अलेक्ज़ांडर गार्डनर इस संप्रभु साम्राज्य के पतन के साक्षी बने। उन्हें इसके बारे में लिखने के लिए जाना जाता है।

सिख साम्राज्य के अंतिम शासक महाराजा के सबसे छोटे पुत्र दलीप सिंह थे। वह केवल पाँच वर्ष के थे जब उनकी माँ जिंद कौर के राज प्रतिनिधित्व में उन्हें सिंहासन पर बैठा दिया गया था।

दलीप सिंह और उनकी माँ दोनों लाहौर में रहते थे। लड़ाई में हार के बाद, दलीप सिंह और उनकी माँ दोनों को 1848 में चुरनार निर्वासित कर दिया गया था। आखिरकार, दलीप सिंह को उनकी माँ से अलग कर दिया गया और इंग्लैंड में एक मिशनरी ने उनका पालन-पोषण किया। उन्होंने महारानी विक्टोरिया के दरबार में भाग लिया, जिनके बारे में कहा जाता है कि वे उनको बहुत मानती थीं।

एक आँख वाले राजा का साम्राज्य आधुनिक पंजाब, हिमाचल प्रदेश, कश्मीर, गिलगिट (अब पाकिस्तान में), लद्दाख, पेशावर और खैबर पख्तून्ख्वा (अब पाकिस्तान में) तक फैला हुआ था।

एक बार रणजीत सिंह के विदेश मंत्री और सलाहकार, फ़कीर अज़ीज़ुद्दीन से ब्रिटिश गवर्नर-जनरल जॉर्ज ईडन ने महाराजा की सिर्फ़ एक आँख होने के बारे में पूछा, जिसपर उनका जवाब था : 'महाराजा सूरज की तरह हैं और सूरज की केवल एक आँख होती है। उनकी केवल एक ही आँख की भव्यता और चमक इतनी है कि मैंने कभी उनकी दूसरी आँख को देखने की हिम्मत नहीं की।'