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सराईघाट का युद्ध

सराईघाट का युद्ध अहोम राजाओं के शासनकाल (1228 ई.-1826 ई.) के दौरान हुई सबसे उल्लेखनीय ऐतिहासिक घटनाओं में से एक माना जाता है। ब्रह्मपुत्र घाटी और उत्तर-पूर्वी क्षेत्र के इतिहास को आकार प्रदान करने में सहायक, यह युद्ध राजा राम सिंह (मिर्ज़ा राजा जय सिंह के पुत्र) के नेतृत्व वाली मुगल सेना और लचित बोरफुकन के नेतृत्व में अहोम साम्राज्य के बीच 1671 ई. में सराईघाट, गुवाहाटी, में लड़ा गया था। इस युद्ध को मुगलों द्वारा असम और उसके पड़ोसी क्षेत्रों में साम्राज्य विस्तार का अंतिम प्रमुख प्रयास माना जाता है।

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सराईघाट का युद्ध (उत्तरी गुवाहाटी के सराईघाट युद्ध स्मारक पार्क में पत्थर की प्लेट पर चित्रण)

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गढ़गाँव करेंग घर (अहोम शाही महल, गढ़गाँव)

17वीं शताब्दी के प्रारंभिक चरण में, मुगलों को ब्रह्मपुत्र घाटी का सामरिक महत्व समझ में आने लगा था। तब से, मुगलों और अहोमों ने कथित तौर पर लगभग सत्रह लड़ाइयाँ लड़ीं। 1639 ई. में, स्वर्गदेव प्रताप सिंह के शासनकाल के दौरान, मुगल फ़ौजदार अल्लाह यार खान और अहोम मुख्य सेनापति, मोमाई तमुली बोरबरुआ के बीच असुरार अली की संधि हुई थी। संधि के अनुसार, ब्रह्मपुत्र के उत्तर में बरनाडी नदी और दक्षिणी तट पर असुरार अली को मुगल साम्राज्य और अहोम साम्राज्य के बीच की सीमा के रूप निर्धारित किया गया था। अहोमों द्वारा असम से मुगलों को निकालने के निरंतर प्रयासों के बावजूद, बंगाल के मुगल सूबेदार, मीर झुमला, ने कामरूप पर कब्ज़ा कर लिया, और 1666 ई. में उनकी राजधानी, गढ़गाँव पर कब्ज़ा करके अहोम साम्राज्य को पराजित कर दिया।

मीर झुमला के आक्रमण के कारण घिलझरीघाट की संधि हुई। अहोमों के लिए अपमानजनक कही जाने वाली यह संधि 23 फरवरी 1663 ई. को हुई थी। अहोम स्वर्गदेव जयध्वज सिंह, मुगल सम्राट औरंगज़ेब के करदाता बन गए। संधि के अनुसार, स्वर्गदेव जयध्वज सिंह मुगलों को भारी मात्रा में संसाधन मुहैया कराने के साथ-साथ गुवाहाटी से मानस नदी तक का क्षेत्र सौंपने के लिए सहमत हुए।

1663 ई. में, जयध्वज सिंह के उत्तराधिकारी के रूप में स्वर्गदेव चक्रध्वज सिंह ने लचित बोरफुकन को नया मुख्य सेनापति नियुक्त किया। इससे पहले, लचित बोरफुकन ने शाही घोड़ों के अस्तबल के निरीक्षक, और शाही निजी सुरक्षाकर्मियों के अधीक्षक, जैसे अन्य महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया था। स्वर्गदेव चक्रध्वज सिंह, जो असम से मुगल सेना को हटाने पर अड़े हुए थे, ने लचित बोरफुकन को मुगलों से लड़ने के लिए अपनी सेना संगठित करने का निर्देश दिया।

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लचित बोरफुकन और उनकी सेना की प्रतिमाएँ

लचित ने 1667 ई. की गर्मियों तक अपनी तैयारियाँ पूरी कर लीं, और उनकी सेना ने गुवाहाटी पर पुनः अधिकार प्राप्त कर लिया। सम्राट औरंगज़ेब ने, गुवाहाटी में हार की जानकारी मिलने के बाद, राजा राम सिंह के नेतृत्व में एक सैन्य दल भेजा। असमिया जासूसों ने लचित बोरफुकन को दिल्ली से राजा राम सिंह के प्रस्थान की खबर तेजी से पहुँचाई। मुगल सेना के संख्यात्मक और तकनीकी संसाधन से अवगत, लचित बोरफुकन ने गुवाहाटी की रणनीतिक स्थिति को समझने और इसे युद्ध क्षेत्र के रूप में विकसित करने के लिए विस्तृत सर्वेक्षण शुरू कर दिया।

ब्रह्मपुत्र नदी के तट पर स्थित और चारों ओर से पहाड़ियों से घिरी हुई गुवाहाटी की अवस्थिति, इसे बाहरी हमलों से सुरक्षित रखती है। बोरफुकन को पता था कि मुगलों को नौसैन्य युद्ध के विषय में कोई अनुभव नहीं था और वे इसी तथ्य का लाभ उठाना चाहते थे। उन्होंने अंधारुबली नामक विशेष क्षेत्र की पहचान की, जो दक्षिणी किनारे पर नीलाचल और इताखुली पहाड़ी को और उत्तरी किनारे पर अश्वक्रांता पहाड़ी को जोड़ता है। उन्होंने लगा कि यह क्षेत्र मुगलों से लड़ने के लिए रणनीतिक रूप से सबसे उचित स्थान होगा। ब्रह्मपुत्र नदी का दक्षिणी तट लचित बोरफुकन के निजी नेतृत्व में था, जबकि अतन बुरहागोहेन ने उत्तरी तट से कमान संभाली थी। राजा ने नदी के दोनों किनारों पर आवश्यक किलेबंदी के लिए अतन बुरहागोहेन को नियुक्त किया था।

1669 ई. में राजा राम सिंह की सेना रंगमती की सीमावर्ती सैन्य चौकी तक पहुँच गई। अहोम सेना के सभी सेनापति गुवाहाटी में मिले और उन्होंने कामख्या मंदिर में प्रार्थना की। प्रत्येक सेनापति को सैनिकों की टुकड़ी और आवश्यक मात्रा में हथियार, और गोला-बारूद प्रदान किया गया था। ऐसा कहा जाता है कि राम सिंह ने लचित बोरफुकन के आत्मविश्वास को तोड़ने के लिए, एक संदेशवाहक के जरिए पोस्ते के दाने से भरे थैले के साथ एक संदेश भेजा, जिसमें लिखा था, “बोरफुकन को गुवाहाटी खाली कर देनी चाहिए। हमारी सेना इस थैले में भरे पोस्ते के दाने की तरह अनगिनत है।“ इसके जबाव में, बोरफुकन ने रेत से भरी एक नलिका और एक संदेश भेजा, जिसमें लिखा था, “अगर पोस्ते के दानों को पीस दिया जाए, तो एक महीन चूर्ण बन जाएगा। हमारी सेना इस नलिका में भेजी गई रेत की तरह असंख्य और अविभाज्य है।"

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लचित बोरफुकन और उनकी सेना की प्रतिमाएँ

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सराईघाट के युद्ध का मानचित्र

1670 ई. में, चक्रध्वज सिंह की मृत्यु के बाद स्वर्गदेव उदयादित्य सिंह राजगद्दी पर बैठे। 1671 ई. में, राजा राम सिंह के नेतृत्व में मुगल सेना, नौसैनिक बेड़े के साथ ब्रह्मपुत्र नदी के मार्ग से गुवाहाटी पहुँची। अहोम सेना कई रणनीतियों की मदद से गुवाहाटी के युद्ध क्षेत्र में मुगल सेना को आकर्षित करने में कामयाब रही। जैसे ही मुगल अंधारुबली पर उतरने वाले थे, अहोम सेना के पैदल सिपाहियों और नौसेनिकों को मुगलों पर आक्रमण करने का आदेश मिला। रोगग्रस्त होने के बावजूद, लचित बोरफुकन इताखुली बुर्ज से नौसेना युद्ध क्षेत्र की ओर बढ़े और अपनी सेना का बहादुरी से नेतृत्व किया। लचित बोरफुकन के आने से अहोम सेना का साहस बढ़ गया और पूरा क्षेत्र शीघ्र ही अहोम सैनिकों और युद्धपोतों से भर गया। वे अप्रतिम साहस और दक्ष रणनीतियों के साथ लड़े और उन्होंने सराईघाट के पास मुगलों को पराजित किया। मुगल सेना को गुवाहाटी से पीछे हटना पड़ा। अहोम सेना ने मुगल सेना का मानस नदी तक पीछा किया, जो अहोम साम्राज्य की पश्चिमी सीमा पर स्थित थी। ऐतिहासिक सराईघाट क्षेत्र में वर्तमान गुवाहाटी का पांडु घाट, अभयपुर, सादिलापुर, और जलुकबरी के कुछ हिस्से शामिल हैं।

सराईघाट का युद्ध एक ऐतिहासिक घटना थी, जो अहोम राजाओं के शासनकाल में घटी थी, जिन्होनें इस क्षेत्र पर लगभग 600 वर्षों तक निरंतर शासन किया था। अहोम सेनापति लचित बोरफुकन, जिन्होंने मुगलों को परास्त किया और मुगल सेनाओं द्वारा कब्ज़े में लिए गए क्षेत्रों को पुनः प्राप्त किया, के असाधारण नेतृत्व और सैन्य बुद्धिमत्ता की आज भी सराहना की जाती है। भले ही सराईघाट का युद्ध, अहोम-मुगल संघर्ष का निर्णायक युद्ध था, परंतु यह आखिरी युद्ध नहीं था। 1682 ई. में, अहोम स्वर्गदेव गदाधर सिंह के शासनकाल में इताखुली का युद्ध इन दोनों सेनाओं के बीच लड़ा गया, और मुगलों को हमेशा के लिए असम से निष्कासित कर दिया गया।

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सराईघाट का युद्ध दर्शाने वाली प्रतिमा