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तवांग मठ

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तवांग मठ। छवि स्रोत : विकिमीडिया कॉमन्स

उगते सूरज की धरती में, पृष्ठभूमि में हिमालय की चोटियों सहित, तवांग, पश्चिमी अरुणाचल प्रदेश में स्थित है। यह उत्तर में तिब्बत और दक्षिण-पश्चिम में भूटान की सीमाओं से घिरा हुआ है। इसका नाम तवांग, ‘ त’ अर्थात् ‘घोड़ा’ और ‘वांग’ अर्थात् ‘चुना गया’ से बना है, जो इस अनुश्रुति पर आधारित है कि मठ के लिए स्थान कैसे तय किया गया था। लगभग 3000 मीटर की ऊँचाई पर स्थित, तवांग मठ, तवांग शहर से लगभग 2 किमी की दूरी पर स्थित है, और यह एशिया का सबसे पुराना और दूसरा सबसे बड़ा मठ है। यह चयनित स्थल इसके पूर्व को छोड़कर बाकी तीन ओर पहाड़ों से घिरा हुआ है, क्योंकि, घरेलू जीवन से अलग, मठ-संबंधी गतिविधियों के लिए आदर्श वातावरण बनाने के लिए इस स्थान को उपयुक्त माना गया। यह स्थान वास्तव में मूल रूप से तिब्बत, अरुणाचल प्रदेश, और भूटान के व्यापारियों के लिए एक मिलने का स्थान था ।

इतिहास


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विशाल बुद्ध प्रतिमा के चरणों में एक भिक्षु, तवांग। छवि स्रोत : अनस्प्लैश

गदेन नंग्याल ल्हात्से या तवांग मठ का निर्माण लगभग 1680 ईस्वी में, 5वें दलाई लामा, परम पूज्य न्गवांग लोबसंग ग्यात्सो के समय में हुआ था। मठ जिस गुलुंग संप्रदाय से संबद्ध है, उसे प्रथम दलाई लामा के एक शिष्य तिब्बत के लामा थांग्स्टन ग्याल्पो द्वारा इस क्षेत्र में प्रारंभ किया गया था। किंवदंती है कि वह 15वीं शताब्दी में तवांग पहुँचे और वहाँ एक गुफ़ा में ध्यान किया। इस दौरान, वे बेरखर तारगे नामक एक स्थानीय ग्रामीण से मिले और तारगे से कहा कि यदि वह उनके भिक्षापात्र को सुरक्षित रखेगा तो वह सात गुणवान पुत्रों का पिता बनेगा। बेरखर तारगे ने उनकी आज्ञा का पालन किया और लामा ने अपना वायदा निभाया। तारगे के सात पुत्रों में से दूसरे और सातवें पुत्र तिब्बत में भिक्षु बन गए। घर लौटने पर उन्होंने गुलुंग्पा के लिए कई गोम्पा बनाए।

शताब्दियों बाद उन भाईयों में से एक के घर में मेरा लामा लोद्रे ग्यात्सो या मेरा लामा का जन्म हुआ, जो 5वें दलाई लामा के प्रमुख शिष्य बने। मान्यता है कि ये बेरखर तारगे के दूसरे पुत्र के पुनर्जन्म के रूप में धरती पर आए थे और उन्होंने ही तवांग मठ की नींव रखी थी। 5वें दलाई लामा ने उन्हें एक सूत का गोला दिया ओर उनसे कहा कि प्रस्तावित मठ का क्षेत्र उतना बड़ा हो जितना यह धागा घेर सके। जैसा कि दलाई लामा ने निर्देश दिया था, प्रत्येक गाँव ने भी बाहरी दीवार का एक हिस्सा और भिक्षुओं के लिए एक आवास बनाया।

तवांग, 6ठें दलाई लामा, रेचन शांग्यांग ग्यात्सो (1683-1707) का जन्मस्थान भी है, जिनका जन्म उर्गेलिंग में हुआ था। 6ठें दलाई लामा ने अपनी तिब्बत की यात्रा पर निकलने से पहले अपनी छड़ी को रोपा और भविष्यवाणी की कि जब इसके वृ़क्ष की तीन डालियाँ एक बराबर की ऊँचाई की हो जाएँगी तो वे अपने देश लौट आएँगे। ऐसी मान्यता है कि यह भविष्यवाणी तब पूरी हुई जब 14वें दलाई लामा, 1959 में तिब्बत से भागते वक्त, पहली बार तवांग पहुँचे।

लोग


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तवांग मठ में युवा भिक्षु। छवि स्रोत : अनस्प्लैश

तवांग अनूठा है, और इसकी संस्कृति अरुणाचल प्रदेश के बाकी हिस्सों से बहुत भिन्न है। तवांग और पश्चिमी कामेंग ज़िलों की जनजातियाँ शुरू में ‘बाॅन’ और जीवात्मवाद में विश्वास करती थीं, लेकिन आज मुख्यतः तिब्बती बौद्ध धर्म को मानती हैं। जैसे-जैसे इस क्षेत्र में बौद्ध धर्म की जड़ें मज़बूत होती गईं, वर्तमान तवांग नगर धीरे-धेरे मठ के आसपास विकसित होता गया। तेवांग की आबादी में मुख्य रूप से मोनपाओं से बनी है, और गुलुंग संप्रदाय के अधिकांश अनुयायी मोनपा और शेरडुकपेन जनजाति के हैं। मोनपा का अर्थ है ‘मोन की भूमि से’ या कहा जा सकता है ‘‘तिब्बत के दक्षिण में रहने वाले लोग’’। उनकी भाषा तिब्बती-बर्मन वर्ग की है और वे ब्राह्मी लिपि का प्रयोग करते हैं। प्रथागत कानून के अनुसार यदि एक बौद्ध परिवार में तीन पुत्र हैं तो बीच वाले पुत्र का कर्तव्य भिक्षु बनना होगा। इसलिए तवांग मठ में अधिकांश भिक्षु इन परिवारों के बीच के पुत्र हैं।

मठ के रख-रखाव के लिए गाँवों को एक शुल्क देना होता है, जो वर्ष में दो बार दिया जाता है और इसे ‘ख्रेई’ कहा जाता है। चूँकि मोनपा एक कृषक समुदाय है, तो इनके द्वारा प्रारंभ में अनाज, मक्खन, तथा अन्य कृषि व पशु उत्पादों के रूप में भुगतान किया जाता था, जिन्हें ‘ब्रेस’ में नापा जाता था। इसके अलावा एक ऐसी भी व्यवस्था है जिसमें मठ की अपनी भूमि पर जन साधारण द्वारा खेती की जाती है, और इससे होने वाली उपज को मठ और परिवार के बीच में बराबर से बाँटा जाता हैै। यह वहाँ के लोगों और मठ के बीच साझे संबंध को दर्शाता है, जिसके तहत मठ एक धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक महत्व के केंद्र के तौर पर कार्य करता है। मठ एक सांस्कृतिक केंद्र भी है जो थंगका चित्रकला, लकड़ी की नक्कशी, तथा ‘मोनशुग’ कागज़ बनाने जैसे शिल्प कौशल को बढ़ावा देता है। ‘मोनशुग’ शब्द में ‘मोन’ मोनपा से आया है और ‘शुग’ का अर्थ है काग़ज़, और सरल शब्दों में कहें तो इसका अर्थ है ‘मोनपाओं का काग़ज़’

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पारंपरिक परिधान में एक मोनपा महिला। छवि स्रोत : अनस्प्लैश

वास्तुशिल्प


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तवांग मठ। छवि स्रोत : विकिमीडिया कॉमन्स

मठ में प्रवेश के लिए एक ‘काकलिंग’ या एक रंग-बिरंगा द्वार है। तवांग मठ में सभा कक्ष, संग्रहालय, पुस्तकालय, भिक्षुओं के लिए विद्यालय, और भिक्षुओं के आवास स्थान हैं। यह मठ तवांग चू घाटी की रखवाली करने वाले किले की तरह खड़ा है। इसके लिए इस उपयुक्त स्थान के चयन को देखकर ऐसा लगता है जैसे इसके संस्थापकों को अन्य मतावलंबियों से निरंतर खतरों का सामना करना पड़ता रहा हो। पुराने समय में भिक्षुओं को युद्ध के लिए भी प्रशिक्षित किया जाता था, और इस दृष्टि से यह मठ और इसका स्थापत्य एक रणनीतिक स्थल और उत्कृष्ट सैन्य चौकी की तरह भी रहा है।

मठ की पीली छतें तवांग की पहाड़ियों की हरियाली के साथ मिलकर एक आकर्षक दृश्य प्रस्तुत करती हैं। इसकी शताब्दियों पुरानी दीवारों को, बाँस या लकड़ी को डालने के लिए छोटे छेद छोड़ते हुए, पत्थर की चिनाई से कुशलतापूर्वक बनाया गया है। इस प्रका का निर्माण यह सुनिश्चित करता है कि यह संरचना क्षेत्र के भूकंपीय खतरों से सुरक्षित रह सके।

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तवांग मठ के ‘दुखांग’ या सभा कक्ष का बाहरी दृश्य। छवि स्रोत : विकिमीडिया कॉमन्स

‘दुखांग’ इस मठ की सबसे महत्वपूर्ण दो मंज़िली इमारत है, जिसका मुख्य सभा कक्ष पूरे भूतल पर स्थित है। इसकी पहली मंज़िल पर ‘लाबरंग’ या रिन्पोचे (मठाध्यक्ष) का निवास स्थान है, और दूसरी मंज़िल का आवास दलाई लामा के लिए आरक्षित है। ऐसा माना जाता है कि ‘दुखांग’ का निचला हिस्सा तवांग और पश्चिमी कामेंग जिलों के ग्रामीणों ने बनाया था और अभी भी इसका रख-रखाव उनके द्वारा ही किया जाता है। 5वें दलाई लामा के निर्देशानुसार अन्य ग्रामीणों ने भी इसमें योगदान दिया था।

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तवांग मठ के संगहालय की पांडुलिपि। छवि स्रोत : विकिमीडिया काॅमन्स

संग्रहालय का उद्घाटन 14वें दलाई लामा ने किया था और इसमें ऐसी वस्तुएँ हैं जो इस मठ के इतिहास, विश्वास, और संस्कृति को उजागर करती हैं। इसमें एक मानव खोपड़ी, एक हाथी दाँत, आनुष्ठानिक मुखौटे, और सोने में लिखी ‘प्रज्ञापारमिता सूत्र’ की प्रति, जैसी कई आश्चर्यजनक वस्तुएँ हैं। ऐसा विश्वास है कि ये सब उतनी ही पुरानी हैं जितना पुराना बौद्ध धर्म है। यहाँ एक अन्य दिलचस्प प्राचीन शिल्प कृति है - 19वीं सदी का एक फ़र्श-तख़्त जिसपर एक भिक्षु के पदचिन्ह अंकित हैं, जो प्रतिदिन एक ही स्थिति में प्रार्थना करते थे। एक अन्य चित्ताकर्षक वस्तु है 14वें दलाई लामा की मढ़ी हुई तस्वीर, जो 1959 में दिरांग में उस समय ली गई थी जब वे तिब्बत से भागे थे।

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तवांग मठ पुस्तकालय का आंतरिक भाग। छवि स्रोत : विकिमीडिया काॅमन्स

मठ का पुस्तकालय धार्मिक अनुसंधान और ज्ञान प्रसार का केंद्र है। इस प्राचीन ‘पार खांग’ (पुस्तकालय) का जीर्णोद्धार हुआ और 2009 में 14वें दलाई लामा ने इसका उद्घाटन किया। इसमें ‘कंजूर’ और ‘तंजूर’ (तिब्बती बौद्ध ग्रंथ-संग्रह), और ‘पेच’ नामक धार्मिक पांडुलिपियों का समृद्ध संग्रह है। ऐसा विश्वास है कि तवांग मठ में 1000 से अधिक अमूल्य पांडुलिपियाँ, छायाचित्र (प्रिंट), और डिजिटल संग्रह हैं। ये पांडुलिपियाँ ताड़ के पत्तों, भोजपत्रों, और कागज़ों पर हैं, जिन्हें स्थानीय और अंतर्राष्ट्रीय निकायों द्वारा दान और उपहार के रूप में दिया गया था। इनमें धर्म और दर्शन, कला, इतिहास, संस्कृति, ‘आमची’ (तिब्बती चिकित्सा पद्धति), विज्ञान और प्रौद्योगिकी से संबंधित विषयों से जुड़ी सामग्री है। पुस्तकालय का प्रबंधन धार्मिक, स्थानीय, और सरकारी निकायों द्वारा किया जाता है और इसके संचालन का कार्य एक विशिष्ट पुस्तकालय समिति के हाथ में है।

धर्म और दर्शन


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तवांग मठ के ‘दुखांग’ या सभा कक्ष का आंतरिक भाग। छवि स्रोत : विकिमीडिया काॅमन्स

तवांग मठ गुलुंग पंथ से संबंधित है, जो वज्रयान तिब्बती बौद्धधर्म के चार संप्रदायों में से एक है। यह संप्रदाय दलाई लामा को अपना आध्यात्मिक नेता मानता है। वेदी के पास संप्रदाय के संस्थापक जे चोंखापा की एक मूर्ति खड़ी है, और उनकी दोनों ओर उनके दो प्रमुख शिष्यों, खेद्रुब्जे और ग्यात्सब्जे, की मूर्तियाँ हैं।

तवांग मठ की मुख्य मूर्ति, पद्मासन में बैठी भगवान बुद्ध की 28 फ़ीट ऊँची स्वर्ण प्रतिमा है, जो सभा कक्ष का केंद्र बिंदु है। उनका बायाँ हाथ भूमिस्पर्श मुद्रा में है, जो उस क्षण का प्रतीक है जब बुद्ध ने ज्ञान प्राप्त किया था और पृथ्वी की देवी को मार (प्रलोभन) पर उनकी विजय का साक्षी बनाने के लिए बुलाया था। अपने दाहिने हाथ में उन्होंने भिक्षा पात्र धारण किया हुआ है। ऐसी मान्यता है कि यदि कोई ऊपरी मंज़िल से एक सिक्का फेंके और यह पात्र के अंदर गिरे तो उसकी इच्छा पूरी हो जाती है।

गुलुंग संप्रदाय को मानने वाले बौद्धों का विश्वास है कि हम बुद्ध युग में रह रहे हैं, क्योंकि भगवान बुद्ध ने भविष्यवाणी की थी उनकी शिक्षाएँ 5000 वर्षों तक कायम रहेंगी, जिसके बाद 8वें बोधिसत्व, मैत्रेय बुद्ध, का युग शुरू हो जाएगा। यह विश्वास सभा कक्ष में रखी 8 बोधिसत्वों की मूर्तियों से प्रकट होता है।

बौद्ध दर्शन की पुनर्जन्म की अवधारणा, सजग सचेतनता के अभ्यास को मानती है। मोनपाओं के परिश्रमी और उदार स्वभाव का श्रेय इस बौद्ध शिक्षा को भी दिया जाता है, जो साधारण जीवन जीने पर जोर देती है। यह हमें हमारे कार्यों के सूक्ष्मतम परिणामों के बारे में सजग रहना सिखाती है। यह सोच, यहाँ के लोगों द्वारा पशुओं के बजाय उनके उत्पादों को बलि चढ़ाने की परंपरा में भी परिलक्षित होती है।

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5वें दलाई लामा द्वारा दिया गया उपहार, पाल्डेन ल्हामो का थंगका। छवि स्रोत : विकिमीडिया काॅमन्स

कला और जीवित परंपराएँ


तवांग मठ के विभिन्न स्थानों पर देवी तारा, अवलोकितेश्वर, मंजुुश्री, तथा विभिन्न डाकिनियों व योगिनियों के अति सुंदर भित्ति चित्र और थंगके सुशोभित हैं। दुक्पा से गुलुंगपा का बचाव करने के लिए कृतज्ञता स्वरूप मंगोल सेनापति, सोक्पो जोमखर का एक सुंदर भित्ति चित्र भी यहाँ बनाया गया है। ऐसा माना जाता है कि उन्होंने ही मठ को कंजूर ग्रंथ दान किए थे ।

‘दुखांग’ के खंभे प्रार्थना के झंडों से ढके हुए हैं, और यहाँ रंग-बिरंगे बैनर और थांगके भी बहुतायत में लटके हुए हैं। इस तरह का थंगका दलाई लामा की रक्षा करने वाली, देवी पाल्डेन ल्हामो या श्री देवी का है, जिसे 5वें दलाई लामा ने मठ को उसके प्रतिष्ठापन के समय उपहार में दिया था। दलाई लामा के लिए आरक्षित सिंहासन के साथ, आज भी यह अनमोल उपहार ‘दुखांग’ में लटका हुआ है।

त्योहारों के दौरान मठ को सैकड़ों मक्कखन के दियों की रौशनी से सजाया जाता है। जनवरी के महीने में चंद्र कैलेंडर के अनुसार तवांग मठ में वार्षिक तोरग्या त्योहार आयोजित किया जाता है। इसकी तैयारी में, यहाँ के भिक्षु एक माह से अधिक समय तक मुखौटे वाले ‘चाम लैंग’ नृत्य का अभ्यास करते हैं, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि मठ के इस नृत्य से बुरी आत्माएँ दूर भाग जाती हैं। अपने-अपने पद के अनुसार अपने संप्रदाय की पीली टोपी पहने हुए और ‘डुंगचेन’ यानि तुरही बजाते हुए भिक्षुाओं का जुलूस इस त्योहार का एक अभिन्न अंग है। जुलूस के अंत में एक बुराई का प्रतीक, ‘तोरमा’ या पुतला ले जाया जाता है और फिर संगीत और नृत्य के बीच उसे जलाया जाता है। यह त्योहार के ‘बाॅन’ प्रभाव को भी दर्शाता है, एक ऐसा धर्म जो बौद्ध धर्म की शुरुआत से पहले मोनपाओं द्वारा माना जाता था। तीसरे दिन, त्योहार ‘त्से चाँग’ (पारंपरिक बियर) पीने के साथ आनंद मनाते हुए समाप्त होता है। हर तीसरे साल, इस त्योहार को बड़े पैमाने पर मनाया जाता है, जिसे ‘डुंग्युर तोरग्या’ कहा जाता है। ‘डुुंग्युर’ का अर्थ है 10 करोड़ क्योंकि त्योहार के दौरान अवलोकितेश्वर के मंत्र का 10 करोड़ बार जाप किया जाता है। ‘डुंग्युर तोरग्या’ के दौरान मैत्रेय बुद्ध की मूर्ति को मठ के चारों ओर घुमाया जाता है।

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तोरग्या मनाता हुआ एक मोनपा लड़का, मोमांग गोम्पा, तवांग। छवि स्रोत : तेनज़िन फैंटॉक

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तवांग मठ में युवा भिक्षु। छवि स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स

मठ में जीवन


मठ के भिक्षुओं से यह अपेक्षा की जाती है कि वे मठ की स्थापना के समय 5वें दलाई लामा द्वारा स्थापित किए गए ‘चाई’ और ‘चेबरमना’ के अनुसार मठ की आचार संहिता का पालन करें। उन्हें लाल वस्त्र पहनाया जाता है, जो उनकी निम्न सामाजिक स्थिति को दर्शाता है। एक भिक्षु का दिन सुबह 4 बजे सूर्योदय से पहले ‘रिन्पोचे’ की अगुवाई में प्रार्थना के साथ शुरू होता है, जिसके बाद नाश्ता, और फिर बौद्ध दर्शन और तिब्बती भाषा की शिक्षा होती है। भिक्षुओं को रेत मंडल बनाना भी सिखाया जाता है तथा उन्हें मोम और मक्खन की मूर्तियाँ बनाने का काम सौंपा जाता है। ये ऐसी वस्तुएँ हैं जो पारंपरिक समारोहों के लिए महत्वपूर्ण हैं। यहाँ के भिक्षु, भक्तों के लिए परामर्शदाताओं के तौर पर भी काम करते हैं, और उनके कहने पर अनुष्ठान भी करते हैं। इस तरह मठ और उसके लोगों के बीच मज़बूत संबंध स्थापित होते हैं।

एक छोटे लड़के को 6 वर्ष की आयु में ही भिक्षु के तौर पर दीक्षित किया जा सकता है। भिक्षु बनने के लिए, सिवाय भगवान बुद्ध की शिक्षाओं का पालन करने के अतिरिक्त, अधिकतम आयु सीमा या सामाजिक और धार्मिक संबद्धता जैसी कोई अन्य अनिवार्यताएँ नहीं हैं।

तवांग मठ से 17 गोम्पा संबद्ध हैं और प्रत्येक की अध्यक्षता एक भिक्षु के द्वारा की जाती है, जिनका कार्यकाल 3 वर्ष का होता है। इससे दो ‘एनी गोम्पा’ या भिक्षुणियों के निवास भी संबद्ध हैं। मेरा लामा की एक बहन थी जो भिक्षुणी थी। चूँकि एक स्त्री मठ में निवास नहीं कर सकती थी, इसलिए उसके लिए एक भिक्षुणी मठ की स्थापना की गई, जिसे ‘ग्यांगोंग एनी गोम्पा’ के नाम से जाना जाता है। ‘ग्यांगोंग एनी गोम्पा’ अरुणाचल प्रदेश के अन्य भिक्षुणी विहारों से एक मायने में अलग है, क्योंकि औरों की तरह यह आम लोगों द्वारा किए गए दान पर निर्भर नहीं हैं, बल्कि यह मठ द्वारा समर्थित है। एक भिक्षुणी के कर्तव्यों में मठ के छोटे-मोटे काम करना शामिल है।

तवांग मठ का धर्म, दर्शन, संस्कृति, विरासत, और वास्तुशिल्प इसके निवासियों तथा इसे मानने वालों की समुत्थानशक्ति का साक्षी है। आज की दुनिया में जहाँ समरूप होने पर लगातार ज़ोर दिया जा रहा है, तवांग मठ एक आद्वितीय और आत्मनिर्भर स्थान है। एक संसार के भीतर एक और संसार, यह मठ पश्चिमी अरुणाचल प्रदेश के नीले क्षितिज का एक निर्मल विस्तार है, और वास्तव में अपने नाम के अनुरूप ‘‘एक निरभ्र रात्रि में दिव्य स्वर्ग’’ है।

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विशालकाय बुद्ध, तवांग। छवि स्रोत : अनस्प्लैश