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कंचनजंगा राष्‍ट्रीय उद्यान

उत्तर भारत में हिमालय पर्वत शृंखला (सिक्किम राज्य) के केंद्र में स्थित, कंचनजंगा राष्‍ट्रीय उद्यान में प्राचीन वनों से ढके मैदानों, घाटियों, झीलों, हिमनदों और बर्फ़ से ढके भव्य पहाड़ों की एक अनूठी विविधता शामिल है। इसमें दुनिया का तीसरा सबसे ऊँचा पर्वत, कंचनजंगा पर्वत भी शामिल है। इस पर्वत के साथ पौराणिक कहानियाँ और बड़ी संख्या में प्राकृतिक तत्व (गुफाएँ, नदियाँ, झीलें आदि) जुड़े हुए हैं, जिनकी सिक्किम के स्‍थानीय लोग पूजा करते हैं। इन कहानियों और प्रथाओं के पवित्र अर्थों को, बौद्ध मान्यताओं के साथ एकीकृत किया गया है, जो कि सिक्किम की पहचान का आधार हैं।

उत्‍कृष्‍ट सार्वभौमिक मूल्य
संक्षिप्‍त संश्लेषण


उत्तर भारत के सिक्किम राज्य में स्थित कंचनजंगा राष्‍ट्रीय उद्यान (केएनपी), विश्व के सर्वाधिक ऊँचाई पर स्थित संरक्षित क्षेत्रों में से एक है। इस उद्यान में केवल 1,78,400 हेक्टेयर के क्षेत्र में, 7 किमी (1,220 मीटर से 8,586 मीटर) का एक असाधारण ऊर्ध्वाधर फैलाव है, जिसमें दुनिया की तीसरी सबसे ऊँची चोटी, कंचनजंगा सहित तराई, अतिप्रवण-पार्श्‍वी घाटियों और बर्फ़ से ढके भव्य पहाड़ों की अनूठी विविधता शामिल है। इसके साथ-साथ यहाँ 26 किमी लंबे ज़ेमू हिमानी सहित अनेक झीलें, हिमनद और उच्‍च उन्‍नतांश वाले बंजर क्षेत्र भी शामिल हैं।
यह परिसंपत्ति, हिमालय वैश्विक जैव विविधता तप्त स्थल के भीतर आती है और उपोष्णकटिबंधीय से उच्‍च पर्वतीय पारिस्थितिक तंत्रों तक की एक अद्वितीय शृंखला को प्रदर्शित करती है। यहाँ पर हिमालय पर्वत सर्वाधिक सँकरे हैं, जिसके कारण यहाँ का भू-भाग बहुत खड़ा है, जो, इस स्थल को चिह्नित करने वाले विभिन्न पर्यावरणीय क्षेत्रों के बीच के अंतर को बढ़ाता है। यह उद्यान, वैश्विक जैव विविधता संरक्षण की दृष्टि से महत्वपूर्ण, एक पर्वत शृंखला के भीतर स्थित है और सिक्किम राज्य के 25% हिस्से को आच्‍छादित करता है, जिसे भारत की सबसे महत्वपूर्ण जैव विविधता सघनताओं में से एक होने का गौरव हासिल है। यह परिसंपत्ति भारी संख्या में स्थानिक, दुर्लभ और संकटग्रस्त पेड़-पौधों एवं पशुओं की प्रजातियों का प्राकृतिक आवास है। यहाँ मध्य/उच्च एशियाई पहाड़ों में अब तक दर्ज की गई, पौधों और स्तनपायी प्रजातियों की सबसे अधिक संख्या मौजूद है और यहाँ भारी संख्‍या में पक्षियों की प्रजातियाँ भी पाई जाती हैं।


कंचनजंगा राष्‍ट्रीय उद्यान की भव्यता निर्विवाद है। कंजनजंगा पुंजक या मैसिफ़, अन्य चोटियाँ तथा इसके परिदृश्य की विशेषताएँ, अनेक संस्कृतियों और धर्मों में पूजनीय हैं। असामान्‍य रूप से ऊँचाई तक फैली वृक्षविकास-रेखा (टिम्बरलाइन) तथा अक्षुण्ण पुराने जंगलों से ढके हुए बेहद ऊँचे और ऊबड़-खाबड़ पहाड़ों का संयोजन, इसके असाधारण परिदृश्य सौंदर्य में और वृद्धि करता है।
कंचनजंगा पर्वत एवं इस परिसंपत्ति के भीतर मौजूद अनेक प्राकृतिक विशेषताएँ, साथ ही उनका व्यापक विन्‍यास, गहरे सांस्कृतिक अर्थों और पवित्र महत्व से संपन्न हैं, जो कि कंचनजंगा की बहुस्तरीय स्‍थलाकृति को एक विशेष स्‍वरूप प्रदान करते हैं। यह बौद्ध (बेयूल) और लेपचा लोगों के लिए, एक छिपे हुए स्थान ‘मेयल लिआंग’ के रूप में पवित्र है, जो कि सिक्किम की पहचान और उसकी एकता के आधार का गठन करते हुए, विभिन्न धार्मिक परंपराओं और जातीय विभिन्नताओं के बीच सह-अस्तित्व और विनिमय के एक अद्वितीय उदाहरण को निरूपित करता है। मिथकों, कहानियों, उल्लेखनीय घटनाओं के साथ-साथ पवित्र ग्रंथों का समूह, यहाँ के प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित सांस्कृतिक अर्थ और हिमालयी क्षेत्र में विकसित होने वाले स्वदेशी और विशिष्ट बौद्ध विश्वोत्पत्तिवाद के बारे में जानकारी प्रदान करता है।
स्थानीय पौधों और स्थानीय पारिस्थितिक तंत्र के गुणों का स्वदेशी पारंपरिक ज्ञान, जो केवल यहाँ के स्थानीय लोगों के पास है, अब विलुप्‍त होने के कगार पर है। यह ज्ञान कई स्थानिक पौधों के उपचारात्‍मक गुणों के बारे में, जानकारी के एक अनमोल स्रोत को निरूपित करता है। वनों की पारंपरिक और अनुष्ठान प्रबंधन प्रणाली तथा बौद्ध मठों से संबंधित भूमि के प्राकृतिक संसाधन, बौद्ध सृष्टिशास्‍त्रों के सक्रिय आयाम को व्यक्त करते हैं तथा इस स्थल के प्रभावी प्रबंधन में योगदान भी कर सकते हैं।


मानदंड (iii):कंचनजंगा पर्वत तथा अन्य पवित्र पर्वतों सहित यह स्थल, सिक्किम वासियों के लिए एक प्रमुख पवित्र क्षेत्र और समकालिक धार्मिक व सांस्कृतिक परंपराओं को निरूपित करता है। इस तरह यह एक ही क्षेत्र में, बौद्ध और पूर्व-बौद्ध के पवित्र मान्यताओं की कई परतों के सह-अस्तित्व के साथ-साथ, कंचनजंगा पर्वत पर पर्वतीय देवी-देवताओं के प्राकृतिक वासस्‍थल का अद्वितीय साक्षी है। यह स्थल, बेयूल के रूप में सिक्किम की बौद्ध ज्ञप्ति के लिए महत्‍वपूर्ण है। अर्थात सिक्किम, पड़ोसी देशों तथा पूरे विश्‍व में तिब्बती बौद्धों के लिए, धार्मिक अनुष्ठानों और सांस्कृतिक गतिविधियों का एक अक्षुण्ण स्थल बना हुआ है। इस जगह का पवित्र बौद्ध महत्व, 8वीं शताब्दी में गुरु रिनपोछे द्वारा इस क्षेत्र में बौद्ध पवित्रता की शुरुआत करने से आरंभ हुआ और बाद में यह महत्व, टर्टन सांग लिंगपा (1340-1396) द्वारा लोगों के समक्ष प्रकट किए गए, लामा गोंगडू के रूप में प्रचलित पैगंबरी ग्रंथ जैसे बौद्ध धर्मग्रंथों में दिखाई देता है। इसके बाद यही महत्व मुख्य रूप से ल्हात्सुन नामखा जिग्मे द्वारा 17वीं शताब्दी में बेयूल की शुरुआत के साथ प्रकट हुआ।


मानदंड (vi):कंचनजंगा राष्‍ट्रीय उद्यान एक बहुजातीय संस्कृति का प्रमुख केंद्र है, जो समय के साथ विकसित हुआ है। यह एक ऐसी बहुस्तरीय समकालिक धार्मिक परंपरा को जन्म देता है, जो प्राकृतिक वातावरण और इसकी उल्लेखनीय विशेषताओं पर केन्द्रित है। यह संबंध सिक्किम के स्वदेशी लोगों द्वारा मेयल लिआंग के रूप में और तिब्बती बौद्ध धर्म में बेयूल (पवित्र छिपी हुई भूमि) के रूप में, कंचनजंगा पर्वत के आसपास के क्षेत्र द्वारा व्यक्त किया जाता है। यह पवित्र पर्वतीय पंथ का एक विशिष्ट सिक्किमी रूप है, जिसे लेपचा लोगों और भूटिया लोगों द्वारा नियमित रूप से किए जाने वाले अनुष्ठानों द्वारा बनाए रखा जाता है। भूटिया लोग दो अनुष्ठान करते हैं, जिन्हें नाय-सोल और पंग ल्‍हाब्‍सोल कहा जाता है। मानव समुदायों और पर्वतीय पर्यावरण के बीच संबंधों ने, प्राकृतिक संसाधनों और उनके गुणधर्मों के गहन पारंपरिक ज्ञान के विस्तार को, विशेष रूप से लेपचा समुदाय के भीतर निहित किया है। कंचनजंगा पर्वत, जातीय रूप से अति विविधीकृत सिक्किमी समुदायों की एकता और एकजुटता तथा उनकी सामाजिक-धार्मिक व्यवस्था का एक केंद्रीय तत्व है।


मानदंड (vii):कंचनजंगा पुंजक या मैसिफ़ तथा कंचनजंगा राष्‍ट्रीय उद्यान के भीतर मौजूद अनेक अन्य चोटियों का आकार एवं उनकी भव्यता अद्वितीय है, जो अनेक संस्कृतियों और धर्मों में एक पूजनीय परिदृश्य में योगदान करती हैं। पृथ्वी का तीसरा सबसे ऊँचा शिखर, कंचनजंगा पर्वत (समुद्र तल से 8,586 मी.), कंचनजंगा राष्‍ट्रीय उद्यान की पश्चिमी सीमा में फैला हुआ है और उद्यान के भीतर स्थित 6,000 मीटर से अधिक ऊँचाई वाली 20 सुरम्य चोटियों में से एक है। असामान्‍य रूप से ऊँचाई तक फैली वृक्षविकास-रेखा (टिम्बरलाइन) तथा अक्षुण्ण पुराने जंगलों से ढके हुए बेहद ऊँचे और ऊबड़-खाबड़ पहाड़ों का संयोजन, एवं ऊँचे वनस्पति क्षेत्र इसके असाधारण परिदृश्य सौंदर्य में और वृद्धि करते हैं। इन चोटियों ने दुनिया भर के लोगों, पर्वतारोहियों, फ़ोटोग्राफ़रों और आध्यात्मिक सिद्धि की आकांक्षा रखने वालों को आकर्षित किया है। इस उद्यान में एशिया के सबसे बड़े हिमनद, ज़ेमू सहित अठारह हिमनद उपस्थित हैं, जो लगभग 10,700 हेक्टेयर के क्षेत्र को घेरे हुए हैं। इसी तरह, इस स्थल में 73 हिमनद झीलें हैं, जिनमें अठारह से अधिक पूर्णतया स्‍वच्‍छ और ऊँची झीलें शामिल हैं।


मानदंड (x):कंचनजंगा राष्ट्रीय उद्यान, वैश्विक जैव विविधता संरक्षण की दृष्टि से महत्वपूर्ण, एक पर्वत शृंखला के भीतर स्थित है और सिक्किम राज्य के 25% हिस्से को आच्‍छादित करता है, जिसे भारत की सबसे महत्वपूर्ण जैव विविधता सघनताओं में से एक होने का गौरव हासिल है। इसके मध्य/उच्च एशियाई पहाड़ों में अब तक दर्ज की गई, पौधों और स्तनपायी प्रजातियों की सबसे अधिक संख्या मौजूद है। कंचनजंगा राष्ट्रीय उद्यान में भारत की पक्षी विविधता, जंगली पेड़ों, ऑर्किड और बुरांश फूलों का लगभग आधा हिस्सा और देश के फूलों वाले पौधों का एक तिहाई हिस्सा पाया जाता है। इसमें, हिमालयी क्षेत्र में क्रेमहोल्ज़ (अवरुद्ध वन) का सबसे विशाल व व्यापक क्षेत्र शामिल है। यह पौधों और पशुओं की कई स्थानिक, दुर्लभ और संकटापन्‍न प्रजातियों को शरण देता है। राष्ट्रीय उद्यान अपेक्षाकृत छोटे क्षेत्र में 7 किलोमीटर से अधिक की एक असाधारण ऊँचाई पर स्थित है, जिसके कारण पूर्वी हिमालय के परिदृश्य और संबंधित वन्यजीवों के आवास की एक असाधारण शृंखला की उत्पत्ति होती है। यह पारिस्थितिकी पच्चीकारी, बड़े स्तनधारियों की कई विशिष्ट प्रजातियों के लिए एक महत्वपूर्ण आवास प्रदान करता है, जिसमें कई बड़े शिकारी जानवर शामिल हैं। उद्यान के भीतर, उल्लेखनीय छह बिल्ली प्रजातियों (तेंदुआ, धूमिल तेंदुआ या क्लाउडेड लेपर्ड, हिम तेंदुआ, जंगली बिल्ली, सुनहरी बिल्ली, तेंदुआ बिल्ली) की पुष्टि की गई है। प्रमुख प्रजातियों में सबसे बड़ा हिमालयी शिकारी जानवर हिम तेंदुआ, लोमड़ी, तिब्बती भेड़िया, बड़ा भारतीय बिलाव, लाल पांडा, घोरल, नीली भेड़, हिमालयी ताहर, मुख्यभूमि सीरो, कस्‍तूरी मृग की दो प्रजातियाँ, प्राइमेट की दो प्रजातियाँ, तुंगशशक या पाइका की चार प्रजातियों के साथ-साथ अनेक कृंतकों की प्रजातियाँ भी शामिल हैं, जैसे रंग-बिरंगी उड़न गिलहरी।


समग्रता


कंचनजंगा राष्ट्रीय उद्यान में उत्कृष्ट सार्वभौमिक मूल्य का पूर्ण प्रतिनिधित्व बनाए रखने के लिए पर्याप्त स्‍थान मौजूद है। उद्यान की स्थापना 1977 में हुई थी और बाद में प्रमुख पहाड़ों, हिमनदों और अतिरिक्त तराई के जंगलों को शामिल करने के लिए, 1997 में इसका विस्तार किया गया था। आकार में दोगुने से अधिक की वृद्धि के कारण, यहाँ मौसमी प्रवास करने वाले पशुओं की एक बड़ी मात्रा को समायोजित किया गया है। इस परिसंपत्ति में लगभग 1,14,712 हेक्‍टेयर के बफ़र ज़ोन सहित 1,78,400 हेक्टेयर का क्षेत्र शामिल है, जो विशाल कंचनजंगा जैवमंडल आरक्षित क्षेत्र के भीतर मौजूद है। इस परिसंपत्ति में एक अद्वितीय पर्वत प्रणाली शामिल है जिसमें चोटियों, हिमनदों, झीलों, नदियों और पारिस्थितिक रूप से जुड़े जैविक तत्वों की एक पूरी शृंखला मौजूद है, जो कि पर्वतीय पारिस्थितिकी तंत्र के प्रकार्यों की धारणीयता सुनिश्चित करती है।
इस परिसंपत्ति में सिक्किम वासियों के आस्‍थागत तंत्रों में अंतर्निहित, पवित्र स्थलाकृतियों को आकार देने वाली प्रमुख मानव निर्मित विशेषताएँ शामिल हैं। सिक्किम के संरक्षक देवता और भूमि के मालिक और रक्षक, ज़ोंगा, कंचनजंगा पर्वत पर रहते हैं और इसकी ढलानों पर, लेपचा का पौराणिक स्थान, मेयल लिआंग स्थित है। वहीं दूसरी ओर, बेयूल या छिपी हुई पवित्र भूमि की बौद्ध अवधारणा, अपने पवित्र अर्थ के साथ पूरे सिक्किम से आगे बढ़ते हुए, इस परिसंपत्ति की सीमाओं से बाहर तक फैली हुई है।
इसलिए, अन्य मानव-निर्मित संरचनाएँ, जो इस परिसंपत्ति के सांस्कृतिक महत्व, इसकी सुरक्षा और इसकी समझ के सहयोगी के रूप में कार्यात्मक रूप से महत्वपूर्ण हैं, वे कंचनजंगा जैवमंडल आरक्षित क्षेत्र में, बफ़र ज़ोन और परिसंपत्ति के व्यापक समायोजन में स्थित हैं।
वर्तमान बफ़र ज़ोन में अच्छी तरह से संरक्षित और मूल्यवान वनों के प्रगतिशील परिवर्धन पर विचार करके, इस परिसंपत्ति के भीतर कम ऊँचाई वाले पारिस्थितिकी तंत्रों की निरूपणात्‍मक क्षमता में सुधार किया जा सकता है। इस प्रणाली की कार्यात्मक समग्रता नेपाल, चीन और भूटान जैसे पड़ोसी देशों के साथ जुड़ने के अवसरों से भी लाभान्वित होगी, जो व्यापक पारिस्थितिक तंत्र को साझा करते हैं। जैसा कि नेपाल में, कंचनजंगा संरक्षित क्षेत्र के साथ स्पष्ट सहयोग किया जा रहा है क्योंकि यह संरक्षित क्षेत्र कंचनजंगा राष्ट्रीय उद्यान के साथ सन्निहित है और कंचनजंगा पर्वत, दोनों देशों की सीमाओं के बीच फैला हुआ है।
पर्यावरण संरक्षण की पिछली नीतियों, जीवन शैली में बदलाव और निर्वाह के लिए पारंपरिक प्रथाओं को हतोत्साहित करने के कारण, साहचर्य मूल्यों और पारंपरिक ज्ञान की पवित्रता प्रभावित हुई है।


प्रामाणिकता


इस परिसंपत्ति की सीमा के भीतर, सांस्कृतिक विशेषताओं की प्रामाणिकता को संरक्षित किया गया है। यद्यपि संपत्ति के भीतर मूर्त मानव-निर्मित संरचनाएँ कुछ चोर्टेन या भिक्षु कक्ष, गोम्‍पास और पूजनीय प्राकृतिक विशेषताओं से संबंधित कई पवित्र तीर्थस्‍थलों तक ही सीमित हैं परंतु उनके प्रति निरंतर श्रद्धा, अुनरक्षण और संबंधित अनुष्ठान इस बात की पुष्टि करते हैं कि वे परिसंपत्ति के उत्कृष्ट सार्वभौमिक मूल्य के साक्षी हैं। परिसंपत्ति के साहचर्य मूल्यों और इसकी विशेषताओं के बारे में जानकारी के स्रोत हैं -नाय-सोल और नाय-यिक ग्रंथ। ये ग्रंथ कहानियों, अनुष्ठानों और संबंधित प्राकृतिक विशेषताओं के साथ-साथ अभी तक किए जाने वाले अनुष्ठानों, मौखिक इतिहास और लेपचा लोगों के अंतर्निहित पारंपरिक ज्ञान के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करते हैं।

सुरक्षा तथा प्रबंधन संबंधी आवश्‍यकताएँ


भारत के वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 के तहत कंचनजंगा राष्‍ट्रीय उद्यान के संरक्षित क्षेत्र की स्थिति, सभी प्राणिजात और वनस्‍पतिजात के साथ-साथ पहाड़ों, हिमनदों, जल निकायों और स्थलाकृतियों की सुदृढ़ विधिक सुरक्षा सुनिश्चित करती है, जो वन्यजीवों के प्राकृतिक निवास में योगदान करते हैं। यह उद्यान के भीतर मौजूद प्राकृतिक तत्वों की असाधारण प्राकृतिक सुंदरता और सौंदर्यपरक मूल्यों की सुरक्षा और संरक्षण भी सुनिश्चित करती है। इस परिसंपत्ति में राज्य के स्वामित्व वाली भूमि शामिल है और इसे 1977 से एक राष्ट्रीय उद्यान के रूप में संरक्षित किया गया था, जबकि बफ़र ज़ोन को वन संरक्षित क्षेत्र के रूप में संरक्षित किया गया था।


सांस्कृतिक महत्व रखने वाली प्राकृतिक विशेषताओं को सिक्किम सरकार द्वारा जारी की गई अधिसूचनाओं, n.59/गृह/98 और n.70/गृह/2001 द्वारा संरक्षित किया गया है। उन्होंने पवित्र विशिष्‍टताओं को चिन्हित किया और पूजा स्थलों के रूप में उनके उपयोग को विनियमित किया है। कुछ स्मारक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के संरक्षण के अंतर्गत आते हैं, जबकि अन्य स्मारकों का प्रबंधन मठों और स्थानीय समुदायों द्वारा पारंपरिक प्रबंधन प्रणालियों के माध्यम से किया जाता है जो कि मठों (ज्ञा-रा और ज्ञा-नाक ज़ोन) के तात्‍कालिक और व्यापक समायोजन तक विस्तारित होते हैं।
इस परिसंपत्ति का प्रबंधन सिक्किम वन, पर्यावरण एवं वन्यजीव प्रबंधन विभाग द्वारा एक प्रबंधन योजना के मार्गदर्शन में किया जाता है। इसका ध्येय, प्रमुख पारिस्थितिकी तंत्र और परिदृश्य विशेषताओं के संरक्षण के साथ-साथ, मनोरंजक अवसरों, सांस्कृतिक और शैक्षिक मूल्यों, और ऐसे वैज्ञानिक ज्ञान और रणनीतियों को विकसित करना है जिससे स्थानीय समुदायों के लाभ में बढ़ोत्तरी हो सके। इस परिसंपत्ति के प्रबंधन से संबंधित निर्णय लेने में, स्थानीय लोगों और अन्य हितधारकों को अच्छी तरह से सशक्त बनाने के लिए, अवसरों का उचित उपयोग करना चाहिए। सिक्किम के सांस्कृतिक विभाग, सांस्कृतिक विरासत मामलों के विभाग और तिब्बती नामग्याल संस्थान के साथ एक साझेदारी की परिकल्पना की गई है, ताकि सांस्कृतिक मूल्यों एवं विशेषताओं के विचार को मौजूदा प्रबंधन में समन्वित किया जा सके।
इस परिसंपत्ति के जैविक और पारिस्थितिक मूल्यों के ज्ञान का विस्तार करना जारी रखना चाहिए क्योंकि आँकड़े अभी भी अपर्याप्त हैं। परिसंपत्ति के भीतर प्रजातियों की संरचना को स्पष्ट करने तथा नीति और प्रबंधन को सूचित करने के लिए विस्तृत सूची, अनुसंधान और निगरानी केंद्र को प्रमुखता देनी चाहिए। प्रबंधन की प्रभावशीलता का आवधिक मूल्यांकन जारी रखना चाहिए और इसका उपयोग प्राथमिकता वाले क्षेत्रों में, प्रत्यक्ष निवेश के लिए किया जाना चाहिए ताकि वित्तीय और कार्मिक संसाधनों को इस योग्य बनाया जा सके कि भविष्य में प्रबंधन की चुनौतियों से आसानी से निपटा जा सके।
कंचनजंगा राष्ट्रीय उद्यान प्राकृतिक और सांस्कृतिक मूल्यों की एक समृद्ध अंतःसंबद्ध शृंखला को प्रदर्शित करता है, जिसके कारण प्राकृतिक और सांस्कृतिक विरासत के प्रबंधन के लिए एक अच्छी तरह से एकीकृत दृष्टिकोण विकसित करने की आवश्यकता है। परिसंपत्ति के प्राकृतिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक पहलुओं के बीच, एक उचित संतुलन सुनिश्चित करने के लिए कानूनी संरक्षण, नीतियों और प्रबंधन में उत्तरोत्तर सुधार किया जाना चाहिए।


पर्यावरण-विकास समितियों (ईडीसी) के माध्यम से, प्रबंधन के लिए एक सहभागी दृष्टिकोण अस्तित्व में है। निगरानी और निरीक्षण में इन समितियों की भूमिका को सांस्कृतिक पहलुओं और विशेषताओं के लिए भी विस्तारित करने की योजना है। एक सांस्कृतिक दृष्टिकोण से, अधिकृत और संक्रमण क्षेत्रों में स्थित सांस्कृतिक विशेषताओं के लिए, पारंपरिक और भागीदारी प्रबंधन का विस्तार, सांस्कृतिक मूल्यों के प्रभावी संरक्षण में मदद करेगा। साथ ही साथ यह स्थानीय समुदायों के उनके पर्यावरण के साथ, सांस्कृतिक संबंधों और उनके पारंपरिक ज्ञान को मज़बूत भी करेगा।


वर्तमान में देखें तो इस स्थल को कोई खतरा नहीं है, हालाँकि, प्रचार एवं संवर्धन के परिणामस्वरूप बढ़ते पर्यटन के प्रभाव के कारण उस पर प्रतिक्रिया करने के लिए तथा निगरानी करने के लिए सतर्कता रखनी आवश्यक है। ऐसे ही इस परिसंपत्ति के अंदर, ऊँचाई से संबंधित उतार-चढ़ाव पर जलवायु परिवर्तन के संभावित प्रभाव पर तथा संवेदनशील पारिस्थितिक स्थान जो महत्वपूर्ण आवास प्रदान करते हैं, पर ध्यान दिया जाना चाहिए। बफ़र ज़ोन के सक्रिय प्रबंधन के लिए आवश्यक होगा कि आस-पास के स्थानीय समुदायों के द्वारा असमान विकास और अनुचित रूप से भूमि के उपयोग को रोका जाए। इसके साथ ही, उद्यान तथा इसके बफ़र ज़ोन से पारंपरिक जीविका के साधनों का समर्थन और उसके द्वारा अर्जित लाभों का समान वितरण सुनिश्चित होना चाहिए।


कंचनजंगा राष्ट्रीय उद्यान, उस कंचनजंगा जैव आरक्षित क्षेत्र का मुख्य क्षेत्र है, जिसे 2016 में यूनेस्को द्वारा भारत का पहला 'मिश्रित विश्व धरोहर स्थल' घोषित किया गया था। इस घोषणा से इस स्थल की समृद्ध प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक विरासत की पहचान स्पष्ट होती है।

उद्यान में वर्ष के अधिकांश समय भारी बर्फ़बारी होती है। इस उद्यान का दौरा करने का सबसे अच्छा समय, अप्रैल और मई के मध्य का है, क्योंकि गर्मी के महीनों में, यहाँ का मौसम बहुत सुखद होता है। यहाँ फूलों की सुंदर विविधता देखने को मिलती है, जिनमें बुरांश (रोडोडेंड्रोन), प्राइमुल्स, फ़र्न और बाँज (बलूत या शाहबलूत) की कई किस्में शामिल हैं। सीमावर्ती ज़ोंगू घाटी में ही, औषधीय पौधों की 118 से अधिक प्रजातियाँ पाई जाती हैं।

उत्तरी सिक्किम में ज़ोंगू घाटी, लेपचा लोगों के लिए विशेष महत्व रखती है। 1960 के दशक में इस घाटी को सिक्किम के तत्कालीन राजा चोग्याल नामग्याल ने, लेपचा लोगों के लिए आरक्षित किया था। ज़ोंगू की ऊँचाई भिन्न-भिन्न जगहों 1,400 फीट से लेकर लगभग 20,000 फीट तक जाती है, जहाँ पशु एवं पौधों की विस्तृत विविधता देखने को मिलती है। यह घाटी कंचनजंगा राष्ट्रीय उद्यान और जैवमंडल आरक्षित क्षेत्र के बफ़र ज़ोन में स्थित है और इसे लेपचा लोगों द्वारा एक पवित्र स्थान माना जाता है।

ज़ोंगू जाने के लिए विशेष अनुमति की आवश्यकता होती है। इस पवित्र क्षेत्र से एक भी कंकड़ या पत्ती तक ले जाने की अनुमति नहीं है। लेपचा लोगों के बीच यह दृढ़ विश्वास है कि पवित्र भूमि पर किसी भी गड़बड़ी के परिणामस्वरूप, वन आत्माओं का प्रकोप हो सकता है।

इस पवित्र भूमि से कई मिथक जुड़े हुए हैं। लेपचा लोगों का मूल मिथक कंचनजंगा पर्वत से जुड़ा हुआ है। कहा जाता है कि लेपचा समुदाय का पहला पुरुष और पहली महिला, कंचनजंगा की बर्फ़ से बने थे। ज़ोंगू में नामप्रीकडांग की प्रसिद्ध भूमि से भी एक मिथक जुड़ा हुआ है। यह तीस्ता नदी के किनारे समतल भूमि का एक छोटा सा भाग है। एक किंवदंती के अनुसार, एक बार, दो पहाड़ों, रोंगडोकचू और सोंगफ़ोकिलो के मध्य युद्ध हुआ था और जब कंचनजंगा को यह बात पता चली, तो उसने शांति बनाए रखने और दोनों पहाड़ों के बीच सुलह कराने के लिए मानिक चू नामक नदी को भेजा। तब, नामप्रीकडांग के पवित्र मैदान में, दिव्य शांति संधि पर सहमति हुई थी।

'घृणित हिममानव' जिसे व्यापक रूप से यति (येटी) के रूप में जाना जाता है, से जुड़ा मिथक पूर्वी हिमालय से उत्पन्न हुआ था। यति को लोकगीतों में, बालों वाले वानर जैसे प्राणी के रूप में वर्णित किया गया है। यति संबंधी लोकगीत कंचनजंगा राष्ट्रीय उद्यान के दो मुख्य क्षेत्रों में गाए जाते हैं, दक्षिणी तिब्बती हिमालय और उत्तरी सिक्किम। यति को लेपचा लोगों द्वारा जंपी मूंग कहा जाता है। ऐसा कहा जाता है कि जंपी मूंग अपने प्रक्षालन या स्नान के लिए, नामप्रीकडांग तक आते थे।

नामप्रीकडांग में स्थित, लेपचा संग्रहालय को एक पारंपरिक लेपचा घर की शैली में बनाया गया है। लेपचा समुदाय की कई पारंपरिक कलाकृतियाँ यहाँ रखी गई हैं। सिक्किम के सबसे पवित्र मठों में से एक, थोलुंग मठ, ज़ोंगू में स्थित है। गोम्पा (मठ) में कई मूल्यवान पांडुलिपियाँ और अवशेष हैं, जिन्हें हर तीन वर्षों में, कमसिल समारोह के दौरान प्रदर्शित किया जाता है।