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तबला

Type: अवनद्ध वाद्य

तबला लकड़ी, धातु, पीतल, कपड़े, चिकनी मिट्टी, तांबे, अल्युमिनियम, इस्पात, चावल, गेहूँ, कोयले के चूरे, पौधों के रेशों, लोहे, निकिल, गोंद, कज्जल, भैंस के चमड़े, बकरी के चमड़े, चमड़े, और लेई से बना एक ताल वाद्य यंत्र है। यह उत्तर भारत के कई हिस्सों में पाया जाने वाला एक पारंपरिक वाद्य यंत्र है। यह एकल प्रदर्शन और वाद्य संगीत के सामूहिक प्रदर्शन में एक महत्वपूर्ण संगत वाद्य यंत्र होने के साथ ही एक एकल प्रदर्शन वाद्य यंत्र भी है।



उत्तर भारत में तबला

Material: लकड़ी, धातु, पीतल, कपड़ा, मिट्टी, तांबा, अल्युमिनियम, इस्पात, चावल, गेहूँ, कोयला का चूरा, पौधों का रेशा, लोहा, निकिल, गोंद, कज्जल, भैंस का चमड़ा, बकरी की चमड़ी, चमड़ा, लेई

तबला एक ताल वाद्य यंत्र है जिसमें ढोल की एक जोड़ी शामिल होती है। इसमें अलग-अलग आकारों और मापों के दो एकल सिरों वाले ढोल होते हैं। दाहिने हाथ से बजाया जाने वाला ढोल दायाँ कहलाता है जबकि बायें हाथ से बजाया जाने वाला बायाँ कहलाता है। दोनों ढोलों को छल्लों के आकार के धारकों पर रखा जाता है, जो पौधों के रेशों से बने होते हैं और कपड़े से ढके होते हैं, ताकि उन्हें बजाते समय संतुलित रखा जा सके। प्रदर्शन के दौरान तबले को वादकों के शरीर से दूर एक तिरछी स्थिति में रखा जाता है। दायाँ (लंबाई में 15 सेंटीमीटर और व्यास में 6 इंच) लकड़ी से बना होता है, जबकि बायाँ (लंबाई में 25 सेंटीमीटर और व्यास में 10 इंच) लोहे, तांबे, एल्यूमीनियम, और इस्पात या चिकनी मिट्टी से बना होता है। पुड़ी/ छावनी बकरी की खाल से बनी एक चादर होती है, जिसे दोनों ढोलों पर खींचकर चढ़ाया जाता है। पुड़ी को गजरा नामक एक पट्टी से बांधा जाता है। गजरा (बकरी या गाय के चमड़े के चर्म-बद्ध को जोड़कर बनाया जाता है) को बद्धी कहे जाने वाले चर्म-बद्ध के सहारे ढोल के मुँह पर लगाया जाता है। इन बद्धियों को तबले के नीचे एक दूसरे छल्ले से बाँधा जाता है और इसके बाद 16 छेद (घर) से समान दूरी पर बाँधा जाता है, जो हर समय पर इस वाद्य यंत्र को बराबर संतुलन देता है। इसमें आठ समस्वरण खंड (गट्टा) होते हैं, जिन्हें चर्म-बद्ध के प्रत्येक जोड़े के नीचे रखा जाता है, उन्हें ऊपर और नीचे करके तबले को सुरताल के अनुसार लयबद्ध किया जाता है। गोंद, कज्जल, कोयले के चूरे, और लोहे के बुरादे के मिश्रण से बनी स्याही (सात सेंटीमीटर व्यास वाली) होती है जो दायाँ पर बीच में और बायाँ पर बीच से थोड़ा बगल में लगाई जाती है। धुन की सीमा दायाँ के आकार पर निर्भर करती है। सामान्यतः गजरा पर एक छोटे से हथौड़े से प्रहार करके सुर-ताल को नियंत्रित किया जा सकता है। दायाँ को मूल स्वर (सा) पर बांधा जाता है, जिस पर प्रदर्शन आधारित होता है। तबला एक अरबी शब्द तब्ल से लिया गया है, जिसका अर्थ है एक सपाट सतह वाला ऊपर की ओर मुँह किया हुआ वाद्य यंत्र या ढोल। एक ऐसा ही ताल वाद्य यंत्र पहली बार 200 ईसा पूर्व महाराष्ट्र की भज गुफाओं की बौद्ध नक्काशी में देखा गया था। इस नकाशी को 1799 में खोजा गया, जिसमें दो महिलाओं को दर्शाया गया है, जिसमें से एक ढोल की एक जोड़ी बजा रही है, जबकि दूसरी उसकी ताल पर नाच रही है। ऐसा माना जाता है कि तबले का आविष्कार 13 वीं शताब्दी के सुफी कवि और संगीतकार अमीर खुसरो ने किया था, जिसे सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने संरक्षण दिया था। खुसरो ने तबला बनाने के लिए पखावज को दो भागों में काट दिया था। तबला बजाने में एक जटिल वादन तकनीक प्रयुक्त होती है। इसमें उंगलियों और हथेलियों का व्यापक उपयोग शामिल होता है जो विभिन्न ध्वनियों और लय की एक विस्तृत विविधता पैदा करता है जिसे निमोनिक सिलेबल्स (बोल) कहा जाता है। इसे दो तरह से बजाया जाता है - बंद बोल (ताली) और खुला बोल (खाली)। यह मुखर, वाद्य और नृत्य प्रदर्शन के लिए अक्सर एक संगत वाद्य यंत्र के रूप में उपयोग किया जाता है, हालांकि तबले ने हाल ही में एकल वाद्य का दर्जा भी हासिल कर लिया है। इसका कार्य उस मात्रिक चक्र को बनाए रखना है जिसमें संगीत/रचना को निर्धारित किया गया होता है। यह संगीत के विभिन्न शैलियों में प्रयुक्त होता है, जैसे - शास्त्रीय संगीत, क़व्वाली, भजन, कीर्तन, ग़ज़ल, लोक संगीत, इत्यादि। यह उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत का सबसे लोकप्रिय ताल वाद्य यंत्र है। यह दो ढोल से मिलकर बनता है - बाईं तरफ का 'बायाँ' कहलाता है जोकि मुलम्मा किए हुए तांबे से बनाया जाता है, और दाहिनी तरफ का ढोल 'दायाँ' कहलाता है जोकि लकड़ी से बना होता है। बाईं ओर एक छोटा गोलाकार ढोल होता है जो नगाड़े के आकार जैसा होता है। यह दाईं ओर के ढोल जितना ही लंबा होता है, लेकिन इसमें वादन सतह की चौड़ाई अधिक होती है और इसका तल दाएँ ढोल की तुलना में छोटा होता है। दोनों ढोलों की वादन सतहें बकरी की खाल से बनी होती है, जो ऊपरी तरफ फैली होती है। पूर्ण झिल्ली के ऊपर परिधि पर एक संकीर्ण झिल्ली होती है जिसको किनारा या चंटी कहा जाता है। पुड़ी या छावनी नामक चर्मपत्र एक गुंथी हुई पट्टी से बंधा होता है जिसे 'गजरा' कहा जाता है जो चार या पाँच चर्म-बद्धों से बना होता है। गजरे को ढोल के मुँह पर 'बद्धी' नामक चमड़े के पट्टों से लगाया जाता है, जो कि इस वाद्य यंत्र के निचले भाग में स्थित दूसरे छल्ले से बंधा होता है। इसमें सोलह छेद या 'घर' होते हैं, जिनमें बद्धियों को एकसमान दूरी पर बांधा जाता है। दाहिने ढोल में आठ समस्वरण खण्ड या 'गट्टे' होते हैं जिन्हें पुड़ी पर अलग-अलग तनाव डालने के लिए ऊपर या नीचे ले जाया जाता है। चर्मपत्र पर परतों में एक काला लेप लगाया जाता है, जिसे स्याही कहा जाता है। यह एकल प्रदर्शन और वाद्य संगीत के सामूहिक प्रदर्शन के लिए एक महत्वपूर्ण संगत वाद्य यंत्र होने के साथ ही एक एकल प्रदर्शन वाद्य यंत्र भी है।”